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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 55/ मन्त्र 16
    ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा देवता - विश्वेदेवा, दिशः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ धे॒नवो॑ धुनयन्ता॒मशि॑श्वीः सब॒र्दुघाः॑ शश॒या अप्र॑दुग्धाः। नव्या॑नव्या युव॒तयो॒ भव॑न्तीर्म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । धे॒नवः॑ । धु॒न॒य॒न्ता॒म् । अशि॑श्वीः । स॒बः॒ऽदुघाः॑ । श॒श॒याः । अप्र॑ऽदुग्धाः । नव्याः॑ऽनव्याः । यु॒व॒तयः॑ । भव॑न्तीः । म॒हत् । दे॒वाना॑म् । अ॒सु॒र॒ऽत्वम् । एक॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ धेनवो धुनयन्तामशिश्वीः सबर्दुघाः शशया अप्रदुग्धाः। नव्यानव्या युवतयो भवन्तीर्महद्देवानामसुरत्वमेकम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। धेनवः। धुनयन्ताम्। अशिश्वीः। सबःऽदुघाः। शशयाः। अप्रऽदुग्धाः। नव्याःऽनव्याः। युवतयः। भवन्तीः। महत्। देवानाम्। असुरऽत्वम्। एकम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 55; मन्त्र » 16
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    अन्वयः

    हे मनुष्या युष्माकं सबर्दुघाः शशया अप्रदुग्धा धेनवो अशिश्वीर्नव्यानव्या भवन्तीर्युवतय इव देवानां महदेकमसुरत्वमाधुनयन्ताम् ॥१६॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (धेनवः) वाचः (धुनयन्ताम्) कम्पन्ताम् (अशिश्वीः) अबालाः (सबर्दुघाः) सर्वान् कामान् प्रपूरिकाः (शशयाः) शयाना इव (अप्रदुग्धाः) न केनापि प्रकर्षतया दुग्धाः (नव्यानव्याः) नवीनानवीनाः (युवतयः) प्राप्तयौवनावस्था ब्रह्मचारिण्यः (भवन्तीः) भवन्त्यः (महत्) (देवानाम्) (असुरत्वम्) (एकम्) ॥१६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा प्रथमे वयसि वर्त्तमाना अधीतविद्या अबाला ब्रह्मचारिण्यः स्वसदृशान् पतीनुपनीयाऽऽनन्दन्ति तथैव सर्वविद्यायुक्ता वाचो प्राप्य विद्वांसः सुखयन्ति ॥१६॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! आप लोगों के (सबर्दुघाः) सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाली (शशयाः) शयन करती सी हुई (अप्रदुग्धाः) नहीं किसी करके भी बहुत दुही गई (धेनवः) वाणियाँ (अशिश्वीः) बालाओं से भिन्न (नव्यानव्याः) नवीननवीन (भवन्तीः) होती हुईं (युवतयः) यौवनावस्था को प्राप्त ब्रह्मचारिणी स्त्रियाँ जैसे वैसे (देवानाम्) विद्वानों में (महत्) बड़े (एकम्) द्वितीयरहित (असुरत्वम्) दोषों के दूर करनेवाले को (आ, धुनयन्ताम्) अच्छे प्रकार कंपाइये ॥१६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्रथम अवस्था में वर्त्तमान विद्या पढ़ी हुई बाला भिन्न ब्रह्मचारिणी स्त्रियाँ अपने सदृश पतियों को प्राप्त होकर आनन्दित होती हैं, वैसे ही सब विद्याओं से युक्त वाणियों को प्राप्त होकर विद्वान् लोग सुखी होते हैं ॥१६॥

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    विषय

    अप्रदुग्ध धेनुएँ

    पदार्थ

    [१] (धेनवः) = वेदवाणीरूप ये धेनुएँ-ज्ञानदुग्ध से प्रीणित करनेवाली वेदवाणियाँ हमारे लिए (आधुनयन्ताम्) = ज्ञानदुग्ध का दोहन करें [आदुहन्तु] । ये ज्ञानवाणियाँ (अशिश्वी:) = [शिशवों न भवन्ति] अत्यन्त सनातन हैं- नवोत्पन्न शिशु की तरह नहीं हैं- प्रत्न हैं [पुरातन], कभी जीर्ण न होनेवाली । (सबर्दुघा:) = ज्ञानदुग्ध का हमारे में पूरण करनेवाली हैं [दुह प्रपूरणे] । (शशया:) = वस्तुत: हमारी बुद्धिरूप-गुहा में ये शयन करनेवाली हैं वासनावरण के कारण ही इनका प्रकाश हमें नहीं दिखता। (अप्रदुग्धाः) = ये वेदवाणीरूप धेनुएँ कभी प्रदुग्ध नहीं हो जातीं, ऐसी स्थिति कभी नहीं होती कि 'हम यह कह सकें कि अब इनसे और क्या ज्ञान प्राप्त होना ?' 'जो ज्ञान मिलना था मिल गया' । [२] ये वेदवाणियाँ तो (नव्याः नव्याः) = प्रत्येक पारायण में [पाठ में] नवीन और नवीन ही प्रतीत होती हैं। इनके फिर-फिर अध्ययन से उत्तरोत्तर ज्ञान का प्रकर्ष होता चलता है (युवतयः भवन्तीः) = ये हमारे जीवनों में दोषों का अमिश्रण व गुणों का मिश्रण करनेवाली होती जाती हैं। इनके अध्ययन से ही हम सूर्यादि देवों के ठीक सम्पर्क में आते हुए अनुभव करते हैं कि इन (देवानाम्) = सूर्यादि देवों का (असुरत्वम्) = प्राणशक्ति संचार का कार्य (एकम्) = अद्वितीय है व (महत्) = महान् है ।

