ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 38/ मन्त्र 6
उ॒त स्मा॑सु प्रथ॒मः स॑रि॒ष्यन्नि वे॑वेति॒ श्रेणि॑भी॒ रथा॑नाम्। स्रजं॑ कृण्वा॒नो जन्यो॒ न शुभ्वा॑ रे॒णुं रेरि॑हत्कि॒रणं॑ दद॒श्वान् ॥६॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । स्म॒ । आ॒सु । प्र॒थ॒मः । स॒रि॒ष्यन् । नि । वे॒वे॒ति॒ । श्रेणि॑ऽभिः । रथा॑नाम् । स्रज॑म् । कृ॒ण्वा॒नः । जन्यः॑ । न । शुभ्वा॑ । रे॒णुम् । रेरि॑हत् । कि॒रण॑म् । द॒द॒श्वान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत स्मासु प्रथमः सरिष्यन्नि वेवेति श्रेणिभी रथानाम्। स्रजं कृण्वानो जन्यो न शुभ्वा रेणुं रेरिहत्किरणं ददश्वान् ॥६॥
स्वर रहित पद पाठउत। स्म। आसु। प्रथमः। सरिष्यन्। नि। वेवेति। श्रेणिऽभिः। रथानाम्। स्रजम्। कृण्वानः। जन्यः। न। शुभ्वा। रेणुम्। रेरिहत्। किरणम्। ददश्वान् ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 38; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! य आसु रथानां श्रेणिभिः स्रजं कृण्वानः प्रथमः सरिष्यन् नि वेवेत्युत शुभ्वा जन्यो न किरणं ददश्वान् रेणुं रेरिहत् स स्मैव राजा सर्वतो वर्धते ॥६॥
पदार्थः
(उत) अपि (स्म) (आसु) सेनासु (प्रथमः) आदिमः (सरिष्यन्) गमिष्यन् (नि) (वेवेति) गच्छति (श्रेणिभिः) पङ्क्तिभिः (रथानाम्) यानानाम् (स्रजम्) मालामिव सेनाम् (कृण्वानः) कुर्वन् (जन्यः) यो जायते (न) इव (शुभ्वा) सुशोभमानः (रेणुम्) (रेरिहत्) (किरणम्) ज्योतिः (ददश्वान्) दत्तवान् वायुरिव ॥६॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यो न्यायेन प्रजाः पालयन्त्सेनाष्वग्रगामी धनुर्वेदविद्विजयी दक्षो विद्वान् धार्मिकः सुसहायो राजा भवेत् स एव कीर्त्तिमान् भूत्वा महाराजः स्यात् ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (आसु) इन सेनाओं में (रथानाम्) वाहनों की (श्रेणिभिः) पङ्क्तियों से (स्रजम्) माला के सदृश सेना को (कृण्वानः) करता और (प्रथमः) प्रथम (सरिष्यन्) चलनेवाला होता हुआ (नि, वेवेति) जाता है (उत) और (शुभ्वा) उत्तम प्रकार शोभित (जन्यः) उत्पन्न होनेवाले के (न) सदृश और (किरणम्) ज्योति को (ददश्वान्) देनेवाले वायु के सदृश (रेणुम्) धूलि को (रेरिहत्) निरन्तर उड़ाता है (स्म) वही राजा सब ओर से वृद्धि को प्राप्त होता है ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमावाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो न्याय से प्रजाओं का पालन करता हुआ सेनाओं में अग्रगामी, धनुर्वेद का जाननेवाला, विजयी, चतुर, विद्वान्, धार्मिक और उत्तम सहाययुक्त राजा होवे, वही यशस्वी होकर महाराज होवे ॥६॥
विषय
आत्मरूप वर का 'जन्य' मन
पदार्थ
[१] (उत) = और (आसु) = इन प्रजाओं में (स्म) = निश्चय से (प्रथमः) = सर्वमुख्य रूप में (सरिष्यन्) = गति करता हुआ यह मन (रथानां श्रेणिभिः) ='स्थूल, सूक्ष्म व कारण' शरीररूप रथों से (निवेवेति) = अत्यन्त गति करता है। मनोमय कोश सब कोशों में प्रधान है- यह सब कोशों के केन्द्र में है। वेद इस मध्यम कोश को ही ठीक करने पर बल देता है 'वि कोशं मध्यमं युवं'। इसका एक ओर स्थूल शरीर पर प्रबल प्रभाव पड़ता है तो दूसरी ओर यह कारण शरीर से सम्बद्ध होकर सब के साथ एकत्व का अनुभव करता है 'तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः'। [२] यह मन (स्त्रजं कृण्वान:) = अलंकरण को करता हुआ, (जन्यः न) = वर के सेवक की तरह (शुभ्वा) = उसे अलंकृत करनेवाला है। आत्मा 'वर' है, यह मन उसका 'जन्य' है। जैसे जन्य [वर का मित्र या सेवक] वर को सजाता है, इसी प्रकार यह मन आत्मा को सगुणों से अलंकृत कर देता है। रेणुं (रेरिहत्) = यह सब रेणु [धूल] को चाट जाता है- नष्ट कर देता है [to kill] तथा (किरणम्) = प्रकाश व ज्ञान की किरणों को (ददश्वान्) = धारण करता है। आत्मारूप वर को मन इसी रूप में अलंकृत करता है कि उसकी राजसवृत्ति को विनष्ट करता है और ज्ञान के प्रकाशवाली सात्त्विकवृत्ति को जागरित करता है।
