ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 49/ मन्त्र 4
प्र वा॒युमच्छा॑ बृह॒ती म॑नी॒षा बृ॒हद्र॑यिं वि॒श्ववा॑रं रथ॒प्राम्। द्यु॒तद्या॑मा नि॒युतः॒ पत्य॑मानः क॒विः क॒विमि॑यक्षसि प्रयज्यो ॥४॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वा॒युम् । अच्छ॑ । बृ॒ह॒ती । म॒नी॒षा । बृ॒हत्ऽर॑यिम् । वि॒श्वऽवा॑रम् । र॒थ॒ऽप्राम् । द्यु॒तद्ऽया॑मा । नि॒ऽयुतः॑ । पत्य॑मानः । क॒विः । क॒विम् । इ॒य॒क्ष॒सि॒ । प्र॒य॒ज्यो॒ इति॑ प्रऽयज्यो ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वायुमच्छा बृहती मनीषा बृहद्रयिं विश्ववारं रथप्राम्। द्युतद्यामा नियुतः पत्यमानः कविः कविमियक्षसि प्रयज्यो ॥४॥
स्वर रहित पद पाठप्र। वायुम्। अच्छ। बृहती। मनीषा। बृहत्ऽरयिम्। विश्वऽवारम्। रथऽप्राम्। द्युतद्ऽयामा। निऽयुतः। पत्यमानः। कविः। कविम्। इयक्षसि। प्रयज्यो इति प्रऽयज्यो ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 49; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे प्रयज्यो ! पत्यमानः कविस्त्वं या द्युतद्यामा बृहती मनीषा तया यदि बृहद्रयिं विश्ववारं रथप्रां कविं वायुमस्य नियुतश्चाच्छा प्रेयक्षसि तर्हि किं किमभीष्टं न प्राप्नोषि ॥४॥
पदार्थः
(प्र) प्रकर्षेण (वायुम्) पवनम् (अच्छा) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (बृहती) महती (मनीषा) प्रज्ञा (बृहद्रयिम्) महान्रयिर्यस्मात्तम् (विश्ववारम्) यो विश्वं सर्वमुत्तमं व्यवहारं वृणोति तम् (रथप्राम्) यो रथानि यानानि पूर्यते तम् (द्युतद्यामा) द्युतन्तो विद्योतमाना पदार्था यया सा (नियुतः) निश्चितगतिमतः (पत्यमानः) ऐश्वर्यमिच्छन् (कविः) विद्वान् (कविम्) विद्वांसमिव क्रान्तप्रज्ञम् (इयक्षसि) सङ्गच्छसे प्राप्नोषि वा। इयक्षतीति गतिकर्म्मा। (निघं०२.१४) (प्रयज्यो) यः प्रकर्षेण यजति तत्सम्बुद्धौ ॥४॥
भावार्थः
ये मनुष्याः शुद्धया बुद्ध्या योगाभ्यासेन च सर्वसुखप्रदं सर्वजगद्धरं वायुं प्राणायामे वशीकुर्वन्ति ते सर्वाणि सुखानि प्राप्नुवन्ति ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (प्रयज्यो) उत्तमता से यज्ञ करनेवाले ! (पत्यमानः) ऐश्वर्य की इच्छा करते हुए (कविः) विद्वान् आप जो (द्युतद्यामा) जिससे विशेषकर पदार्थ प्रकाशित होते हैं ऐसी (बृहती) बड़ी (मनीषा) बुद्धि है उससे जो (बृहद्रयिम्) जिससे बहुत धन सिद्ध होता उस (विश्ववारम्) और जो समस्त उत्तम व्यवहार को स्वीकार करता वा (रथप्राम्) रथ को परिपूर्ण करता वा (कविम्) विद्वान् के समान क्रमपूर्वक बुद्धि प्राप्त होती उस (वायुम्) वायु और इसके (नियुतः) निश्चित गतिवाले वेगरूप घोड़ों को (अच्छा) (प्र, इयक्षसि) मिलते हैं तो कौन-कौन चाहे हुए पदार्थ को नहीं प्राप्त होते हैं ॥४॥
भावार्थ
जो मनुष्य शुद्ध बुद्धि और योगाभ्यास से सर्व सुख देने तथा सर्व जगत् के धारण करनेवाले पवन को प्राणायाम में वश करते हैं, वे सर्वसुख को प्राप्त होते हैं ॥४॥
विषय
विदुषी स्त्री और विद्वान् को उपदेश ।
भावार्थ
( मनीषा वायुम् ) जिस प्रकार बुद्धि या मति, चित्त की वृत्ति ज्ञान या चेतनायुक्त आत्मा को प्राप्त होती है उसी प्रकार ( बृहती मनीषा ) बड़ी, बुद्धिमती, मन की प्रबल इच्छा वाली स्त्री ( बृहद्-रयिं ) बड़े ऐश्वर्यं युक्त, (विश्व-वारं) सब प्रकार से वरण करने योग्य ( रथ-प्राम् ) रथ से आने वाले ( वायुम् ) वायुवत् बलवान् और प्राणवत् प्रिय पुरुष ) को ( अच्छ ) उत्तम रीति से ( प्र इयक्षति ) प्राप्त हो । हे ( प्र-यज्या ) उत्तम सम्बन्ध में बंधने हारे पुरुष ! तू ( कविः ) विद्वान् और (द्युतद्यामा ) चमचमाते रथ वाला, ( नियुतः ) तेरे साथ सब प्रकार से मिलने वाली स्त्री का ( पत्यमानः ) पति होना चाहता हुआ तू (कविम्) विदुषी, बुद्धिमती स्त्री को ( प्र इयक्षसि ) अच्छी प्रकार प्राप्त कर । ( २ ) योगी पक्ष में – ( बृहती मनीषा ) बड़ा भारी ज्ञान, उस ( बृहद्रयिं विश्ववारं रथ-प्राम् ) महान् ऐश्वर्यवान् सर्व वरणीय ब्रह्माण्ड में व्यापक प्रभु को प्राप्त है । हे (प्र-यज्यो) उत्तम ईश्वरोपासक ! तू विद्वान् होकर (द्युतद्यामा ) यम नियमों द्वारा तेजस्वी होकर ( नियुतः पत्यमानः ) इन्द्रियों का स्वामी, जितेन्द्रिय होकर तू (कविम् ) उत्त क्रान्तप्रज्ञ प्रभु की ही ( प्र यक्षसि ) अच्छी प्रकार उपासना किया कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋजिश्वा ऋषिः ॥ विश्वे देवा देवता ॥ छन्दः - १, ३, ४, १०, ११ त्रिष्टुप् । ५,६,९,१३ निचृत्त्रिष्टुप् । ८, १२ विराट् त्रिष्टुप् । २, १४ स्वराट् पंक्तिः । ७ ब्राह्मयुष्णिक् । १५ अतिजगती । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
नियुतः पत्यमानः
पदार्थ
[१] (बृहती) = हमारे वर्धन की कारणभूत (मनीषा) = स्तुति (वायुम्) = उस गति के द्वारा सब बुराइयों का हिंसन करनेवाले प्रभु की (अच्छा) = ओर [प्र गच्छेत्] जाये । उस प्रभु की ओर जो (बृहद्रयिम्) = महान् ऐश्वर्यवाले हैं, (विश्ववारम्) = सब से वरने के योग्य हैं, (रथप्राम्) = हमारे शरीर-रथों का पूरण करनेवाले हैं। [२] हे (प्रयज्यो) = प्रकर्षेण द्रष्टव्य प्रभो! आप (द्युतद्यामा) = दीप्त रथवाले हैं। (नियुतः पत्यमान:) = हमारे इन इन्द्रियाश्वों के ऐश्वर्यवाले हैं, इनके स्वामी आप ही हैं। आप ही हमें इन इन्द्रियाश्वों को प्राप्त कराते हैं । (कवि:) = क्रान्तदर्शी हैं। और (कविम्) = क्रान्तदर्शी ज्ञानी पुरुषों को ही इयक्षसि प्राप्त होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करें। प्रभु हमें उत्कृष्ट धनों को प्राप्त करायेंगे। उत्कृष्ट इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करानेवाले प्रभु ही हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे शुद्ध बुद्धी व योगाभ्यास याद्वारे सुख देणाऱ्या व जगाचे धारण करणाऱ्या वायूला प्राणायामाने वश करतात ती सर्व सुख प्राप्त करतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O venerable scholar of vision and imagination, dedicated to in-depth research with ambition for the honour and glory of success, with your brilliant and far-reaching intelligence and application, you study and plan to harness the abundantly rich and powerful universal energy of the divine wind and its carrier forces of energy, immensely useful to drive the chariot over the paths of light in space. Venerable scholar, honour the visionary seer, his vision and learning.$(Swami Dayananda applies this manta also to the control of breath, pranic energy and mind for flights of the soul in samadhi for the achievement of supra- sensuous experiences of universal nature.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do again-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O well-performer of the Yajnas ! if you, who being desirous of wealth and endowed with bright and great (sharp) intellect, apply air which can lead to abundant wealth (when properly utilized) which drives cars and brightens objects (with the combination of fire) which is useful for many good dealings and its properties like speed (which are like herself) what desirable thing is there that you cannot achieve?
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men, who with pure intellect and by the practice of Yoga control air, which is bestower of all happiness and upholder of the world in Pranayama; attain all delight.
Foot Notes
(इयक्षसि) संगच्छसे प्राप्नोति वा । इयक्षतीति गतिकर्मा (NG 2, 14) Unite or attain. (पत्यमानः) ऐश्वर्यमिच्छन् । = Desiring wealth.
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