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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 93 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 93/ मन्त्र 15
    ऋषिः - तान्वः पार्थ्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - पाद्निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    अधीन्न्वत्र॑ सप्त॒तिं च॑ स॒प्त च॑ । स॒द्यो दि॑दिष्ट॒ तान्व॑: स॒द्यो दि॑दिष्ट पा॒र्थ्यः स॒द्यो दि॑दिष्ट माय॒वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अधि॑ इत् । नु । अत्र॑ । स॒प्त॒तिम् । च॒ । स॒प्त । च॒ । स॒द्यः । दि॒दि॒ष्ट॒ । तान्वः॑ । स॒द्यः । दि॒दि॒ष्ट॒ । पा॒र्थ्यः॑ । स॒द्यः । दि॒दि॒ष्ट॒ । माय॒वः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधीन्न्वत्र सप्ततिं च सप्त च । सद्यो दिदिष्ट तान्व: सद्यो दिदिष्ट पार्थ्यः सद्यो दिदिष्ट मायवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अधि इत् । नु । अत्र । सप्ततिम् । च । सप्त । च । सद्यः । दिदिष्ट । तान्वः । सद्यः । दिदिष्ट । पार्थ्यः । सद्यः । दिदिष्ट । मायवः ॥ १०.९३.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 93; मन्त्र » 15
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अत्र) इस शरीर में (तान्वः) परमेश्वर तनुसम्बन्धी (सप्ततिं-च सप्त च) ७७ संख्यावाली प्रधान नाड़ियों को (सद्यः-इत्-अधि दिदिष्ट) शरीरोत्पत्ति के साथ ही अधिष्ठित करता है, नियुक्त करता है (पार्थ्यः-सद्यः-दिदिष्ट) कठोर हड्डी सम्बन्धी विभक्तियों को उसी समय ही अधिष्ठित करता है, नियुक्त करता है (मायवः-सद्यः-दिदिष्ट) वाणीसम्बन्धी  वर्णरूप-अक्षररूप विभागों को उसी समय अधिष्ठित करता है, नियुक्त करता है ॥१५॥

    भावार्थ

    परमात्मा शरीरोत्पत्ति के साथ उसके अन्दर नाड़ियों हड्डियों के विभागों स्तरों और वाणी के उच्चारणस्थानों तथा क्रमों को नियुक्त करता है ॥१५॥

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    विषय

    तान्व:- पार्थ्य:- मायवः

    पदार्थ

    [१] (नु) = अब गतमन्त्र के अनुसार दुःशीम आदि बनकर प्रभु से ज्ञान को प्राप्त करनेवाला, (अत्र) = इस जीवन में (तान्वः) = शरीर की शक्तियों का विस्तार करनेवाला (इत्) = निश्चय से (सप्तः) = शीघ्र ही (सप्त च सप्ततिं च) = सात और सत्तर, अर्थात् सतहत्तर नाड़ीचक्रों के केन्द्रों को (अधिदिदिष्ट) = याचित करता है । इन केन्द्रों के ठीक रहने पर ही वस्तुतः शरीर के स्वास्थ्य का निर्भर है । [२] (पार्थ्य:) = मानस शक्तियों का विस्तार करनेवाला भी इन्हीं को ही (सद्यः) = शीघ्र [अधि] दिदिष्ट = आधिक्येन याचित करता है । इन केन्द्रों के विकृत होने पर मनुष्य अस्थिर मनवाला हो जाता है । [३] (मायवः) = अपने साथ ज्ञान का सम्पर्क करनेवाला पुरुष भी (सद्यः) = शीघ्र ही इन सतहत्तर केन्द्रों के स्वास्थ्य की [अधि] (दिदिष्ट) = याचना करता है । इनके विकृत होते ही मस्तिष्क विकृत हो जाता है और मनुष्य पागल बन जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर में सतहत्तर नाड़ीचक्र केन्द्रों के ठीक होने के द्वारा हम 'तान्व - पार्थ्य व मायव' बनें । शरीर, मन व बुद्धि तीनों के स्वास्थ को प्राप्त करने के लिए इन केन्द्रों का ठीक होना आवश्यक है । सम्पूर्ण सूक्त 'तान्व, पार्थ्य व मायव' बनने के साधनों पर सुन्दरता से प्रकाश डाल रहा है। अगला सूक्त ' अर्बुद - काद्रवेय-सर्प' ऋषि का है- 'अर्बुद' [अर्व हिंसायाम्] वासनाओं का संहार करनेवाला है । वासनाओं के संहार के लिये यह 'काद्रवेय' [कदि आह्वाने] प्रभु का आह्वान करनेवाला बनता है, प्रभु का प्रातः सायं आराधन करता है और 'सर्प:' [सृ गतौ ] गतिशील बना रहता है। यह कहता है कि-

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    विषय

    दैहिक ७७ केन्द्रों के ज्ञान का आदेश।

    भावार्थ

    (तान्वः) तनु, देह के ज्ञान का वेत्ता, (अत्र) इस सम्बन्ध में (सप्त च सप्ततिं च) ७७ नाड़ियों, तन्तु केन्द्रों का (अधि दिदिष्ट) उपदेश करता है, (पार्थ्यः) विस्तृत शक्ति का स्वामी भी (सद्यः) शीघ्र ही ७७ को (अधि दिदिष्ट) वश करे और (मायवः सद्यः दिदिष्ट) ज्ञान की कामना वाला भी इन ७७ के सम्बन्ध में ज्ञान याचना करे। इत्यष्टाविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिस्तान्वः पार्थ्यः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १ विराट् पक्तिः। ४ पादनिचृत् पङ्क्तिः। ५ आर्चीभुरिक् पङ्क्तिः। ६, ७, १०, १४ निचृत् पङ्क्तिः। ८ आस्तारपङ्क्तिः। ९ अक्षरैः पङ्क्तिः। १२ आर्ची पङ्क्तिः। २, १३ आर्चीभुरिगनुष्टुप्। ३ पादनिचृदनुष्टुप्। ११ न्यङ्कुसारिणी बृहती। १५ पादनिचृद् बृहती। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अत्र) अस्मिन् शरीरे (तान्वः) परमेश्वरस्तनुसम्बन्धिनीः “एकवचनं छान्दसम्” (सप्ततिं-च सप्त च) सप्तसप्ततिसंख्याकाः प्रधाननाडीः (सद्यः-इत्-अधि दिदिष्ट) तत्कालमेव-शरीरोत्पत्ति-समकालमेव शरीरेऽधिष्ठापयति-नियोजयति (पार्थ्यः सद्यः-दिदिष्ट) पृथिसम्बन्धिनीः कठोराऽस्थिसंबन्धिनीर्विभक्तीस्तदेवाधिष्ठापयति-नियोजयति (मायवः सद्यः-दिदिष्ट) वाचः सम्बन्धिनीः ‘मायुः वाङ्नाम’ [निघ० १।११] विभक्ती-वर्णात्मकीस्तदैवाधिष्ठापयति-नियोजयति ॥१५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Here in the matter of body and mind, divine nature gives and simultaneously orders and controls seventy seven nerves of the body, seventy seven bone structures, and seventy seven articulatory functions.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा शरीरोत्पत्तीबरोबरच त्यात नाड्या, अस्थी त्यांच्या विभागाचे स्तर व वाणीचे उच्चारण स्थान व क्रम नियुक्त करतो. ॥१५॥

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