    भावार्थ

    भावार्थ– वेदवाणीरूप गौवों का ज्ञानदुग्ध हमारे जीवनों को बुराइयों से रहित व अच्छाइयों से युक्त करता है।

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    विषय

    युवतियों, गौओं के तुल्य मेघादि लोकधारक शक्तियों का वर्णन।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (धेनवः) गौओं के समान सोम्य स्वभाव की (नव्याः नव्याः) नयी नयी, अति मनोहर देह वाली कन्याएं (युवतयः भवन्तीः) युवति दशा को प्राप्त होती हुई (अशिश्वीः) पालक न रहकर (सबर्दुधाः) आनन्द सुख से पूर्ण करती हुई (अप्रदुग्धाः) अन्य से अभुक्त, ब्रह्मचारिणी रहकर (शशयाः) निश्चिन्त रहकर शयन करती हुईं (आ धुनयन्ताम्) इधर उधर जाती, या हृदय में आकर्षण उत्पन्न करती या पतियों के साथ प्रेम सम्बन्ध करती हैं यह (देवानां) उनकी कामना करने वाले पतियों के लिये (एकं महत्) एक बड़ा भी (असुरत्वम्) जीवनप्रद कार्य होता है। इसी प्रकार दिशाएं (धेनवः) मेघ द्वारा रस या जल वर्षा कर लोकों को रस पालन कराती हुईं दुधार गौवों के समान हैं। वे (अशिश्वीः) बड़ी विस्तृत (सबर्दुघाः) जलों, रसों को दोहन पूर्ण और प्रदान करने वाली (शशयाः) व्यापक (अप्रदुग्धाः) किसी द्वारा पूर्ण या दुही गई, सदा रसपूर्ण (नव्याः नव्याः) सदा नई, मनोहर (युवतयः) लोकों को संग्रह और विभिन्न २ करने वाली होकर रहतीं (देवानां महत् एकं असुरत्वं) सूर्य की किरणों के एक बड़े भारी महान् सामर्थ्य को (आधुनयन्ताम्) प्रकट करतीं, विस्तारती वा सर्वत्र नदी के समान जल धारा रूपों में प्रेरित करतीं वा बहाती हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। उषाः। २—१० अग्निः। ११ अहोरात्रौ। १२–१४ रोदसी। १५ रोदसी द्युनिशौ वा॥ १६ दिशः। १७–२२ इन्द्रः पर्जन्यात्मा, त्वष्टा वाग्निश्च देवताः॥ छन्दः- १, २, ६, ७, ९-१२, १९, २२ निचृत्त्रिष्टुप्। ४, ८, १३, १६, २१ त्रिष्टुप्। १४, १५, १८ विराट् त्रिष्टुप्। १७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पंक्तिः। ५, २० स्वराट् पंक्तिः॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे प्रथम अवस्थेत विद्या प्राप्त केलेल्या ब्रह्मचारिणी आपल्या सारख्याच पतींना प्राप्त करून आनंदित होतात तसेच सर्व विद्यायुक्त वाणी प्राप्त करून विद्वान लोक सुखी होतात. ॥ १६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Let the ‘cows’, day and night, heaven and earth, stars and planets, move and shake and shower the nectar milk of light and life, vibrant and full, abundant and inexhaustible, like youthful maidens ancient yet ever fresh anew. Great is the glory and gifts of Divinity, various, infinite, yet one, undivided, indivisible.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    About the four Dishas (directions) is stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! let the (female) Brahmcharinis, who are fully grown up, are mature in their intellectual and bodily growth (have crossed the age-limit of childhood), competent to carry out of the age of girlhood, like an un-milch cow after marriage, conceive the semen of their youthful husbands. Let them realize the importance of their association with the men (or cohabitation with the men of intellect and learning).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The Brahamcharinis who are youthful and who have studied in childhood all the sciences, having married a suitable husband enjoy happiness and gladden all. In the same manner, the enlightened persons make all happy by obtaining speech full of knowledge of all sciences.

    Foot Notes

    (धेनवः) वाचः गावः = धेनुरिति वाङ्नाम (N.G. 1. 11 ) Speeches and cows. (सबदुर्धा:) सर्वान् कामान् प्रपूरिकाः । = Fulfillers of all noble desires.

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