ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 46/ मन्त्र 12
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रः प्रगाथो वा
छन्दः - विराड्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
यत्र॒ शूरा॑सस्त॒न्वो॑ वितन्व॒ते प्रि॒या शर्म॑ पितॄ॒णाम्। अध॑ स्मा यच्छ त॒न्वे॒३॒॑ तने॑ च छ॒र्दिर॒चित्तं॑ या॒वय॒ द्वेषः॑ ॥१२॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑ । शूरा॑सः । त॒न्वः॑ । वि॒ऽत॒न्व॒ते । प्रि॒या । शर्म॑ । पि॒तॄ॒णाम् । अध॑ । स्म॒ । य॒च्छ॒ । त॒न्वे॑ । तने॑ । च॒ । छ॒र्धिः । अ॒चित्त॑म् । य॒वय॑ । द्वेषः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्र शूरासस्तन्वो वितन्वते प्रिया शर्म पितॄणाम्। अध स्मा यच्छ तन्वे३ तने च छर्दिरचित्तं यावय द्वेषः ॥१२॥
स्वर रहित पद पाठयत्र। शूरासः। तन्वः। विऽतन्वते। प्रिया। शर्म। पितॄणाम्। अध। स्म। यच्छ। तन्वे। तने। च। छर्धिः। अचित्तम्। यवय। द्वेषः ॥१२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 46; मन्त्र » 12
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! यत्र शूरासः पितॄणां तन्वो वितन्वते प्रिया शर्म वितन्वतेऽध तन्वे तने चाऽचित्तं छर्दिस्त्वं यच्छ तत्र द्वेषः स्म यावय ॥१२॥
पदार्थः
(यत्र) यस्मिन् युद्धे (शूरासः) (तन्वः) शरीराणि (वितन्वते) (प्रिया) प्रियाणि (शर्म) शर्माणि गृहाणि (पितॄणाम्) जनकानां स्वामिनां वा (अध) (स्मा) एव अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (यच्छ) गृहाण (तन्वे) शरीराय (तने) विस्तृते (च) (छर्दिः) गृहम् (अचित्तम्) चेतनरहितम् (यावय) वियोजय। अत्र तुजादीनामित्यभ्यासदैर्घ्यम्। (द्वेषः) शत्रून् ॥१२॥
भावार्थः
हे राजन् ! शूरवीरान् धार्मिकाञ्जनान्त्सत्कारपुरःसरं संरक्ष्य शत्रून्निवार्य्योत्तमेषु गृहेषु स्वामिभ्यः कमनीयान् भोगान् दत्त्वा स्वयशो विस्तृणीहि ॥१२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे ऐश्वर्य्य के बढ़ानेवाले ! (यत्र) जहाँ (शूरासः) युद्ध में चतुर जन (पितॄणाम्) अपने पिता और स्वामियों के (तन्वः) शरीरों को (वितन्वते) बढ़ाते हैं और (प्रिया) प्रिय (शर्म) गृहों को बढ़ाते हैं (अध) इसके अनन्तर (तन्वे) शरीर के लिये (तने) बढ़े हुए व्यवहार में (च) भी (अचित्तम्) चेतनता से रहित (छर्दिः) गृह को आप (यच्छ) ग्रहण करिये वहाँ (द्वेषः) शत्रुओं को (स्म) ही (यावय) पृथक् कराइये ॥१२॥
भावार्थ
हे राजन् ! शूरवीर धार्मिक जनों की सत्कारपूर्वक उत्तम प्रकार रक्षा कर शत्रुओं का निवारण कर उत्तम गृहों में पितरों और स्वामी जनों के लिये सुन्दर भोगों को देकर अपने यश का विस्तार करो ॥१२॥
विषय
युद्ध समय में उसके कर्त्तव्य, प्रजा रक्षण ।
भावार्थ
( यत्र ) जहां (शूरासः ) शूरवीर पुरुष ( पितॄणाम् ) अपने पालक माता पिता और गुरुओं के ( तन्वः ) शरीर के सुख के ( प्रिया शर्म ) प्रिय गृहादि सुखकारक पदार्थों का ( वि तन्वते ) विस्तार करते हैं ऐसे राष्ट्र में हे राजन् ! विद्वन् ! ( अध स्म) आप भी हमारे (तन्वे तने) शरीर और पुत्र आदि विस्तृत कुल के निमित्त (छर्दि: यच्छ ) उत्तम गृह प्रदान कर । और (अचित्तं द्वेषः यवय ) चित्त रहित, निर्दयता युक्त वा अज्ञान से युक्त द्वेष को दूर करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रः प्रगाथं वा देवता । छन्दः - १ निचृदनुष्टुप् । ५,७ स्वराडनुष्टुप् । २ स्वराड् बृहती । ३,४ भुरिग् बृहती । ८, ९ विराड् बृहती । ११ निचृद् बृहती । १३ बृहती । ६ ब्राह्मी गायत्री । १० पंक्ति: । १२,१४ विराट् पंक्ति: ।। चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
पितृलोक की प्राप्ति
पदार्थ
[१] (यत्र) = जहाँ (शूरास:) = शूर वीर लोग (तन्वः) = अपने शरीरों को (वितन्वते) = [ वितन= to give] देश हित के लिये दे डालते हैं तो ये (पितृणाम्) = पितरों के प्रियाशर्म प्रिय गृहों को [= लोकों को] प्राप्त होते हैं । अर्थात् युद्ध में प्राणत्याण उत्कृष्ट लोकों की प्राप्ति का कारण बनता है। [२] (अध) = अब (स्मा) = निश्चय से (तन्वे) = हमारे शरीरों के लिये (तने च) = और सन्तानों के लिये छर्दिः = रक्षक गृह को यच्छ कीजिये । हम शत्रु विजय करके सुरक्षित गृहों में निवास करनेवाले हों। हे प्रभो! आप अचित्तं द्वेष:- मूर्खतापूर्ण द्वेष को यावय- हमारे से पृथक् करिये । हम व्यर्थ में द्वेष के कारण युद्धों में प्रवृत्त न हो जाएँ ।
भावार्थ
भावार्थ- हम मूर्खता से द्वेषवश युद्धों में प्रवृत्त न हो जाएँ । युद्ध आ ही जाये, तो जीवन के त्याग के लिये तैयार हों। यही उत्तम लोकों की प्राप्ति का साधन है।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा ! शूरवीर, धार्मिक लोकांचे सत्कारपूर्वक रक्षण करून शत्रूंचे निवारण करून पितर व स्वामी यांना घरे देऊन उत्तम भोग पदार्थ दे व यश पसरव. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Give us the sweet home where the brave extend the honour and achievement of their forefathers, and then, for further extension of the honour, achievement and tradition of the nation, give us peace and security free from mental worry and keep off all jealousy, malice and hostility.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of king's duties - is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! in the battle, where heroes protect the bodies of their fathers (elderly people) and their masters: and protect their sweet homes. Give for our dwelling good home and keep enemies far away.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king ! keep with you or under your patronage, brave and righteous person respectfully and driving away all enemies, spread your fame far and wide by providing good enjoyable objects in the homes of fathers and masters.
Foot Notes
(शर्म्मं) शर्माणि गृहाणि । शर्मेति गृहनाम (NG 3, 4)। = Homes. (छदिः) गृहम् । छर्दिरिति गृहनाम (NG 3, 4 )। = Home. (यावय) वियोजय । अत्र तुजादीनामित्यभ्यासदेर्ध्यंम्। = Drive away, keep for away.
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