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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 38/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - दध्रिकाः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒त स्मै॑नं वस्त्र॒मथिं॒ न ता॒युमनु॑ क्रोशन्ति क्षि॒तयो॒ भरे॑षु। नी॒चाय॑मानं॒ जसु॑रिं॒ न श्ये॒नं श्रव॒श्चाच्छा॑ पशु॒मच्च॑ यू॒थम् ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । स्म॒ । ए॒न॒म् । व॒स्त्र॒ऽमथि॑म् । न । ता॒युम् । अनु॑ । क्रो॒श॒न्ति॒ । क्षि॒तयः॑ । भरे॑षु । नी॒चा । अय॑मानम् । जसु॑रिम् । न । श्ये॒नम् । श्रवः॑ । च॒ । अच्छ॑ । प॒शु॒ऽमत् । च॒ । यू॒थम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत स्मैनं वस्त्रमथिं न तायुमनु क्रोशन्ति क्षितयो भरेषु। नीचायमानं जसुरिं न श्येनं श्रवश्चाच्छा पशुमच्च यूथम् ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत। स्म। एनम्। वस्त्रऽमथिम्। न। तायुम्। अनु। क्रोशन्ति। क्षितयः। भरेषु। नीचा। अयमानम्। जसुरिम्। न। श्येनम्। श्रवः। च। अच्छ। पशुऽमत्। च। यूथम् ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 38; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    क्षितयो भरेषु यमेनं राजानं वस्त्रमथिं तायुं नाऽनु क्रोशन्ति जसुरिं श्येनं न नीचायमानं पशुमच्छ्रवश्चाऽच्छ यूथञ्चाऽनु क्रोशन्त्युत स स्म सद्यो विनश्यति ॥५॥

    पदार्थः

    (उत) (स्म) (एनम्) (वस्त्रमथिम्) यो वस्त्राणि मथ्नाति तम् (न) इव (तायुम्) तस्करम् (अनु) (क्रोशन्ति) रुदन्ति (क्षितयः) मनुष्याः (भरेषु) सङ्ग्रामेषु (नीचा) नीचानि कर्म्माणि (अयमानम्) प्राप्नुवन्तम् (जसुरिम्) प्रयतमानम् (न) इव (श्येनम्) पक्षिविशेषम् (श्रवः) अन्नं श्रवणं वा (च) (अच्छ) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (पशुमत्) पशवो विद्यन्ते यस्मिंस्तत् (च) (यूथम्) समूहम् ॥५॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । यो राजा प्रजापालनेन विना करं हरति यस्य प्रजाभ्यो दुष्टा दुःखं ददति यः स्वयं नीचकर्मा श्येनवद्धिंस्रः पशुवन्मूर्खो यस्य सेना च चोरवद्वर्त्तते तस्य सद्यो विनाशो भवतीति निश्चयः ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    (क्षितयः) मनुष्य (भरेषु) संग्रामों में जिस (एनम्) इस राजा को (वस्त्रमथिम्) वस्त्रों को मथनेवाले (तायुम्) चोर को (न) जैसे वैसे (अनु, क्रोशन्ति) पीछे कोशते रोते हैं (जसुरिम्) प्रयत्न करते हुए (श्येनम्) पक्षिविशेष अर्थात् वाज के (न) सदृश (नीचा) नीच कर्मों को (अयमानम्) प्राप्त होनेवाले को और (पशुमत्) पशुओं से युक्त (श्रवः) अन्न वा श्रवण को (च) भी (अच्छ) उत्तम प्रकार (यूथम्, च) तथा समूह के पीछे कोशते रोते हैं (उत, स्म) वही तो शीघ्र नष्ट होता है ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो राजा प्रजापालन के विना कर लेता है, जिस राजा की प्रजा को दुष्ट जन दुःख देते हैं और जो राजा आप नीच कर्म करनेवाला, वाज पक्षी के सदृश हिंसक, पशु के सदृश मूर्ख और जिस राजा की सेना चोर के सदृश वर्त्तमान है, उसका शीघ्र विनाश होता है, यह निश्चय है ॥५॥

