ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 4/ मन्त्र 3
ऋषिः - वसुश्रुत आत्रेयः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वि॒शां क॒विं वि॒श्पतिं॒ मानु॑षीणां॒ शुचिं॑ पाव॒कं घृ॒तपृ॑ष्ठम॒ग्निम्। नि होता॑रं विश्व॒विदं॑ दधिध्वे॒ स दे॒वेषु॑ वनते॒ वार्या॑णि ॥३॥
स्वर सहित पद पाठवि॒शाम् । क॒विम् । वि॒श्पति॑म् । मानु॑षीणाम् । शुचि॑म् । पा॒व॒कम् । घृ॒तऽपृ॑ष्ठम् । अ॒ग्निम् । नि । होता॑रम् । वि॒श्व॒ऽविद॑म् । द॒धि॒ध्वे॒ । सः । दे॒वेषु॑ । व॒न॒ते॒ । वार्या॑णि ॥
स्वर रहित मन्त्र
विशां कविं विश्पतिं मानुषीणां शुचिं पावकं घृतपृष्ठमग्निम्। नि होतारं विश्वविदं दधिध्वे स देवेषु वनते वार्याणि ॥३॥
स्वर रहित पद पाठविशाम्। कविम्। विश्पतिम्। मानुषीणाम्। शुचिम्। पावकम्। घृतऽपृष्ठम्। अग्निम्। नि। होतारम्। विश्वऽविदम्। दधिध्वे। सः। देवेषु। वनते। वार्याणि ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ प्रजाविषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यूयं घृतपृष्ठं पावकमग्निमिव विश्वविदमिव मानुषीणां विशां विश्पतिं शुचिं होतारं कविं यं राजानं यूयं नि दधिध्वे स देवेषु वार्य्याणि वनते ॥३॥
पदार्थः
(विशाम्) प्रजानाम् (कविम्) मेधाविनम् (विश्पतिम्) प्रजापालकम् (मानुषीणाम्) मनुष्यसम्बन्धिनीनाम् (शुचिम्) पवित्रम् (पावकम्) पवित्रकरं वह्निम् (घृतपृष्ठम्) घृतमुदकमाज्यं पृष्ठ आधारे यस्य तम् (अग्निम्) वह्निम् (नि) (होतारम्) दातारम् (विश्वविदम्) यो विश्वं वेत्ति तम् (दधिध्वे) (सः) (देवेषु) विद्वत्सु दिव्येषु पदार्थेषु वा (वनते) सम्भजति (वार्य्याणि) वरितुं स्वीकर्त्तुमर्हाणि ॥३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यो हि पावकवत्प्रतापी जगदीश्वरवन्न्यायकारी विद्वाञ्छुभलक्षणो राजा भवति स एव सम्राट् भवितुमर्हति ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
अब प्रजाविषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! आप लोग (घृतपृष्ठम्) जल और घृत आधार में जिसके उस (पावकम्) पवित्र करनेवाले (अग्निम्) अग्नि और (विश्वविदम्) संसार को जाननेवाले के सदृश (मानुषीणाम्) मनुष्यसम्बन्धिनी (विशाम्) प्रजाओं के (विश्पतिम्) प्रजापालक (शुचिम्) पवित्र और (होतारम्) देनेवाले (कविम्) मेधावी जिस राजा को आप लोग (नि, दधिध्वे) अच्छे स्वीकार करें (सः) वह (देवेषु) विद्वानों वा श्रेष्ठ पदार्थों में (वार्य्याणि) स्वीकार करने योग्यों का (वनते) सेवन करता है ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो अग्नि के सदृश प्रतापी, जगदीश्वर के सदृश न्यायकारी, विद्वान् और उत्तम लक्षणोंवाला राजा होता है, वही चक्रवर्त्ती राजा होने योग्य है ॥३॥
विषय
परमपावनाग्नि विश्पति
भावार्थ
भा०—हे विद्वान् लोगो ! आप लोप ( कविं ) कान्तदर्शी ( शुचि) शुद्ध, स्वच्छ आचरणवान्, ईमानदार, धार्मिक, तेजस्वी, (पावक) पवित्र करने वाले, ( घृतपृष्ठम् ) तेज और स्नेह से पूर्ण रूप वाले ( अग्नि ) अनि के तुल्य तेजस्वी, ( होतारं ) दानशील, ( विश्वविदम् ) सर्वज्ञानी पुरुष को (विशां ) प्रजाओं का ( विश्पति ) प्रजापति ( दधिध्वे ) बनाओ । (सः) वह ही ( वार्याणि ) नाना उत्तम ऐश्वर्य ( देवेषु ) विद्वानों और विजिगीषुओं और कामनावान् पुरुषों में (वनते) यथोचित रूप से विभाग करता है । ( २ ) परमेश्वर सर्वज्ञ, प्रजापति, शुद्ध, पवित्र, पतितपावन, तेजोमय है, वही सब सूर्यादि में अन्धकार-निवारक तेज देता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसुश्रुत आत्रेय ऋषिः ॥ अग्निदेवता ॥ छन्दः - १, १०, ११ भुरिक् पंक्ति: । स्वराट् पंक्तिः । २,९ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ६, ८ निचृतत्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् ॥ एकादशचं सूक्तम् ॥
