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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 55/ मन्त्र 15
    ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा देवता - विश्वेदेवा, रोदसी द्युनिशो वा छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प॒देइ॑व॒ निहि॑ते द॒स्मे अ॒न्तस्तयो॑र॒न्यद्गुह्य॑मा॒विर॒न्यत्। स॒ध्री॒ची॒ना प॒थ्या॒३॒॑ सा विषू॑ची म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒देइ॒वेति॑ प॒देऽइ॑व । निहि॑ते॒ इति॒ निऽहि॑ते । द॒स्मे । अ॒न्तरिति॑ । तयोः॑ । अ॒न्यत् । गुह्य॑म् । आ॒विः । अ॒न्यत् । स॒ध्री॒ची॒ना । प॒थ्या॑ । सा । विषू॑ची । म॒हत् । दे॒वाना॑म् । अ॒सु॒र॒ऽत्वम् । एक॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पदेइव निहिते दस्मे अन्तस्तयोरन्यद्गुह्यमाविरन्यत्। सध्रीचीना पथ्या३ सा विषूची महद्देवानामसुरत्वमेकम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पदेइवेति पदेऽइव। निहिते इति निऽहिते। दस्मे। अन्तरिति। तयोः। अन्यत्। गुह्यम्। आविः। अन्यत्। सध्रीचीना। पथ्या। सा। विषूची। महत्। देवानाम्। असुरऽत्वम्। एकम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 55; मन्त्र » 15
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    अन्वयः

    हे मनुष्या देवानां यन्महदेकमसुरत्वमस्ति येन दस्मे पदे इव निहिते रात्रिदिने वर्त्तेते यान्या सध्रीचीना पथ्या सा विषूची वर्त्तेते तयोरन्तरन्यद्गुह्यमन्यच्चाविरस्ति तत्सर्वं विजानीत ॥१५॥

    पदार्थः

    (पदे इव) यथा पादौ तथा (निहिते) धृते (दस्मे) उपक्षयित्र्यौ (अन्तः) मध्ये (तयोः) (अन्यत्) (गुह्यम्) गुप्तम् (आविः) रक्षकम् (अन्यत्) (सध्रीचीना) सहाञ्चन्ती (पथ्या) पथोऽनपेता स्वकक्षां विहायाऽन्यत्रागन्त्री (सा) (विषूची) या विषून् व्याप्तानञ्चति सा (महत्) (देवानाम्) (असुरत्वम्) (एकम्) ॥१५॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा मनुष्या द्वाभ्यां पादाभ्यां गच्छन्ति तथैव रात्रिदिने गच्छतः। यथा दिनं पथ्यमस्ति तथा रात्रिः पथ्या न भवति। एवं सर्वान्तर्य्यामि ब्रह्म विहायान्यदुपासितं पथ्यं न जायते ॥१५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (देवानाम्) विद्वानों का जो (महत्) बड़ा (एकम्) द्वितीयरहित (असुरत्वम्) दोषों का दूर करनेवाला है और जिससे (दस्मे) नाश होनेवाले (पदेइव) पैरों के सदृश (निहिते) धारण किये गये रात्रि और दिन वर्त्तमान हैं जो अन्य (सध्रीचीना) एक साथ सेवन करती हुई (पथ्या) अपनी कक्षा को त्याग के अन्यत्र नहीं जानेवाली (सा) वह (विषूची) व्याप्त पदार्थों का सेवन करती है (तयोः) उनके (अन्तः) मध्य में (अन्यत्) दूसरा (गुह्यम्) गुप्त (अन्यत्) अन्य (आविः) रक्षा करनेवाला है, उस सबको जानो ॥१५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य लोग दो पैरों से चलते हैं, वैसे ही रात्रि और दिन चलते हैं और जैसे दिन पथ्य है, वैसे रात्रि पथ्य नहीं होती है। इसी प्रकार सर्वान्तर्यामी ब्रह्म को त्याग करके अन्य उपासित हुआ पथ्य नहीं होता है ॥१५॥