भावार्थ
भावार्थ- वशीभूत मन ही आत्मा को सत्त्वगुण से अलंकृत करता है।
विषय
सूर्यवत् अश्ववत् और वरवत् वीर सेनापति का वर्णन ।
भावार्थ
(उत स्म) और (आसु) जो सेनाओं के बीच (रथानां श्रेणिभिः) रथों की पंक्तियों सहित (सरिष्यन् इव) शत्रु पर आक्रमण करने की इच्छा करता हुआ (नि वेवेति) सब प्रकार से तमतमाता है और जिस प्रकार सूर्य (जन्यः) प्रकट होता (जन्यं) सब जनों का हितकर (शुभ्वा) अति शोभायमान रूप से (किरणं ददश्वान्) किरणों को प्रदान करता हुआ (स्रजं कृण्वानः) सर्ग वा व्यापक किरणों को प्रकट करता हुआ, (रेणु) रेणु (रेरिहत्) रेणु २ व्याप लेता है । वा जिस प्रकार (किरणं ददश्वान् शुभ्वा स्रजं कृण्वानः जन्यः रेणुं रेरिहत्) मुंह में लगे लोहखण्ड वा लगाम को चबाता हुआ, श्वेत, सजासजाया, माला पहने घोड़ा धूल उड़ाता या चाटता है उसी प्रकार प्रतापी राजा, (जन्यः) सब जनों में श्रेष्ठ, सर्वहितकारी, सबसे अधिक उत्तम रूप से प्रकट होने वाला, (शुभ्वा) शोभायमान, शुभ गुणकर्मसम्पन्न और (स्रजं कृण्वानः) माला धारण करके (जन्यः न) वधू के अभिलाषी वर के तुल्य सज धज कर (किरणं ददश्वान्) तेज को धारण करता हुआ वा शत्रु को तितर वितर कर देने वाले शस्त्रास्त्र वर्ग को धारण करता हुआ, (रेणुं रेरिहत्) अपने सैन्य द्वारा धूलि को उड़ावे, अथवा रेणु अर्थात् हिंसक दुष्ट और तुच्छ जन को नाश करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ १ द्यावापृथिव्यौ। २-१० दधिक्रा देवता ॥ छन्दः- १, ४ विराट् पंक्तिः। ६ भुरिक् पंक्तिः। २, ३ त्रिष्टुप्। ५, ८, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ७ विराट् त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमावाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो न्यायाने प्रजेचे पालन करतो, सेनेचा प्रमुख, धनुर्वेद जाणणारा, विजयी चतुर, विद्वान, धार्मिक व उत्तम सहायक राजा असतो तोच कीर्तिमान होऊन महाराजा बनतो. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Keen to be the first and prime leader in front of these battle formations of the war chariots, creating a garland pattern, graceful like a bridegroom in procession, he goes like the wind raising a cloud of dust and radiating beams of light like the sun.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties and attributes of a king are highlighted.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! that king alone grows or all-round prospers, who goes forward building a strong army which is like a garland along with chariots of various kinds and shining well on account of his virtues. His army makes the dust of the land going up in a battle like the wind giving impetus to the fire.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
That king alone becomes illustrious and sovereign, who protect the subjects and being the knower of the military science is conqueror, dexterous, righteous and highly learned. He is endowed with good assistants, or helpers.
Foot Notes
That king alone becomes illustrious and sovereign, who protect the subjects and being the knower of the military science is conqueror, dexterous, righteous and highly learned. He is endowed with good assistants, or helpers.
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