ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 49/ मन्त्र 14
तन्नोऽहि॑र्बु॒ध्न्यो॑ अ॒द्भिर॒र्कैस्तत्पर्व॑त॒स्तत्स॑वि॒ता चनो॑ धात्। तदोष॑धीभिर॒भि रा॑ति॒षाचो॒ भगः॒ पुरं॑धिर्जिन्वतु॒ प्र रा॒ये ॥१४॥
स्वर सहित पद पाठतत् । नः॒ । अहिः॑ । बु॒ध्न्यः॑ । अ॒त्ऽभिः । अ॒र्कैः । तत् । पर्व॑तः । तत् । स॒वि॒ता । चनः॑ । धा॒त् । तत् । ओष॑धीभिः । अ॒भि । रा॒ति॒ऽसाचः॑ । भगः॑ । पुर॑म्ऽधिः । जि॒न्व॒तु॒ । प्र । रा॒ये ॥
स्वर रहित मन्त्र
तन्नोऽहिर्बुध्न्यो अद्भिरर्कैस्तत्पर्वतस्तत्सविता चनो धात्। तदोषधीभिरभि रातिषाचो भगः पुरंधिर्जिन्वतु प्र राये ॥१४॥
स्वर रहित पद पाठतत्। नः। अहिः। बुध्न्यः। अत्ऽभिः। अर्कैः। तत्। पर्वतः। तत्। सविता। चनः। धात्। तत्। ओषधीभिः। अभि। रातिऽसाचः। भगः। पुरम्ऽधिः। जिन्वतु। प्र। राये ॥१४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 49; मन्त्र » 14
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथाऽर्कैरद्भिरोषधीभिश्च सह बुध्न्योऽहिर्नो राये यच्चनस्तद्धात् तत्पर्वतो धात् तत्सविता धात् तद्रातिषाचो दधति तत्पुरन्धिर्भगः प्र जिन्वतु तदभि प्र जिन्वतु ॥१४॥
पदार्थः
(तत्) गृहम् (नः) अस्मभ्यम् (अहिः) मेघः (बुध्न्यः) अन्तरिक्षे भवः (अद्भिः) जलादिभिः (अर्कैः) सत्कारसाधनैः (तत्) (पर्वतः) मेघः (तत्) (सविता) सूर्य्यः (चनः) अन्नादिकम् (धात्) दधाति (तत्) (ओषधीभिः) सोमलतादिभिः (अभि) आभिमुख्ये (रातिषाचः) दानकर्त्तारः (भगः) भगवान् (पुरन्धिः) जगद्धर्त्ता (जिन्वतु) प्रापयतु (प्र) (राये) धनाय ॥१४॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यथा परमेश्वरेण प्राण्युपकारार्थं जगन्निर्मितं तथाऽस्माद्यूयं पुष्कलानुपकारान् गृह्णीत ॥१४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (अर्कैः) सत्कार साधनोंवाले (अद्भिः) जलादिकों के (ओषधीभिः) सोमलतादि ओषधियों के साथ (बुध्न्यः) अन्तरिक्ष में प्रसिद्ध हुआ (अहिः) मेघ (नः) हम लोगों के लिये (राये) धन के लिये (चनः) अन्नादिक को वा (तत्) उस गृह को (धात्) धारण करता वा (तत्) उसको (पर्वतः) पर्वताकार मेघ धारण करता वा (तत्) उसको (सविता) सूर्य धारण करता वा (तत्) उसको (रातिषाचः) दान करनेवाले धारण करते उसको (पुरन्धिः) जगत् को धारणकर्ता (भगः) ऐश्वर्यवान् (प्र, जिन्वतु) अच्छे प्रकार प्राप्त करावे, उसको (अभि) सब ओर से प्राप्त करावे ॥१४॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे परमेश्वर ने प्राणियों के उपकार के लिये जगत् बनाया, वैसे इससे तुम लोग पुष्कल उपकार ग्रहण करो ॥१४॥
विषय
missing
भावार्थ
( बुध्न्यः अहिः ) अन्तरिक्ष में उत्पन्न मेघ और ( पर्वतः ) पालन पूर्ण करने वाला मेघ, वा पर्वत ( सविता ) और सूर्य ( नः ) हमें ( तत् तत् तत् ) नाना प्रकार का ( चनः ) अन्न ( अद्भिः ) जलों और ( अर्कैः ) सूर्य किरणों सहित (धात् ) प्रदान करे । ( तत् ) वह ( राति-साचः ) दानशील पुरुष ( भगः ) ऐश्वर्यवान्, और ( पुरन्धिः ) जगत् को एक पुर के समान धारण करने वाला प्रभु वा ( ओषधीभिः ) ओषधियों द्वारा ( चनः ) अन्न को ( अभि जिन्वतु ) खूब वृद्धि करें और (राये प्रजिन्त्र ) ऐश्वयं वृद्धि के लिये अन्न को खूब बढ़ावें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋजिश्वा ऋषिः ॥ विश्वे देवा देवता ॥ छन्दः - १, ३, ४, १०, ११ त्रिष्टुप् । ५,६,९,१३ निचृत्त्रिष्टुप् । ८, १२ विराट् त्रिष्टुप् । २, १४ स्वराट् पंक्तिः । ७ ब्राह्मयुष्णिक् । १५ अतिजगती । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