विषय
'रक्षक-पावक-होता' प्रभु
पदार्थ
[१] (मानुषीणां विशां विश्पतिम्) = विचारशील प्रजाओं के रक्षक, (कविम्) = उस क्रान्तप्रज्ञ प्रभु को (निदधिध्वे) = निश्चय से अपने हृदयों में धारण करो। वे प्रभु (शुचिम्) = पवित्र हैं, (पावकम्) = हमारे जीवनों को पवित्र करनेवाले हैं। (घृतपृष्ठम्) = दीप्त पृष्ठवाले हैं, अर्थात् दीप्ति के रूप में आभासित होते हैं। उपासक उन्हें एक प्रकाश के रूप में ही देखता है। (अग्निम्) = वे उपासक को उन्नति-पथ पर ले चलनेवाले हैं। (होतारम्) = वे होता हैं, दाता हैं। (विश्वविदम्) = सर्वज्ञ हैं व सर्वललक - सब कुछ प्राप्त करानेवाले हैं। [२] (सः) = वे प्रभु ही (देवेषु) = देवों में (वार्याणि) = वरणीय वस्तुओं को (वनते) = प्राप्त कराते हैं। सब देवों को देवत्व प्राप्त करानेवाले वे प्रभु ही हैं। सूर्यादि को ये ही दीप्ति प्राप्त कराते हैं। बुद्धिमानों को ये ही बुद्धि देते हैं और तेजस्वियों को तेज देनेवाले हैं। वे ही सर्वत्र विजय प्राप्त कराते हैं । कराते
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ही रक्षक, पावक व सर्वप्रदाता हैं। सब वरणीय वस्तुएँ प्रभु ही प्राप्त हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो अग्नीप्रमाणे पराक्रमी, जगदीश्वराप्रमाणे न्यायी, विद्वान व उत्तम लक्षणांनी युक्त असतो तोच चक्रवर्ती राजा होण्यायोग्य असतो. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Install Agni in the seat of power, protection and creative governance, Agni the poetic sage and visionary of the people, chief of human settlements, pure and unsullied, the light and fire of the world, strongly based in ghrta and waters, highpriest of the yajnic human organisation, conversant with every detail of the social order, and he procures and rules the choice gifts which people love and desire.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the subjects are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! pure and purifying others like fire, the king is enkindled with clarified butter (ghee). He who is just like the Omniscient God, is the lord of the human beings, pure, donor and wise, and whom you uphold (support). He in fact distributes desirable objects among the enlightened persons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
That king alone is mighty the `like fire, who is dispenser of justice like God, highly learned and endowed with noble characteristics. He even can become an emperor (or can shine well on account of his virtues).
Translator's Notes
The appellations like कवि and विश्वविदाम् clearly show that here by Agni only material fire is not meant. Prof. Wilson translates कविम् as wise and विश्वविदम् as ‘all knowing'. Griffith translates them as 'sage' and Omniscient respectively. Rishi Dayananda's translation therefore is most rational.
Foot Notes
(वार्य्याणि) वरितुं स्वीकर्तुंमर्हाणि । वुञ-वारणे (स्वा०) हु-दानादनयो: । (जु )। = Desirable. (होतारम् ) दातारम् = Donor. (वनते) संभजति। वन-संभक्तौ (भ्वा०)। = Distributers.
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