ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 4/ मन्त्र 8
ऋषिः - वसुश्रुत आत्रेयः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒स्माक॑मग्ने अध्व॒रं जु॑षस्व॒ सह॑सः सूनो त्रिषधस्थ ह॒व्यम्। व॒यं दे॒वेषु॑ सु॒कृतः॑ स्याम॒ शर्म॑णा नस्त्रि॒वरू॑थेन पाहि ॥८॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्माक॑म् । अ॒ग्ने॒ । अ॒ध्व॒रम् । जु॒ष॒स्व॒ । सह॑सः । सू॒नो॒ इति॑ । त्रि॒ऽस॒ध॒स्थ॒ । ह॒व्यम् । व॒यम् । दे॒वेषु॑ । सु॒ऽकृतः॑ । स्या॒म॒ । शर्म॑णा । नः॒ । त्रि॒ऽवरू॑थेन । पा॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्माकमग्ने अध्वरं जुषस्व सहसः सूनो त्रिषधस्थ हव्यम्। वयं देवेषु सुकृतः स्याम शर्मणा नस्त्रिवरूथेन पाहि ॥८॥
स्वर रहित पद पाठअस्माकम्। अग्ने। अध्वरम्। जुषस्व। सहसः। सूनो इति। त्रिऽसधस्थ। हव्यम्। वयम्। देवेषु। सुऽकृतः। स्याम। शर्मणा। नः। त्रिऽवरूथेन। पाहि ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 4; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे सहसः सूनो त्रिषधस्थाग्ने ! त्वमस्माकं हव्यमध्वरं जुषस्व त्रिवरूथेन शर्मणा सह नोऽस्मान्त्सततं पाहि यतो वयं देवेषु सुकृतः स्याम ॥८॥
पदार्थः
(अस्माकम्) (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान राजन् (अध्वरम्) पालनाख्यं व्यवहारम् (जुषस्व) (सहसः) बलिष्ठस्य कृतदीर्घब्रह्मचारिणः (सूनो) पुत्र (त्रिषधस्थ) त्रिभिः प्रजाभृत्यात्मीयैर्जनैः सह पक्षपातरहितस्तिष्ठति तत्सम्बुद्धौ (हव्यम्) दातुमर्हं सुखम् (वयम्) (देवेषु) विद्वत्सु (सुकृतः) धर्म्मकर्माचरणाः (स्याम) (शर्मणा) गृहेण (नः) (त्रिवरूथेन) त्रिषु वर्षाहेमन्तग्रीष्मसमयेषु वरूथेन वरेण (पाहि) ॥८॥
भावार्थः
सर्वे जना राजानं प्रतीदं ब्रूयुर्हे राजँस्त्वमस्माकं पालनं यथावत्कुरु त्वद्रक्षिता वयं सततं धर्माचारिणो भूत्वा तवोन्नतिं यथा कुर्याम ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (सहसः, सूनो) बलवान् और अतिकालपर्य्यन्त ब्रह्मचर्य्य को धारण किये हुए जन के पुत्र और (त्रिषधस्थ) तीन अर्थात् प्रजा, भृत्य और अपने कुटुम्ब के जनों के साथ पक्षपात छोड़ के रहनेवाले (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी वर्त्तमान राजन् ! आप (अस्माकम्) हम लोगों के (हव्यम्) देने योग्य सुख और (अध्वरम्) पालनरूप व्यवहार का (जुषस्व) सेवन करो और (त्रिवरूथेन) वर्षा, शीत और ग्रीष्मकाल में श्रेष्ठ (शर्मणा) गृह के साथ (नः) हम लोगों का निरन्तर (पाहि) पालन करो जिससे (वयम्) हम लोग (देवेषु) विद्वानों में (सुकृतः) धर्म्मसम्बन्धी कर्म्म करनेवाले (स्याम) होवें ॥८॥
भावार्थ
सब जन राजा के प्रति यह कहें कि हे राजन् ! आप हम लोगों का पालन यथावत् करिये, आपसे रक्षित हम लोग निरन्तर धर्माचरणयुक्त होकर आपकी उन्नति को जैसे =जिस प्रकार करें ॥८॥
विषय
missing
भावार्थ
भा०-हे (अग्ने) तेजस्विन् ! नायक ! तू ( अस्माकं ) हमारे बीच ( अध्वरं ) हिंसा से रहित पालक पद को ( जुषस्व ) प्रेम से स्वीकार कर । हे (सहसः सूनो ) शत्रु-पराजयकारी सैन्य-बल के सञ्चालक ! हे (त्रि-सधस्थ ) जल, स्थल पर्वत तीनों स्थानों पर स्थित वा प्रजा, भृत्य और स्वजन तीनों के साथ निष्पक्षपात होकर रहने वाले ! तू (अस्माकं-हव्यं जुषस्व ) हमारे ऐश्वर्य को प्राप्त कर । ( वयं देवेषु ) हम विद्वानों के बीच ( सुकृतः स्याम ) उत्तम कर्म करने वाले हों और तू ( त्रिवरूथेन शर्मणा ) तीनों तापों, गर्मी, सर्दी, वर्षा तीनों के निवारक गृह, वा शत्रु नाशक तीनों प्रकार के सैन्य से ( नः पाहि ) हमारी रक्षा कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसुश्रुत आत्रेय ऋषिः ॥ अग्निदेवता ॥ छन्दः - १, १०, ११ भुरिक् पंक्ति: । स्वराट् पंक्तिः । २,९ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ६, ८ निचृतत्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् ॥ एकादशचं सूक्तम् ॥
