ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
ऋषिः - वसुश्रुत आत्रेयः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ह॒व्य॒वाळ॒ग्निर॒जरः॑ पि॒ता नो॑ वि॒भुर्वि॒भावा॑ सु॒दृशी॑को अ॒स्मे। सु॒गा॒र्ह॒प॒त्याः समिषो॑ दिदीह्यस्म॒द्र्य१॒॑क्सं मि॑मीहि॒ श्रवां॑सि ॥२॥
स्वर सहित पद पाठह॒व्य॒ऽवाट् । अ॒ग्निः । अ॒जरः॑ । पि॒ता । नः॒ । वि॒ऽभुः । वि॒भाऽवा॑ । सु॒ऽदृशी॑कः । अ॒स्मे इति॑ । सु॒ऽगा॒र्ह॒प॒त्याः । सम् । इषः॑ । दि॒दी॒हि॒ । अ॒स्म॒द्र्य॑क् । सम् । मि॒मी॒हि॒ । श्रवां॑सि ॥
स्वर रहित मन्त्र
हव्यवाळग्निरजरः पिता नो विभुर्विभावा सुदृशीको अस्मे। सुगार्हपत्याः समिषो दिदीह्यस्मद्र्य१क्सं मिमीहि श्रवांसि ॥२॥
स्वर रहित पद पाठहव्यऽवाट्। अग्निः। अजरः। पिता। नः। विऽभुः। विभाऽवा। सुऽदृशीकः। अस्मे इति। सुऽगार्हपत्याः। सम्। इषः। दिदीहि। अस्मद्र्यक्। सम्। मिमीहि। श्रवांसि ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! यथा हव्यवाट् सुदृशीकोऽग्निः पावको यथा विभुरीश्वरवत् सर्वं पाति प्रकाशते तथा विभावाऽजरो नः पिता सन्नस्मे सुगार्हपत्या इषः सन् दिदीहि अस्मद्र्यक् सन् श्रवांसि सं मिमीहि ॥२॥
पदार्थः
(हव्यवाट्) यो हव्यानि द्रव्याणि देशान्तरं प्रापयति (अग्निः) शुद्धस्वरूपः (अजरः) अवृद्धः (पिता) पालकः (नः) अस्माकम् (विभुः) व्यापकः परमेश्वरवत् (विभावा) विविधभानवान् (सुदृशीकः) दर्शयिता वा (अस्मे) अस्मभ्यम् (सुगार्हपत्याः) शोभनो गार्हपत्योऽग्न्यादिपदार्थसमुदायो यासान्ताः (सम्) (इषः) अन्नानि (दिदीहि) देहि (अस्मद्र्यक्) योऽस्मानञ्चति जानाति ज्ञापयति वा (सम्) (मिमीहि) विधेहि (श्रवांसि) अध्ययनाध्यापनादीनि कर्माणि ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे राजन् ! यथा विद्युद्भौमरूपेणाग्निः सर्वानुपकरोति यथा च परमेश्वरोऽसङ्ख्यातपदार्थानामुत्पादनेन पितृवत्सर्वान् पालयति तथैव त्वं भव ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् जैसे (हव्यवाट्) द्रव्यों को एक स्थान से दूसरे स्थान में पहुँचाने वा (सुदृशीकः) उत्तम प्रकार देखने वा दिखानेवाला (अग्निः) शुद्धस्वरूप अग्नि जैसे (विभुः) व्यापक परमेश्वर के सदृश सब का पालन करता और प्रकाशित होता है, वैसे (विभावा) अनेक प्रकार के प्रकाश वा ज्ञान से युक्त (अजरः) वृद्धावस्थारहित (नः) हम लोगों के (पिता) पालन करनेवाले होते हुए (अस्मे) हम लोगों के लिये (सुगार्हपत्याः) सुन्दर अग्नि आदि पदार्थ समुदायवाले (इषः) अन्नों को (सम्, दिदीहि) अच्छे प्रकार दीजिये और (अस्मद्र्यक्) हम लोगों का आदर करने, जानने वा जनानेवाले होते हुए (श्रवांसि) पढ़ने और पढ़ाने आदि कर्म्मों का (सम्, मिमीहि) विधान करिये ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे राजन् ! जैसे बिजुली और भूमि में प्रसिद्ध हुए रूप से अग्नि सब का उपकार करता है और जैसे परमेश्वर असंख्यात पदार्थों के उत्पन्न करने से पितरों के सदृश सब का पालन करता है, वैसे ही आप हूजिये ॥२॥
विषय
हव्यवाड् यज्ञाग्निवत् विद्वान् का वर्णन
भावार्थ
भा०- ( हव्यवाट् ) ग्रहण करने योग्य ऐश्वर्यों को धारण करने वाला (अग्निः) अग्रणी अग्निवत् तेजस्वी पुरुष ( अजरः ) कभी नाश न होने वाला ( नः पिता ) हमारा पालक हो । वह (विभुः ) विशेष सामर्थ्यवान् (विभावा ) दीप्तिमान् ( सुद्दशीकः) उत्तम द्रष्टा, उत्तम अध्यक्ष ( अस्मे ) हमारे कल्याण के लिये हो। वह तू हे राजन् ! ( सुगार्हपत्याः) उत्तम गृहपति के योग्य ( इषः ) अन्नों को ( सं दिदीहि ) प्रदान कर । और ( अस्मद्रयक् ) हमें प्राप्त होने वाले ( श्रवांसि ) अन्नों और ज्ञानों को ( सं मिमीहि ) अच्छी प्रकार सेचन कर, बढ़ा । (२) परमेश्वर अजर, अमर, पालक, व्यापक, तेजःस्वरूप, उत्तम इष्ट है । वह हमें कामनाएं, ज्ञान अन्नादि देता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसुश्रुत आत्रेय ऋषिः ॥ अग्निदेवता ॥ छन्दः - १, १०, ११ भुरिक् पंक्ति: । स्वराट् पंक्तिः । २,९ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ६, ८ निचृतत्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् ॥ एकादशचं सूक्तम् ॥
