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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 93 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 93/ मन्त्र 6
    ऋषिः - तान्वः पार्थ्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    उ॒त नो॑ दे॒वाव॒श्विना॑ शु॒भस्पती॒ धाम॑भिर्मि॒त्रावरु॑णा उरुष्यताम् । म॒हः स रा॒य एष॒तेऽति॒ धन्वे॑व दुरि॒ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । नः॒ । दे॒वौ । अ॒श्विना॑ । शु॒भः । पती॒ इति॑ । धाम॑ऽभिः । मि॒त्रावरु॑णौ । उ॒रु॒ष्य॒ता॒म् । म॒हः । सः । रा॒यः । आ । ई॒ष॒ते॒ । अति॑ । धन्वा॑ऽइव । दुः॒ऽइ॒ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत नो देवावश्विना शुभस्पती धामभिर्मित्रावरुणा उरुष्यताम् । महः स राय एषतेऽति धन्वेव दुरिता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । नः । देवौ । अश्विना । शुभः । पती इति । धामऽभिः । मित्रावरुणौ । उरुष्यताम् । महः । सः । रायः । आ । ईषते । अति । धन्वाऽइव । दुःऽइता ॥ १०.९३.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 93; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (उत) और (शुभस्पती) कल्याण के पालक (मित्रावरुणौ) शुभ कर्म में प्रेरक और स्व स्नेह में वरनेवाले (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक (देवौ) दोनों विद्वान् (धामभिः) अपने-अपने विद्याङ्गों-विद्याविभागों के द्वारा (नः-उरुष्यताम्) हमारी रक्षा करें (सः) वह तुम्हारे द्वारा रक्षित मनुष्य (महः-रायः) महान् धनों को (एषते) प्राप्त करता है (धन्व-इव दुरिता-अति) मरुस्थलों की भाँति दुःखों को लाँघ जाता है ॥६॥

    भावार्थ

    कल्याणचिन्तक उत्तम प्रेरक और स्नेह में वरनेवाले अध्यापक और उपदेशक अपने-अपने विद्याङ्गों के द्वारा मनुष्यों की रक्षा करते हैं, जो उनकी सङ्गति में आता है, वह महान् धनों से सम्पन्न हो जाता है और दुःखों को तर जाता है ॥६॥

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    विषय

    रेगिस्तान के पार

    पदार्थ

    [१] (उत) = और (नः) = हमारे लिए (अश्विनौ देवौ) = प्राणापान हमारे काम-क्रोधादि शत्रुओं को जीतने की कामनावाले हों [दिव् विजिगीषा]। हम प्राणसाधना के द्वारा इन सब शत्रुओं को नष्ट कर सकें। वस्तुतः ये प्राणापान इस प्रकार हमारे दोषों को दग्ध करके (शुभस्पती) = शुभ के रक्षक हैं। अशुभ को ये दूर करते हैं और शुभ का रक्षण करते हैं । [२] काम-क्रोधादि को जीतकर हम राग-द्वेषादि से ऊपर उठते हैं। इनसे ऊपर उठकर हम सबके प्रति स्नेह करनेवाले 'मित्र' तथा किसी से द्वेष न करनेवाले 'वरुण' बनते हैं। ये (मित्रावरुणा) = स्नेह व निर्दोषता के भाव (धामभिः) = तेजस्विताओं के द्वारा (उरुष्यताम्) = हमारा रक्षण करें। द्वेष से मनुष्य अन्दर ही अन्दर जलता रहता है और उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है। [३] इस प्रकार शक्ति का रक्षण करके (स) = वह प्राणसाधक पुरुष (महः राय:) = महत्त्वपूर्ण ऐश्वर्य को (आ ईषते) = सर्वथा प्राप्त होता है और (दुरिता अति) = सब दुरितों व दुर्गतियों को इस प्रकार पार कर जाता है (इव) = जैसे (धन्वा) = कोई पथिक रेगिस्तान को पार कर जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ-प्राणसाधना से अशुभ वृत्तियाँ का नाश होकर शुभवृत्तियों का विकास होता है। ईर्ष्या-द्वेषादि से ऊपर उठकर मनुष्य तेजस्वी बनता है। शुभ ऐश्वर्यों को प्राप्त करके दुर्गतियों को पार कर जाता है । इस साधक के लिए सांसारिक विषय मरुस्थल के समान हो जाते हैं।

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    विषय

    श्रेष्ठ स्त्री पुरुष सब की रक्षा करें, अन्यों को दुःखों से पार करें।

    भावार्थ

    (उत) और (अश्विना देवौ) वेग से जाने वाले देव, सुखप्रद, (शुभः पती) उत्तम कल्याणकारी कर्मों, व्रतों के पालक (मित्रा-वरुणौ) मित्र और वरुण, दिन और रात्रिवत् विद्वान् स्त्री और पुरुष, एवं उत्तम जन, (नः) हमारी (धामभिः) अनेक धारक-पोषक सामर्थ्यों से (उरुष्यताम्) रक्षा करें। (सः) वह (महः) महान् (रायः) ऐश्वर्यों को (आ ईषते) प्राप्त करता है और (धन्व इव दुरिता अति) जल के समान दुखों और पापों को पार कर जाता है, जिसकी वे रक्षा करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिस्तान्वः पार्थ्यः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १ विराट् पक्तिः। ४ पादनिचृत् पङ्क्तिः। ५ आर्चीभुरिक् पङ्क्तिः। ६, ७, १०, १४ निचृत् पङ्क्तिः। ८ आस्तारपङ्क्तिः। ९ अक्षरैः पङ्क्तिः। १२ आर्ची पङ्क्तिः। २, १३ आर्चीभुरिगनुष्टुप्। ३ पादनिचृदनुष्टुप्। ११ न्यङ्कुसारिणी बृहती। १५ पादनिचृद् बृहती। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (उत) अपि च (शुभस्पती) कल्याणस्य पालकौ (मित्रावरुणौ) प्रेरकवरयितारौ (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ “अश्विना अध्यापकोपदेशकौ” [ऋ० ५।७८।३ दयानन्दः] (देवौ) विद्वांसौ (धामभिः) स्वस्वविद्याङ्गैः “अङ्गानि वै धामानि” [का०श० ४।३।४।११] (नः-उरुष्यताम्) अस्मान् रक्षताम् “उरुष्यति रक्षाकर्मा” [निरु० ५।२३] (सः-महः-रायः-एषते) स युवाभ्यां रक्षितो जनो महान्ति धनानि प्राप्नोति, अथ च (धन्व-इव दुरिता-अति) मरुस्थलानीव “धन्वानि-अविद्यमानोदकादिदेशान्” [ऋ० ५।८३।१० दयानन्दः] दुःखानि अतिक्रामति ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And may the divine Ashvins, complementary currents of natural energy, Mitra and Varuna, prana and udana energies of the body system vibrating in nature, protect and promote us. One whom they protect and promote rises great in wealth, rules it as the master and crosses over all evils with a single leap.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कल्याणचिंतक, उत्तम, प्रेरक व स्नेही अध्यापक व उपदेशक आपापल्या विद्याङ्गाद्वारे माणसांचे रक्षण करतात. जो त्यांच्या संगतीत येतो तो महाधनांनी संपन्न होतो व दु:खातून तरून जातो. ॥६॥

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