विषय
'हव्य व अध्वर' का सेवन व सुख प्राप्ति
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) परमात्मन् ! (अस्माकम्) = हमारे (अध्वरम्) = जीवनयज्ञ का (जुषस्व) = आप सेवन करिये । हमारा जीवनयज्ञ आपके लिये प्रिय हो । वस्तुतः आपके द्वारा ही इसने पूर्ण होना है। हे (सहसः) = सूनो-बल के पुञ्ज (त्रिषधस्थ) = तीनों लोकों में एक साथ वर्तमान सर्वव्यापक प्रभो ! हमारे (हव्यम्) = हव्य को [जुषस्व] आप प्रीतिपूर्वक सेवन करिये। यह हव्य आपके लिये प्रीतिकर हो । हम इस त्यागपूर्वक अदन से ही तो आपकी उपासना कर पाते हैं। [२] (वयम्) = हम (देवेषु) = देववृत्ति के पुरुषों में भी (सुवृत:) = उत्तम कर्मों को करनेवाले (स्याम) = हों। देवों में भी देववर व देवतम बनने का प्रयत्न करें। अथवा माता, पिता, आचार्य व अतिथि आदि देवों में सदा शुभ कर्मों को करनेवाले हों, उनके प्रति अपने कर्त्तव्यों को अच्छी प्रकार निभायें। आप (त्रिवरूथेन) = तीनों कष्टों का निवारण करनेवाले शर्मणा सुख से (न:) = हमें पाहि सुरक्षित करिये । हमें 'वाचिक व मानस' कोई भी कष्ट न प्राप्त हो ।
भावार्थ
भावार्थ- हम अध्वर व हव्य के द्वारा प्रभु के प्रिय हों। उत्तम कर्मों को करते हुए त्रिविध कष्टों से सन्तप्त न हों।
मराठी (1)
भावार्थ
सर्व लोकांनी राजाला म्हणावे, हे राजा ! तू आमचे यथायोग्य पालन कर. तुझ्याकडून रक्षित असलेले आम्ही धर्माचरणी बनावे व तुझी उन्नती करावी. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, blazing light and fire, child of omni potence, ruler of three worlds, join and bless our non violent yajna of creation and production for the good of life. Let us be blest, we pray, to be followers of universal Dharma and piety of action, and protect and promote us with peace and comfort in a happy home of threefold bliss for body, mind and soul through three seasons for the human family.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the rulers and subjects are elaborated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king! you act like the purifying fire. O son of a mighty person! you have observed Brahmacharya for a long period. You are impartial to all the three kinds of people, i. e. your subjects, staff and relatives. Serve them with love in our non-violent Yajna in the form of protection and happiness of the subjects. Protect us constantly in our homes, which they deserve suitably built for all the three main seasons i. e. rains, winter and summer. Because of that we may be able to spread righteous deeds among the enlightened persons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
All people should address or present submissions to the ruler in this way - O king ! protect or sustain us properly, so that protected by you we may remain engaged in doing righteous acts and make you also advanced in every manner.
Foot Notes
(त्रिषधस्य ) त्रिभिः प्रजाभृत्यात्मीयैः जनैः सह पक्षपात- रहितस्तिष्ठत्ति तत्संबुद्धौ। = Impartial to all kinds of people i.e. your subjects, staff and relatives. (शर्मणा ) गृहेण । शर्मं इति गृहनाम (NG 3, 4)। = With home. (त्रिवरूथेन) त्रिषु वर्षाहेमन्तग्रीष्मसमयेषु वरुथेन वरेण । = Good or suitable in all seasons like rains, winter and sunnier. (हव्यम्) दातुमर्हं सुखम् । हु-दानादनयोः आदाने च । अत्रदानार्थग्रहणम् । = Happiness worth giving.
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