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    विषय

    मन, ज्ञान व इन्द्रिय समूह

    पदार्थ

    [१] (उत) = और (स्म) = निश्चय से (एनम्) = इस मन को (अनु) = लक्ष्य करके (क्षितयः) = मनुष्य (भरेषु) = संग्रामों में (क्रोशन्ति) = पुकारते हैं। इस प्रकार हैं, (न) = जैसे कि (वस्त्रमथिं तायुम्) = वस्त्रों प्रभु के चुरा लेनेवाले चोर को लक्ष्य करके । इस प्रकार पुकारते हैं, (न) = जैसे कि (नीचायमानम्) = [नीचै: अयमानं] नीचे झपटा मारते हुए (जसुरिम्) = विनाशक [जस्- to hurt, injure, kill] श्येनम् वाज को लक्ष्य करके । वस्तुत: मन 'वस्त्रमथि तायु' के समान है- 'नीचायमान जसुरि श्येन' के समान है। यदि यह हमारे वश में न हो, तो विनाशक ही होता है। इसको वश में करने के लिए साधक को पुकारते हैं। प्रभु कृपा से ही यह वशीभूत होता है । [२] (च) = और (श्रवः) = अच्छा ज्ञान का लक्ष्य करके प्रभु को पुकारते हैं। (च) = और (पशुमत् यूथम्) = इन पशुओंवाले झुण्ड को इन्द्रिय समूह को लक्ष्य करके प्रभु को पुकारते हैं। यहाँ एक ओर 'मन' है, दूसरी ओर 'इन्द्रिय समूह' । दोनों के बीच में 'ज्ञान' । प्रभु को इन तीनों चीजों का लक्ष्य करके पुकारते हैं। प्रभुकृपा से मन व इन्द्रियसमूह हमारे वश में हुआ, तो ज्ञान तो प्राप्त होगा ही। मन इधर-उधर भटकता है। वस्तुतः भटकता हुआ यह हमारी सब अध्यात्म-सम्पत्ति को चुरा ले जाता है । इन्द्रियाँ भी विषयों में फँस जाती हैं। ये ज्ञानग्रहण व यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त नहीं रहतीं। प्रभु की उपासना ही हमें इन्द्रियों व मन के साथ चलनेवाले इस संग्राम में विजयी बनाती है। तभी हमें ज्ञान प्राप्त होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु की उपासना हमें मन व इन्द्रियसमूह का अधिष्ठाता बनाए। ऐसा बनकर हम ज्ञानी बनें।

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    विषय

    चोरवत् दुष्ट राजा की निन्दर, उत्तम राजा की प्रशंसा ।

    भावार्थ

    (भरेषु = हरेषु वस्त्रमथिं तायुम् न अनुक्रोशन्ति) चोरियों के होने पर जिस प्रकार वस्त्रादि पदार्थों को बलात् हर ले जाने वाले चोर को लक्ष्य कर के लोग नाना प्रकार से कोसते उसी प्रकार (भरेषु) संग्राम के कार्यों में (क्षितयः) राष्ट्रवासी लोग (वस्त्रमथिं) रहने के मकान आदि वास योग्य पदार्थों के नाश करने वाले चोरवत् (एनं) इस राजा को भी (अनुक्रोशन्ति) बुरा भला कहा करते हैं और (श्येनं न जसुरिं) पक्षियों का नाश करने वाले श्येन पक्षी के तुल्य वेग से (श्रवः) अन्न और (पशुमत् च यूथम्) पशुओं से समृद्ध रेवड़ को (अच्छ) लक्ष्य करके (नीचायमानं) नीचता का आचरण करने वाले (जसुरिं) श्येनवत् प्रजा पर आक्रमण करने वाले हिंसक राजा को भी (अनु क्रोशन्ति) उसके कार्यों के लिये प्रजाजन बुरा भला कहते हैं। स्तुतिपक्ष में—वस्त्रहर चोर के समान (वस्त्रमथिं) ढांपलेने वाले मेघ को किरणों से मथने (एनं अभि) इस विजयी राजा को देखकर संग्रामों में (क्षितयः) राष्ट्र वासी प्रजाजन (अनु क्रोशन्ति) उसके अनुकूल होकर उसकी स्तुति करते हैं । इसी प्रकार (श्येनं) प्रशंसनीय ज्ञान और कर्माचरण वाले (नीचाय मानं) नीचे झुकने वाले, विनयशील और (श्रवः) श्रवणयोग्य ज्ञान और कीर्त्ति तथा (पशुमत् यूथम्) पशुओं से युक्त यूथ, वा विषयों के देखने वाले चक्षु आदि इन्द्रिय गणों को लक्ष्य कर के भी उसकी ही स्तुति करते हैं। इत्येकादशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ १ द्यावापृथिव्यौ। २-१० दधिक्रा देवता ॥ छन्दः- १, ४ विराट् पंक्तिः। ६ भुरिक् पंक्तिः। २, ३ त्रिष्टुप्। ५, ८, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ७ विराट् त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो राजा प्रजापालन न करता कर घेतो, ज्याच्या प्रजेला दुष्ट लोक त्रास देतात व जो स्वतः नीच कर्म करणारा असतो, श्येन पक्ष्याप्रमाणे हिंसक असून पशूप्रमाणे मूर्ख असतो. ज्याची सेना चोराप्रमाणे असते त्याचा तात्काळ विनाश होतो हे निश्चित. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Just as people cry out for help when a thief attacks their cloth and hearth and home, so do people call out to the fighter warrior in battles for the safety of their hearth and home and herds of cattle wealth when they see the terrible enemy descending like a hawk intending to attack.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties and attributes of a king are narrated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    That king is soon ruined whom men curse as a thief stealing the garment or acting meanly like a hawk. The people cry on account of his cruel treatment towards good animals. The people lose all respect of him owing to his mean behavior.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    You should know it for certain that the king is ruined within no time, who takes revenues from the people without fulfilling his duties properly, whose subjects are troubled by the wicked persons. Who himself is mean and violent like a hawk and stupid and whose army is like a thief.

    Foot Notes

    (तायुम् ) तस्करम् । तायुरिति स्तेननाम (NG 3, 24) = Thief. ( जसुरिम्) प्रयत्तमानम् । = Endeavoring, active. (क्षितयः ) मनुष्याः । क्षितय इति मनुष्यनाम (NG 2, 3) = Men. (भरेषु) सङ्ग्रामेषु । भरे इति संग्रामनाम (NG 2, 17 ) = In battles.

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