ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 38/ मन्त्र 7
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - दध्रिकाः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उ॒त स्य वा॒जी सहु॑रिर्ऋ॒तावा॒ शुश्रू॑षमाणस्त॒न्वा॑ सम॒र्ये। तुरं॑ य॒तीषु॑ तु॒रय॑न्नृजि॒प्योऽधि॑ भ्रु॒वोः कि॑रते रे॒णुमृ॒ञ्जन् ॥७॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । स्यः । वा॒जी । सहु॑रिः । ऋ॒तऽवा॑ । शुश्रू॑षमाणः । त॒न्वा॑ । स॒ऽम॒र्ये । तुर॑म् । य॒तीषु॑ । तु॒रय॑न् । ऋ॒जि॒प्यः । अधि॑ । भ्रु॒वोः । कि॒र॒ते॒ । रे॒णुम् । ऋ॒ञ्जन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत स्य वाजी सहुरिर्ऋतावा शुश्रूषमाणस्तन्वा समर्ये। तुरं यतीषु तुरयन्नृजिप्योऽधि भ्रुवोः किरते रेणुमृञ्जन् ॥७॥
स्वर रहित पद पाठउत। स्यः। वाजी। सहुरिः। ऋतऽवा। शुश्रूषमाणः। तन्वा। सऽमर्ये। तुरम्। यतीषु। तुरयन्। ऋजिप्यः। अधि। भ्रुवोः। किरते। रेणुम्। ऋञ्जन् ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 38; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्याः ! स्य वाजी सहुरिर्ऋतावा यतीषु तुरं तुरयन्नुतर्जिप्यस्तन्वा शुश्रूषमाण ऋञ्जन् समर्ये भ्रुवो रेणुमधिकिरते स राजा विजयी सत्कर्त्तव्यः ॥७॥
पदार्थः
(उत) अपि (स्यः) सः (वाजी) विज्ञानवान् (सहुरिः) सहनशीलः (ऋतावा) सत्याचरणः (शुश्रूषमाणः) सेवमानः (तन्वा) शरीरेण (समर्ये) सङ्ग्रामे (तुरम्) शीघ्रकारिणम् (यतीषु) नियतासु सेनासु (तुरयन्) सद्यो गमयन् (ऋजिप्यः) सरलगामिषु साधुः (अधि) (भ्रुवोः) (किरते) विकिरति (रेणुम्) धूलिम् (ऋञ्जन्) प्रसाध्नुवन् ॥७॥
भावार्थः
स एव राज्यं कर्त्तुमर्हेद्यो विद्वान् सर्वैः सह सत्यसेवी उत्तमसेनः सरलस्वभावो भवेत् ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (स्यः) वह (वाजी) विज्ञानयुक्त (सहुरिः) सहनेवाला (ऋतावा) सत्य आचरण से युक्त (यतीषु) नियत सेनाओं में (तुरम्) शीघ्र करनेवाले को (तुरयन्) शीघ्र चलाता हुआ (उत) भी (ऋजिप्यः) सरलगतिवालों में श्रेष्ठ (तन्वा) शरीर से (शुश्रूषमाणः) सेवन करता और (ऋञ्जन्) प्रसिद्ध करता हुआ (समर्ये) सङ्ग्राम में (भ्रुवोः) भौओं की (रेणुम्) धूलि को (अधि, किरते) उड़ाता है, वह राजा विजयी और सत्कार करने योग्य होता है ॥७॥
भावार्थ
वही राज्य करने योग्य होवे जो विद्वान्, सब को सहनेवाला, सत्य का सेवी, उत्तम सेना और सरल स्वभावयुक्त होवे ॥७॥
विषय
सहुरिः ऋतावा
पदार्थ
[१] (उत) = और (स्यः) = वह मन रूप अश्व [दधिक्रा] (वाजी) = बड़ा शक्तिशाली है। (सहुरि:) = सब शत्रुओं का मर्षण करनेवाला है। (ऋतावा) = हमारे जीवनों में ऋत का रक्षण करनेवाला है। (समर्ये) = इस जीवन संग्राम में (तन्वा) = शक्तियों के विस्तार से (शुश्रूषमाणः) = हमारी सेवा करता है । वस्तुतः इस मन के वशीभूत होने पर यह मन हमारी जीवनयात्रा की पूर्ति का साधन बन जाता है। [२] (तुरं यतीषु) = शीघ्र गतिवाली इन प्रजाओं में (तुरयन्) = शीघ्रता से कार्यों को करता हुआ, (ऋजिप्यः) = ऋजुमार्ग से आगे बढ़ता हुआ- हमारा वर्धन करता हुआ (अधि भ्रुवो: भ्रू) = स्थानों में होनेवाली (रेणुम्) = धूल को किरते विक्षिप्त करता है, अर्थात् मस्तक की धूलि को दूर करता है और इस प्रकार मस्तक को ज्ञान के प्रकाश से उज्ज्वल बनाता है। ज्ञान द्वारा (ऋञ्जन्) = यह मन हमारे जीवन को प्रसाधित करता है। इस प्रकार यह मन हमें देदीप्यमान जीवनवाला बनाता है।
