ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 38/ मन्त्र 8
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - दध्रिकाः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उ॒त स्मा॑स्य तन्य॒तोरि॑व॒ द्योर्ऋ॑घाय॒तो अ॑भि॒युजो॑ भयन्ते। य॒दा स॒हस्र॑म॒भि षी॒मयो॑धीद्दु॒र्वर्तुः॑ स्मा भवति भी॒म ऋ॒ञ्जन् ॥८॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । स्म॒ । अ॒स्य॒ । त॒न्य॒तोःऽइ॑व । द्योः । ऋ॒घा॒य॒तः । अ॒भि॒ऽयुजः॑ । भ॒य॒न्ते॒ । य॒दा । स॒हस्र॑म् । अ॒भि । सी॒म् । अयो॑धीत् । दुः॒ऽवर्तुः॑ । स्म॒ । भ॒व॒ति॒ । भी॒मः । ऋ॒ञ्जन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत स्मास्य तन्यतोरिव द्योर्ऋघायतो अभियुजो भयन्ते। यदा सहस्रमभि षीमयोधीद्दुर्वर्तुः स्मा भवति भीम ऋञ्जन् ॥८॥
स्वर रहित पद पाठउत। स्म। अस्य। तन्यतोःऽइव। द्योः। ऋघायतः। अभिऽयुजः। भयन्ते। यदा। सहस्रम्। अभि। सीम्। अयोधीत्। दुःऽर्वर्तुः। स्म। भवति। भीमः। ऋञ्जन् ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 38; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यः स्म भीम ऋञ्जन् भवति यो यदा सहस्रं सीमभ्ययोधीदस्य स्य दुर्वर्त्तुर्ऋघायत उताभियुजो द्योस्तन्यतोरिव सर्वे भयन्ते तदैव राजप्रतापः प्रवर्त्तते ॥८॥
पदार्थः
(उत) (स्म) (अस्य) (तन्यतोरिव) विद्युत इव (द्योः) प्रकाशमानायाः (ऋघायतः) हिंसतः (अभियुजः) योऽभियुङ्क्ते तस्य (भयन्ते) बिभ्यति (यदा) (सहस्रम्) असङ्ख्यम् (अभि) सर्वतः (सीम्) (अयोधीत्) योधयति (दुर्वर्त्तुः) यो दुःखेन वर्त्तते तस्य (स्म) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (भवति) (भीमः) बिभेति यस्मात्सः (ऋञ्जन्) विजयं प्रसाध्नुवन् ॥८॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । यो राजा विद्युद्वद् दुष्टान् हत्वा धार्मिकान् सत्करोति स एकोऽप्यसङ्ख्यैः सह योद्धुमर्हति यदाऽयं राजा न्यायेन प्रकटदण्डः स्यात्तदा सर्वे दुष्टा भीत्वा निलीयन्ते ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (स्म) ही (भीमः) भयंकर (ऋञ्जन्) विजय को प्रसिद्ध करता हुआ (भवति) होता है जो (यदा) जब (सहस्रम्) सङ्ख्यारहित (सीम्) सब प्रकार (अभि, अयोधीत्) युद्ध करता है (अस्य, स्म) इसी (दुर्वर्त्तुः) दुःख से वर्त्तमान (ऋघायतः) हिंसा करते हुए (उत) और (अभियुजः) अभियोग करते हुए के समीप से (द्योः) प्रकाशमान (तन्यतोरिव) बिजुली के सदृश सब लोग (भयन्ते) भय करते हैं, तभी राजा का प्रताप प्रवृत्त होता है ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो राजा बिजुली के सदृश दुष्टों का नाश करके धार्मिकों का सत्कार करता है, वह एक भी संख्यारहित वीरों के साथ युद्ध करने योग्य होता है और जब वह राजा न्याय से प्रकट दण्ड देनेवाला होवे, तब सब दुष्ट जन डर के छिप जाते हैं ॥८॥
विषय
'दुर्वतु' दधिक्रा
पदार्थ
[१] जब मन प्रभु की उपासना में प्रवृत्त होता है, तो (उत स्म) = निश्चय से (ऋघायतः) = शत्रुओं का हिंसन करते हुए (अस्य) = [अस्मात्] इस मन से (अभियुज:) = आक्रमण करनेवाले काम क्रोध आदि शत्रु (भयन्ते) = इस प्रकार भयभीत होते हैं, (इव) = जैसे कि (द्योः) = दीप्यमान (तन्यतो:) = शब्द करती हुई अशनि [विद्युत्] से। जैसे गर्जती हुई कड़कती हुई विद्युत् प्राणियों के लिए भयंकर होती है, इसी प्रकार शत्रुओं का हिंसन करता हुआ यह दधिक्रा [मन] काम-क्रोध आदि के लिए भयावह होता है। [२] (यदा) = जब यह मन (सीम्) = निश्चय से (सहस्त्रं अभि अयोधीत्) = हजारों शत्रुओं से युद्ध करता है, तो यह (स्म) = निश्चय से (दुर्वर्तुः भवति) = सब बुराइयों का निवारण करनेवाला होता है और (भीमः) = शत्रुओं के लिए भयंकर होता हुआ (ऋञ्जन्) = उपासकों के जीवन को प्रसाधित करता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की उपासना में चलता हुआ 'मन' काम-क्रोध आदि शत्रुओं पर बिजली की तरह गिरता है। सब बुराइयों का निवारण करके हमारे जीवन को अलंकृत करता है ।