अन्न, जल, ओषधि व धन
पदार्थ
[१] (अहिर्बुध्न्यः) = [बुध्नं अन्तरिक्षं, तत्र एति सा०] सम्पूर्ण अन्तरिक्ष में गतिवाला वह प्रभु (अर्कैः) = अर्चन साधन मन्त्रों के साथ (नः) = हमारे लिये (तत्) = उस (चनः) = अन्न को (अद्भिः) = जलों के साथ (धात्) = धारण करे। हमारे लिये मन्त्रों के ज्ञान के साथ अन्न व जल को प्रभु प्राप्त करायें। (पर्वतः) = वह (पूरयिता) = सब कमियों को दूर करनेवाले प्रभु (तत्) = उस अन्न-जल को धारण करें। (सविता) = प्रेरक प्रभु (तत्) = उस अन्न-जल को धारण करें। [२] (रातिषाच:) = दान का सेवन करनेवाले, दानशील, सब देव (ओषधीभिः) = ओषधियों के साथ उस अन्न-जल को प्राप्त करायें तथा (भगः) = ऐश्वर्य के पुञ्ज (पुरन्धिः) = अनन्त प्रज्ञा व कर्मोंवाले प्रभु हमें राये ऐश्वर्य के लिये (अभिप्रजिन्वतु) = प्रेरित करें। इस ऐश्वर्य का विनियोग हम पालक व पूरक कर्मों में ही करें।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमारे लिये ज्ञान के साथ उत्तम अन्न व जल को प्राप्त करायें। ओषधियों के साथ पालक व पूरक कर्मों के साधनभूत ऐश्वर्यों को भी प्राप्त करायें।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जसे परमेश्वराने प्राण्यांवर उपकार करण्यासाठी जग निर्माण केलेले आहे तसा तुम्ही पुष्कळ उपकार करा. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That blessed home of ours, Lord of the deep caverns of the clouds formed in the sky, may sustain us with showers of waters and rays of the sun. That home, the mountain and the lord creator, Savita and sun may sustain and bring gifts of food for us therein. And the same, the lord abundant giver of wealth, power and honour and sustainer of the world, Bhaga, may promote and vitalise with herbs for us to live in plenty and prosperity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do again - is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! as the cloud in the firmament upholds food for our wealth with means of getting respect, with water and with herbs and plants like Soma, may the hills like cloud, sun and all donors uphold it. May God, who is the upholder of the whole world convey us that lead us towards that.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! as God has created this world for the good of all living beings, so you should take many benefits from it.
Foot Notes
(अर्के) सत्कारसाधनैः । अर्क is from अर्थ-पूजायाम hence अर्केः । सरकार साधनैः । = With means of getting respect. (चनः) अन्नादिकम्। = Food and other things. (पुरन्धि:) जगद्धर्ता। = Upholder of the world. (जिन्वतु) प्रापयतु । जिन्वति गति कर्मा (NG 2, 14) गतिस्त्रिवर्षेण्त्न प्राप्त्यर्थं ग्रहणम्) | Convey enable us to attain.
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