विषय
'हव्यवाळग्निः अजरः पिता नः'
पदार्थ
[१] (नः) = हमारे (पिता) = वे रक्षक प्रभु (हव्यवाड्) = सब हव्य पदार्थों के प्राप्त करानेवाले हैं, (अग्निः) = अग्रणी हैं, हम आगे ले चलनेवाले हैं। (अजर:) = कभी जीर्ण नहीं होते। (विभुः) = व्यापक, (विभावा) = विशिष्ट दीप्तिवाले, (अस्मे) = हमारे लिये (सुदृशीकः) = उत्तम दृष्टिवाले हैं, सदा हमारा ध्यान करनेवाले, कृपादृष्टिवाले हैं। पिता के अनुरूप बनते हुए हमें भी हव्य पदार्थों का सेवन करनेवाला [हव्यवाड्] प्रगतिशील [अग्नि], शक्तियों को न जीर्ण कर लेनेवाला [अजर], उदार [विभु], विशिष्ट ज्ञानदीप्तिवाला [विभावा] व सदा उत्तम दृष्टिवाला [सुदृशीक] बनना है। [२] हे प्रभो ! आप (सुगार्हपत्मा:) = गार्हपत्य यज्ञ को उत्तम बनानेवाले (इषः) = अन्नों को (अस्मद्र्यक्) = अस्मदभिमुख होकर (संमिमीहि) = सम्यक् दीजिये। आपकी कृपा से सात्विक अन्नों को प्राप्त करके, उन अन्नों के सेवन से सात्विक वृत्तिवाले होते हुए हम गृहस्थ यज्ञ को उत्तमता से चलानेवाले हों। हे प्रभो! आप इन्हीं सात्विक अन्नों से सात्विक बुद्धिवाला हमें बनाकर शवांसि ज्ञानों का हमारे जीवन में निर्माण करिये ?
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमें उत्तम अन्न व ज्ञान प्राप्त करायें, ताकि हमारा 'गृहस्थ यज्ञ' बड़ी उत्तमता से चले।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा ! जशी विद्युत व भूमीतील अग्नी सर्वांवर उपकार करतो व जसे परमेश्वर असंख्य पदार्थ उत्पन्न करून पित्याप्रमाणे सर्वांचे पालन करतो तसे तूही कर. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, our father, sustainer and ruler, ever youthful and unaging, carrier of holy materials and fragrances over and across the world is all pervasive in power and presence, resplendent, all illuminative and all revealing, and blissful in form and appearance. May he provide for us all the healthful food, and energies for a happy household and may he, knowing us well and what is good for us, measure out, determine and grant all the bounds and laws of our wealth and properties, rights and duties, which we must not violate or neglect.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of duties of a king is dealt.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! the fire indeed is the bearer of oblations and resplendent. It protects and illuminates like the Omnipresent God. In the same manner, you being our shining and ever youthful father give us food along with various things like fire (knowledge etc.) and others. Knowing us well and enlightening us, arrange for us study, teaching and other beneficial activities.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king as Agni in the form of electricity and fire does good to all, and as God nourishes or sustains all like father and creates innumerable articles for their use, so you should also be.
Foot Notes
(इषः) अन्नानि । इष मिति अन्ननाम (NG 2, 7) अन्नं वा इषम् । (कौषीतकी ब्रा 28, 5.) इवम् इट च पर्यायों । = Food grains. (अस्मधक् ) योऽस्मानंचति । जानाति ज्ञापयति वा । = He who knows or enlightens us. (श्रवांसि) अध्यनाध्यापनादीनि कर्माणि । = Study, teaching and other beneficial acts.
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