विषय
बिजुली वत् सेनापति ।
भावार्थ
(द्योः तन्यतोः इव) जिस प्रकार चमचमाती घातक विजुली से लोग डरते हैं उसी प्रकार (अस्थ) उस (द्योः) विजयशील, (ऋ-घायतः) शत्रु की हिंसा करने हारे, (अभियुजः) आमक्रणकारी सेनापति से शत्रु लोग (भयन्ते) भय करते हैं ! (यदा) जब वह (सीम्) सब ओर स्थित (सहस्रम्) समस्त हज़ारों शत्रु सैन्यों के मुकाबले पर (अभि अयोधीत्) डट कर सब पर प्रहार करता और सब से एक साथ युद्ध करता है, तब वह (ऋञ्जन्) शत्रुओं को वश करता हुआ (दुर्वर्तुः) कठिनता से वरण करने योग्य और (भीमः) अति भयंकर (भवति स्म) हो जाता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ १ द्यावापृथिव्यौ। २-१० दधिक्रा देवता ॥ छन्दः- १, ४ विराट् पंक्तिः। ६ भुरिक् पंक्तिः। २, ३ त्रिष्टुप्। ५, ८, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ७ विराट् त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो राजा विद्युतप्रमाणे दुष्टांचा नाश करून धार्मिकांचा सत्कार करतो तो असंख्य वीरांबरोबर युद्ध करण्यायोग्य असतो. जेव्हा राजा न्यायपूर्वक प्रत्यक्ष दंड देतो तेव्हा दुष्ट लोक भयाने लपून बसतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
And when the hero in passion takes up arms in battle, those who face him shake in fear as from the thunder of lightning from the skies, and then when he engages thousands of adversaries he grows terrible and irresistible and comes out victorious.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
More attributes of the king are enumerated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! the splendor of the king manifests itself, when he even in grim situation scores victory. He fights against thousands on every front during the attacks and kills the enemies and himself is irresistible. All are afraid of him because of the lightning speed and he being the resplendent.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
When a king kills the wicked persons like thunderbolt or and honors the righteous men, he can fight with thousands even single handed. All wicked persons flee away and disappear when he wields his thunderbolt of justice.
Translator's Notes
Sayanacharya and some other translators of the Vedas have interpreted this and some other mantras of the hymn linking with horse, but Rishi Dayanand Sarasvati's interpretation regarding a hero is more reasonable and straightforward. He explains दधिक्रा: as यः दधिना धारकेण अधिकेन बलेन सह वर्त्तते तम् = endowed with abundant power of upholding.
Foot Notes
(ऋघायतः ) हिंसनः । = Slaying. (अभियुज:) (योऽभियुङ्क्त' तस्य । = Of the person who attacks. (दुर्वन्तु:) यो दुःखेन वर्त्तते तस्य । = Fierce, terrible. (तन्यतोः ) विद्युत इव । = Of the lightning, thunderbolt.
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