ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 55/ मन्त्र 17
ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा
देवता - विश्वेदेवा, इन्द्रः पर्जन्यात्मा त्वष्टा वाग्निश्च
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यद॒न्यासु॑ वृष॒भो रोर॑वीति॒ सो अ॒न्यस्मि॑न्यू॒थे नि द॑धाति॒ रेतः॑। स हि क्षपा॑वा॒न्त्स भगः॒ स राजा॑ म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒न्यासु॑ । वृ॒ष॒भः । रोर॑वीति । सः । अ॒न्यस्मि॑न् । यू॒थे । नि । द॒धा॒ति॒ । रेतः॑ । सः । हि । क्षपा॑ऽवान् । सः । भगः॑ । सः । राजा॑ । म॒हत् । दे॒वाना॑म् । अ॒सु॒र॒ऽत्वम् । एक॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदन्यासु वृषभो रोरवीति सो अन्यस्मिन्यूथे नि दधाति रेतः। स हि क्षपावान्त्स भगः स राजा महद्देवानामसुरत्वमेकम्॥
स्वर रहित पद पाठयत्। अन्यासु। वृषभः। रोरवीति। सः। अन्यस्मिन्। यूथे। नि। दधाति। रेतः। सः। हि। क्षपाऽवान्। सः। भगः। सः। राजा। महत्। देवानाम्। असुरऽत्वम्। एकम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 55; मन्त्र » 17
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
अन्वयः
यद्यो वृषभः सूर्य्योऽन्यासु रात्रिषूषःसु च रोरवीति सोऽन्यस्मिन् यूथे चन्द्रादिषु रेतो निदधाति हि यतस्स क्षपावान्त्स भगस्स राजा देवानां महदेकमसुरत्वं प्राप्यं भवति ॥१७॥
पदार्थः
(यत्) यः (अन्यासु) रात्रिषूषःसु च (वृषभः) बलिष्ठः (रोरवीति) भृशं शब्दयति (सः) (अन्यस्मिन्) (यूथे) समूहे (नि) (दधाति) (रेतः) (वीर्य्यम्) (सः) (हि) यतः (क्षपावान्) क्षपा रात्रिः सम्बन्धिनी यस्य स चन्द्रः (सः) (भगः) ऐश्वर्य्यप्रदः सूर्य्यः (सः) (राजा) प्रकाशमानः (महत्) (देवानाम्) (असुरत्वम्) (एकम्) ॥१७॥
भावार्थः
हे मनुष्या यः सूर्य्यो रात्र्यन्ते दिनादौ सर्वान् प्राणिनो जजागरित्वा संशब्द्य व्यवहार्य्य श्रीः प्रापयति रात्रौ च चन्द्रादिषु किरणान् प्रक्षिप्य प्रकाशयति सोऽयं प्रकाशमानो जगदीश्वरेणोत्पदित इति वेद्यम् ॥१७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यत्) जो (वृषभः) बलयुक्त सूर्य्य (अन्यासु) रात्रि और प्रातःकालों में (रोरवीति) अत्यन्त शब्द करता है (सः) वह (अन्यस्मिन्) अन्य (यूथे) समूह में चन्द्र आदिकों में (रेतः) पराक्रम का (निदधाति) स्थापन करता है। (हि) जिससे कि (सः) वह (क्षपावान्) रात्रिवान् अर्थात् रात्रि जिसकी सम्बन्धिनी होती और (सः) वह (भगः) ऐश्वर्य्यों का दाता सूर्य्य तथा (सः) वह (राजा) प्रकाशमान होता (देवानाम्) विद्वानों में (महत्) बड़ा (एकम्) एक यह (असुरत्वम्) दोषों के दूर करनेवाला प्राप्त होने योग्य गुण होता है ॥१७॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो सूर्य्य रात्रि के अन्त और दिन के आदि में सब प्राणियों को निरन्तर जगाय के शब्द कराय और व्यवहार कराय के लक्ष्मियों को प्राप्त कराता है और रात्रि में चन्द्र आदिकों में किरणों को रख के प्रकाश कराता सो यह प्रकाशमान जगदीश्वर से उत्पन्न किया गया, ऐसा जानना चाहिये ॥१७॥
विषय
वे प्रभु ही भग हैं, राजा हैं
पदार्थ
[१] (यत्) = जो (वृषभः) = शक्तिशाली व सब पर सुखों का वर्षण करनेवाले प्रभु (अन्यासु) = विलक्षण बुद्धिवाली कई प्रजाओं में (रोरवीति) = ज्ञानशब्दों का अत्यन्त ही उच्चारण करते हैं 'तिस्रो वाच उदीरते, हरिरेति कनिक्रदत्' । (सः) = वही प्रभु (अन्यस्मिन् यूथे) = दूसरे मनुष्यों के समूह में (रेतः निदधाति) = शक्ति का स्थापन करते हैं। इस शक्तिस्थापन द्वारा (सः) = वे प्रभु (हि) = ही (क्षपावान्) = शत्रुओं का क्षपण व विनाश करनेवाले होते हैं। ब्राह्मणवृत्ति के पुरुषों में प्रभु ज्ञान का स्थापन करते हैं, तो क्षत्रियवृत्तिवालों में वे ही शक्ति को स्थापित करनेवाले हैं। [२] (सः) = वे प्रभु ही (भगः) = ऐश्वर्य हैं। वैश्यों का ऐश्वर्य प्रभु ही हैं 'अहं धनानि संजयामि शश्वतः'। किसी वैश्य को ऐसा नहीं समझना कि ऐश्वर्य का अर्जन वह करता है वस्तुतः प्रभु ही उसके लिए धनार्जन करनेवाले हैं। (सः) = वे प्रभु ही (राजा) = सारे समाज का व्यवस्थापन करनेवाले व शासक हैं। उनके शासन का कोई उल्लंघन नहीं कर पाता। इस प्रभु के शासन से शासित (देवानाम्) = सूर्यादि देवों का (असुरत्वम्) = प्राणशक्ति संचार का कार्य (एकम्) = अद्वितीय है व (महत्) = महान् है ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही ब्राह्मणों के लिए ज्ञान, क्षत्रियों के लिए बल व वैश्यों के लिए धन देनेवाले हैं। वे प्रभु ही पर्जन्यरूप हैं- सब वस्तुओं का वर्षण वे ही कर रहे हैं।