भावार्थ
भावार्थ- यह मन हमारे शत्रुओं का पराभव करता है। ज्ञान के आवरणभूत रजोगुण को दूर करके हमारे जीवन को दीप्त करता है ।
विषय
सूर्यवत् अश्ववत् और वरवत् वीर सेनापति का वर्णन ।
भावार्थ
(वाजी सहुरिः समर्ये तन्वा शुश्रूषमाणाः तुरंयतीषु तुरयन् ऋजुम् ऋञ्जन् भ्रुवोः अधिकुरुते) जिस प्रकार वेगवान् अश्व सहनशील होकर संग्राम में अपने शरीर से सेवा करता हुआ वेग से जाने वाली सेनाओं के बीच वेग से जाता हुआ, धूल उड़ाता हुआ, अपने भौंहों के ऊपर भी धूल डाल लेता है उसी प्रकार (स्यः) जो (वाजी) ऐश्वर्यवान्, बलवान् और ज्ञानवान् पुरुष (ऋतावा) अन्न, धन तेज और ज्ञान से सम्पन्न होकर (समर्ये) संग्राम में और उत्तम, समान पुरुषों के सहयोग में, अन्तेवासी या और सुहृदों के बीच (तन्बा) अपने देह से (शुश्रूषमाणः) देश वा गुरु आदि की शुश्रूषा करता हुआ, वेदादि सत् शास्त्रों के श्रवण करने की इच्छा करता हुआ, (तुरं यतीषु) वेग से जाने वाली सेनाओं और प्रयत्नशील प्रजाओं के बीच (तुरं तुरयन्) वेगवान् रथादि साधनों का वेग से चलाता हुआ, (रेणुम् ऋञ्जन्) धूलि के समान तुच्छ शत्रु-दल को वश करता हुआ (भ्रुवोः अधि) भौंहों के सञ्चालन मात्र से, आंख के इशारे भर से, उन पर भौहों के वक्र क्रोधभाव दर्शानेमात्र से (अधि किरते) उनपर खूब शास्त्रास्त्र वर्षा करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ १ द्यावापृथिव्यौ। २-१० दधिक्रा देवता ॥ छन्दः- १, ४ विराट् पंक्तिः। ६ भुरिक् पंक्तिः। २, ३ त्रिष्टुप्। ५, ८, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ७ विराट् त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो विद्वान, सहनशील, सत्याचे सेवन करणारा, उत्तम सेनायुक्त व सरळ स्वभावाचा असतो, तोच राज्य करण्यायोग्य असतो. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
And that hero, mighty and brilliant, dedicated to truth, keen for service in battle in his own person, commanding the strong and smart warriors on fronts, going up and forward by straight paths, tossing up dust in battle, shaking it off from the eyebrows, goes on making things straight and favourable for all.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a king are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! that victorious king should be honored, who is endowed with knowledge, who possesses the powers of endurance (stamina. Ed.) in the battle, and impels a powerful army. He is the best among the men of straightforward nature. He serves the people physically, accomplishes all good acts, and tosses up the dust thrown on his braves in the battles.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
He alone is fit to rule, who is highly learned, possesses the power of endurance, is server of truth, a man of straight- forward or truthful of upright nature and master of good and strong army.
Foot Notes
(यतीषु) नियतासु सेनासु । = Among the lined up armies. (ऋ जन्) प्रसाधनुवन् । ॠ जति प्रसान्धुनकर्मा (NKT 6, 4, 21 ) = Accomplishing. (तुंरयत्) सद्यो गमयन् । = Active, doing the works soon.
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