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    विषय

    विराट् पुरुष के दो पाँव

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र में वर्णित द्युलोक व पृथ्वीलोक विराट् पुरुष के (पदे इव) = पाँवों के समान (निहिते) = स्थापित हैं। विराट् पुरुष का एक पाँव पृथ्वीलोक है, तो दूसरा पाँव द्युलोक है। ये दोनों (दस्मे) = अत्यन्त दर्शनीय व प्राणियों के दुःखों का विनाश करनेवाले हैं [दसु उपक्षये] । [२] (तयोः अन्तः) = उन दोनों के अन्दर (अन्यद् गुह्यम्) = एक तो अत्यन्त गुह्य व रहस्यमय है- इस द्युलोक का समझना सुगम नहीं है। (अन्यत्) = दूसरा यह पृथ्वीलोक (आवि:) = प्रकट ही है- इस पर तो हम चल फिर ही रहे हैं-यह उतना छिपा हुआ नहीं। यह पृथिवी (सध्रीचीना) = सूर्य के साथ [पतिपरायणा स्त्री के समान] गतिवाली है तथा (पथ्या) = [धर्ममार्ग से विचलित न होनेवाली स्त्री के समान] स्वक्रान्तिपथ से न विचलित होनेवाली है, परन्तु (सा) = वह (द्यौ विषूची) = विविध दिशाओं में गतिवाली व व्यापक है। इन द्युलोक व पृथ्वीलोक में स्थित सब देवों का प्राणशक्ति- संचार का कार्य अद्वितीय व महान् है ।

    भावार्थ

    भावार्थ– पृथिवीलोक व द्युलोक विराट् पुरुष के दो पाँवों के समान हैं, पृथ्वी प्रकट है, द्युलोक गुह्य है। पृथ्वी मार्ग पर चल रही है, द्युलोक व्यापक है।

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    विषय

    ईश्वर का विराट् देह। ईश्वर के दो चरण आकाश, भूमि।

    भावार्थ

    आकाश और भूमि दोनों (पदे इव) मानों दो चरणों के समान (निहिते) स्थिर हैं, जिनके आश्रय मानों परमेश्वर का विराट् देह संसार स्थित है। वे दोनों (दस्मे) दर्शनीय, अद्भुत हैं वा वे दोनों (दस्मे) क्रम से अन्धकार और धनैश्वर्य का नाश करने वाली हैं। (तयोः अन्तः) उन दोनों के बीच में (अन्यत्) एक आकाश तो (गुह्यम्) गुहा अर्थात् अन्तरिक्ष में व्यापक है और दूसरा पद ‘भूमि’ (आविः) सर्व प्रकट और सबका रक्षक भी है। इन दोनों में से एक भूमि (सध्रीचीना) सब प्राणियों के साथ रहती और (पथ्या) अन्नादि देने से हितकारिणी वा सदा सूर्य के साथ पतिपरायणा पत्नी के समान रहने वाली और (पथ्या) धर्म पथ से न अतिक्रमण करने वाली सती साध्वी के समान ‘पथ्या’ स्वक्रान्तिपथ से न विचलित होने वाली है। और (सा) वह आकाश (विषूची) समस्त पदार्थों में व्यापक है। यह सब (देवानाम् एकं महत् असुरत्वम्) सूर्य की किरणों या दिव्य सूर्यादि पिण्डों का बड़ा भारी सामर्थ्य या महिमा है कि दोनों पदार्थ ऐसे हैं। त्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। उषाः। २—१० अग्निः। ११ अहोरात्रौ। १२–१४ रोदसी। १५ रोदसी द्युनिशौ वा॥ १६ दिशः। १७–२२ इन्द्रः पर्जन्यात्मा, त्वष्टा वाग्निश्च देवताः॥ छन्दः- १, २, ६, ७, ९-१२, १९, २२ निचृत्त्रिष्टुप्। ४, ८, १३, १६, २१ त्रिष्टुप्। १४, १५, १८ विराट् त्रिष्टुप्। १७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पंक्तिः। ५, २० स्वराट् पंक्तिः॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी माणसे दोन पायांनी चालतात तसेच रात्र व दिवस चालतात. जसा दिवस कल्याणकारक असतो व रात्र नसते, तसेच सर्वांतर्यामी ब्रह्माचा त्याग करून अन्य कोणाची उपासना कल्याणकारक नसते. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Positioned both inside the same one wonderful house of space, one of them is hidden in the dark, the other is manifest in open day light. Their path of movement and their goal is one and the same, universal, and yet it is different and separate, (they meet and yet they never meet). Great is the glory of the Infinite Divine, one and yet different.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of Dyunishor (sky and night) is dealt.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Like the two legs, the perishable day and night are controlled by that One Great-God-Who is the Life and Lord of all visible articles lying in between heaven and earth, One of them (night) is hidden, while another (day) is manifested; the path of both is common and that is universal. You should know all this well.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As men walk on two legs, so are the day and night. The night is not so agreeable and pleasant to the people as the day (when they can work more freely) is. In the same manner, any other thing worshipped except God Who is the In-dwelling spirit, can not be bestower of peace and bliss.

    Foot Notes

    (दस्मे) उपक्षयित्र्यौ = Perishable. (सध्रीचीना ) सहाञ्चन्ती = Going together. (विषूचि) वा विषून व्याप्तानञ्चति सा = Going with pervaded articles.

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