विषय
मेघ, सूर्य, वृषभ-राजा, आत्मा, परमात्मा का श्लिष्ट वर्णन।
भावार्थ
१७ से २२ तक मन्त्रों का देवता इन्द्र, पर्जन्यात्मा त्वष्टा और अग्नि है इसलिये यह मन्त्र वृषभ, राजा, मेघ, आत्मा, परमात्मा, सूर्य, शिल्पि और अग्नि, विद्युत् आदि पक्षों में संगत होता है। (१) मेघ पक्ष में—(यत्) जो (वृषभः) वर्षणशील मेघ (अन्यासु वृषभः) गौओं के बीच महा वृषभ के समान (अन्यासु) अन्य दिशाओं में (रोरवीति) गर्जता है। और (अन्यस्मिन्) दूसरे ही (यूथे रेतः) जो यूथ में वीर्य निषेक करते हुए वृषभ के समान ही अन्य दिक्-समूह में (रेतः) जल को (निदधाति) बरसाता है। (सः हि) वह निश्चय से (क्षपावान्) जल क्षेपण शक्ति से युक्त रात्रिवत् अन्धकार करने वाला (सः भगः) सबके सेवन और भजन करने और सुख कल्याण करने वाला (सः राजाः) वह विद्युत् से प्रकाशित वा लोक मनोरञ्जन करने वाला है वह भी सूर्य किरणों का एक बड़ा सामर्थ्य ही है। (२) सूर्य के पक्षमें—वह सब दिशाओं में मेघ द्वारा गर्जता अन्यों में जल वर्षाता है या तेज, प्रकाश देता है। वही रात्रि दिन करता, वह ऐश्वर्यवान् सूर्य, तेजस्वी, दीप्तिमान्, वह किरणों के बीच एकमात्र बड़ा तेज प्रकाश का प्रक्षेप्ता है। (३) राजा बलवान् होने से वृषभ है। वह सब प्रजाओं पर हुकम चलाता है या शत्रु पर गर्जता और अपने प्रजासमूह में बल या सुवर्णादि प्रदान करता है। वह शत्रुक्षय-कारिणी ‘क्षपा’, सेना का स्वामी, ऐश्वर्यवान् राजा है। वह सब विजिगीषुओं के बीच बड़ा भारी शत्रु-उच्छेदक बल है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। उषाः। २—१० अग्निः। ११ अहोरात्रौ। १२–१४ रोदसी। १५ रोदसी द्युनिशौ वा॥ १६ दिशः। १७–२२ इन्द्रः पर्जन्यात्मा, त्वष्टा वाग्निश्च देवताः॥ छन्दः- १, २, ६, ७, ९-१२, १९, २२ निचृत्त्रिष्टुप्। ४, ८, १३, १६, २१ त्रिष्टुप्। १४, १५, १८ विराट् त्रिष्टुप्। १७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पंक्तिः। ५, २० स्वराट् पंक्तिः॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! जो सूर्य रात्रीचा अंत झाल्यावर दिवसाच्या सुरुवातीला सर्व प्राण्यांना निरंतर जागे करून शब्दाद्वारे व व्यवहाराद्वारे लक्ष्मी प्राप्त करवितो व रात्री चंद्र इत्यादीच्या किरणांद्वारे प्रकाश करवितो. हा प्रकाश जगदीश्वराने उत्पन्न केलेला आहे, हे जाणले पाहिजे. ॥ १७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The one omnipotent lord, sun and shower of the days and nights, roars with creative passion in all regions and directions of skies and space, and he plants the seed of life in the multitudinous variety of the forms of the other, Prakrti. He alone is the beauty and majesty of the nights as the moon, he is the blazing splendour of the day as the sun and the ruling law and lord of the universe. Great is the glory and life breath of the inexhaustible divinities of nature, one, inviolable, absolute.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of Indra are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
When the mighty and resplendent sun makes sound, he in the nights and dawns, puts his semen ( of Luster ) in another-the moon. He is thus giver of prosperity (by engaging people in business or industrial work etc. during the day time) and the moon shines is the master of the night. All this is ordained by the One Great God Who has directed the whole world and gives light and life.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! the resplendent sun at the end of the night or at commencement of the day awakens all beings, causes them to make sound, and urges them to work to create prosperity; and at night, puts his rays in the moon and illuminates it. It has been made by God. This secret you must know.
Foot Notes
(क्षपावान ) क्षपा रात्रि: सम्बन्धिनी यस्य स चन्द्रः । क्षपा इति रात्रिनाम (NG 1, 7 ) = The moon which is the master of the night. (रोरवीति ) भृशं शब्दयति । = Causes sound.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal