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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 38/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - दध्रिकाः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यं सी॒मनु॑ प्र॒वते॑व॒ द्रव॑न्तं॒ विश्वः॑ पू॒रुर्मद॑ति॒ हर्ष॑माणः। प॒ड्भिर्गृध्य॑न्तं मेध॒युं न शूरं॑ रथ॒तुरं॒ वात॑मिव॒ ध्रज॑न्तम् ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । सी॒म् । अनु॑ । प्र॒वता॑ऽइव । द्रव॑न्तम् । विश्वः॑ । पू॒रुः । मद॑ति । हर्ष॑माणः । प॒ट्ऽभिः । गृध्य॑न्तम् । मे॒ध॒ऽयुम् । न । शूर॑म् । र॒थ॒ऽतुर॑म् । वात॑म्ऽइव । ध्रज॑न्तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं सीमनु प्रवतेव द्रवन्तं विश्वः पूरुर्मदति हर्षमाणः। पड्भिर्गृध्यन्तं मेधयुं न शूरं रथतुरं वातमिव ध्रजन्तम् ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम्। सीम्। अनु। प्रवताऽइव। द्रवन्तम्। विश्वः। पूरुः। मदति। हर्षमाणः। पट्ऽभिः। गृध्यन्तम्। मेधऽयुम्। न। शूरम्। रथऽतुरम्। वातम्ऽइव। ध्रजन्तम् ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 38; मन्त्र » 3
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे राजन् ! यं सीं जलं प्रवतेव द्रवन्तमनु विश्वो हर्षमाणः पूरुर्मदति स मेधयुं शूरं न ध्रजन्तं वातमिव रथतुरं पड्भिर्गृध्यन्तं शत्रुं हन्तुं प्रभवति ॥३॥

    पदार्थः

    (यम्) (सीम्) सर्वतः (अनु) (प्रवतेव) निम्नस्थलेनेव (द्रवन्तम्) (विश्वः) सर्वः (पूरुः) मनुष्यः (मदति) आनन्दति (हर्षमाणः) आनन्दितः सन् (पड्भिः) पादैः (गृध्यन्तम्) अभिकाङ्क्षमाणम् (मेधयुम्) मेधं हिंसां कामयमानम् (न) इव (शूरम्) (रथतुरम्) यो रथेन सद्यो गच्छति तम् (वातमिव) (ध्रजन्तम्) गच्छन्तम् ॥३॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । यस्य राज्ञो राष्ट्रे निम्नं स्थानं जलमिव सर्वतो गुणाधानं चेकीभवति तस्य सन्निधौ योग्याः पुरुषा निवसन्ति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् ! (यम्) जिसको (सीम्) सब ओर से जल (प्रवतेव) नीचे स्थल से जैसे वैसे (द्रवन्तम्) जाते हुए को (अनु) पीछे (विश्वः) सब (हर्षमाणः) हर्षित होता हुआ (पूरुः) मनुष्यमात्र (मदति) आनन्दित होता है वह (मेधयुम्) हिंसा की कामना करते और (शूरम्) वीर पुरुष के (न) सदृश (ध्रजन्तम्) चलते हुए (वातमिव) वायु के सदृश (रथतुरम्) रथ के द्वारा शीघ्र चलनेवाले (पड्भिः) पैरों से (गृध्यन्तम्) अभिकाङ्क्षा करते हुए शत्रु के मारने को समर्थ होता है ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जिस राजा के राज्य में नीचा स्थान जल के सदृश और सब प्रकार से गुणों का पात्र एक होता है, उसके समीप योग्य पुरुष रहते हैं ॥३॥

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    विषय

    'तीव्र गतिवाला' मन

    पदार्थ

    [१] (प्रवता इव द्रवन्तम्) = निम्न मार्ग से जाते हुए पानी की तरह शीघ्र गतिवाले (यं अनु) = जिस मन के अनुसार (विश्व: पूरु:) = सब अपना पालन व पूरण करनेवाले मनुष्य (हर्षमाणः) = प्रसन्नता का अनुभव करते हुए (सीम्) = निश्चय से (मदति) = स्तुति करते हैं। ऐसे मन को द्यावापृथिवी हमारे लिए दें। मन निम्न मार्ग से बहते हुए पानी की तरह तीव्र गतिवाला है। इस मन को वश में करके हम आनन्द का अनुभव करते हैं और प्रभु के स्तवन की वृत्तिवाले बनते हैं। [२] उस मन को ये द्यावापृथिवी हमारे लिए दें जो कि (पड्भिः गृध्यन्तम्) = [पद् गतौ] गतियों से विविध पदार्थों के ग्रहण की कामनावाला है। जो मन 'मेधयुं न शूरं' संग्रामेच्छु शूरवीर के समान है। संग्रामेच्छु शूरवीर संपत्तियों को प्राप्त करता हुआ तृप्त नहीं। यह मन भी तृप्त नहीं होता। (रथतुरम्) = शरीररूप रथ को तीव्रगति से इधर-उधर ले जाता है। (वातं इव ध्रजन्तम्) = वायु के समान शीघ्र गतिवाला है। इस मन को अपने वश में करके हम जीवनयात्रा में सफलतापूर्वक लक्ष्य स्थान पर पहुँचनेवाले हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- मन तीव्र गतिवाला है, शक्तिशाली है। यदि यह हमें प्राप्त हो जाता है, तो हम अवश्य जीवनयात्रा को सफलतापूर्वक पूरा कर पाते हैं।

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    विषय

    अश्ववत् रथधारक राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (पड्भिः द्रवन्तं रथतुरं विश्वः हर्षमाणः मदति) पैरों से दौड़ते हुए रथ में लगे तेज अश्व को देखकर सभी प्रसन्न होकर उसकी प्रशंसा करते हैं उसी प्रकार (प्रवता इव द्रवन्तं) नीचे मार्ग से वेग से बहते जल के समान (सीम् द्रवन्तं पड्भिः) गमन साधनों से सब तरफ द्रुतमति से जाने वाले (गृध्यन्तं) अन्य राष्ट्रों की विजय कामना करते हुए (मेधयुं न शूरं) संग्राम के इच्छुक, उत्साही शूरवीर के सदृश और (ध्रजन्तम्) वेग से जाने वाले (वातम् इव) वायु के समान (रथ-तुरम्) रथ से वेग से जाने वाले महारथी को राजा प्रजाः दोनों धारण करें और उसको देख प्रसन्न हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ १ द्यावापृथिव्यौ। २-१० दधिक्रा देवता ॥ छन्दः- १, ४ विराट् पंक्तिः। ६ भुरिक् पंक्तिः। २, ३ त्रिष्टुप्। ५, ८, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ७ विराट् त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्या राजाच्या राज्यात सगळीकडून जल असलेले खालचे ठिकाण असते. तेथे योग्य पुरुषांचा निवास असतो. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    War horse or the aircraft which, rushing like turbulent waters to the sea, the people of the world admire and celebrate with joy, which, like a brave and tempestuous warrior, advances to the heat of battle by leaps and bounds and grabs the enemy and which, rushing like a wind sheer tears the enemy force apart.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The qualities of an ideal ruler are described.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! that man is able to slay his enemies, whom all men praise rejoicing, run to help him like flow down a precipice, and spring up on their feet like a hero (out of their love. Ed.). Engaged in a battle, drawing a car, and going on as swift as the wind, he desires to achieve victory and annihilate the foe.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The virtuous persons live in the State of that king, who is repository of many virtues like the water flowing down.

    Foot Notes

    (पूरुः ) मनुष्यः । पूरव इति मनुष्यनाम (NG 2, 3)। | Man. (गुध्यन्तम् ) अभिकांक्षमाणम् । = Desirous of victory. (मेधयुम् ) मेधं हिंसां कामयमानम्| = Desiring the destruction of the wicked enemy.

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