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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 49 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 49/ मन्त्र 8
    ऋषिः - ऋजिश्वाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प॒थस्प॑थः॒ परि॑पतिं वच॒स्या कामे॑न कृ॒तो अ॒भ्या॑नळ॒र्कम्। स नो॑ रासच्छु॒रुध॑श्च॒न्द्राग्रा॒ धियं॑धियं सीषधाति॒ प्र पू॒षा ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒थःऽप॑थः । परि॑ऽपतिम् । व॒च॒स्या । कामे॑न । कृ॒तः । अ॒भि । आ॒न॒ट् । अ॒र्कम् । सः । नः॒ । रा॒स॒त् । शु॒रुधः॑ । च॒न्द्रऽअ॑ग्राः । धिय॑म्ऽधियम् । सी॒स॒धा॒ति॒ । प्र । पू॒षा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पथस्पथः परिपतिं वचस्या कामेन कृतो अभ्यानळर्कम्। स नो रासच्छुरुधश्चन्द्राग्रा धियंधियं सीषधाति प्र पूषा ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पथःऽपथः। परिऽपतिम्। वचस्या। कामेन। कृतः। अभि। आनट्। अर्कम्। सः। नः। रासत्। शुरुधः। चन्द्रऽअग्राः। धियम्ऽधियम्। सीसधाति। प्र। पूषा ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 49; मन्त्र » 8
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः कः सेवनीय इत्याह ॥

    अन्वयः

    यः पूषा कामेन नः पथस्पथः परिपतिं वचस्या कृतोऽर्कमभ्यानट्। नः शुरुधश्चन्द्राग्रा रासद्धियंधियं प्र सीषधाति स उपदेष्टा न्यायशोऽस्माकं भवेत् ॥८॥

    पदार्थः

    (पथस्पथः) मार्गान् मार्गान् (परिपतिम्) पतिं वर्जयित्वा वा सर्वतः स्वामिनम् (वचस्या) वचसि साधूनि (कामेन) (कृतः) (अभि) (आनट्) अभिव्याप्नोति (अर्कम्) सत्कर्त्तव्यं क्रियामयं व्यवहारम् (सः) (नः) अस्मभ्यम् (रासत्) दद्यात् (शुरुधः) सद्यो रोधिकाः (चन्द्राग्राः) चन्द्रं सुवर्णमग्रमुत्तमं यासु ताः (धियंधियम्) प्रज्ञां प्रज्ञां कर्म कर्म वा (सीषधाति) साधयति प्रसाधयति (प्र) (पूषा) ॥८॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यो युष्मान् सन्मार्गं दर्शयित्वा दुष्टमार्गान्निवार्य्य सत्याचारं स्वामिनं सेवयित्वा दुष्टपतिं निवर्त्य प्रज्ञां वर्धयति स एव युष्माभिः सत्कर्त्तव्यो भवति ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को किसका सेवन करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो (पूषा) पुष्टि करनेवाला (कामेन) कामना से (पथस्पथः) मार्गों मार्गों को (परिपतिम्) स्वामी को छोड़ के वा सब ओर से स्वामी को और (वचस्या) वचन में उत्तम व्यवहारों को (कृतः) किये हुए (अर्कम्) सत्कार करने योग्य क्रियामय व्यवहार को (अभि, आनट्) सब ओर से व्याप्त होता है तथा (नः) हम लोगों के लिये (शुरुधः) शीघ्र रोकनेवाली (चन्द्राग्राः) जिनके तीर सुवर्ण उत्तम विद्यमान उनको (रासत्) देवे तथा (धियंधियम्) प्रज्ञा प्रज्ञा वा कर्म कर्म को (प्र, सीषधाति) अच्छे प्रकार सिद्ध करता है (सः) वह उपदेशकर्त्ता तथा न्याय करनेवाला हम लोगों का हो ॥८॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो तुमको सन्मार्ग दिखाकर दुष्ट मार्गों का निवारण कर सत्याचरण करनेवाले स्वामी का सेवन करा और दुष्टपति का निवारण कराके बुद्धि को बढ़ाता है, वही तुम लोगों को सत्कार करने योग्य होता है ॥८॥

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    विषय

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    भावार्थ

    ( पूषा ) सबका पोषण करने वाला पोषक, सहायक जन, ( कामेन कृतः ) अपनी कामना से प्रेरित होकर ( वचस्या ) उत्तम वचन युक्त वाणी से ( पथः-पथः ) प्रत्येक मार्ग में ( परिपतिं अर्कम् अभ्यानड् ) पालक स्वामी से प्राप्त होने वाले अन्न वा आदर योग्य पद को प्राप्त करे । ( सः ) वह ( नः ) हमें ( चन्द्राग्राः ) आह्लादजनक वचनों और स्वर्णादि पदार्थों सहित ( शुरुधः = आशु-रुधः, शुग-रुधः ) अति शीघ्र हृदय को पापादि प्रवृत्तियों को रोकने वाली वा शोकादि की नाशक वाणियों का (रासत् ) उपदेश करे, और वह ( धियं-धियं ) प्रत्येक कार्य और प्रत्येक ज्ञान को ( प्र सीसधाति ) अच्छी प्रकार करे ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋजिश्वा ऋषिः ॥ विश्वे देवा देवता ॥ छन्दः - १, ३, ४, १०, ११ त्रिष्टुप् । ५,६,९,१३ निचृत्त्रिष्टुप् । ८, १२ विराट् त्रिष्टुप् । २, १४ स्वराट् पंक्तिः । ७ ब्राह्मयुष्णिक् । १५ अतिजगती । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    शुरुधः चन्द्राग्रा: [गा:]

    पदार्थ

    [१] जीव सामान्यतः प्रभु को भूले रहता है, परन्तु जब कोई कष्ट आता है या समस्या उठ खड़ी होती है, तो प्रभु को याद करता है। बच्चा खेल में मस्त है। भूख लगती है तो माता को याद करता है। इसी प्रकार (कामेन कृतः) = उस उस कामना से वशीकृत हुआ-हुआ स्तोता (पथः पथः परिपतिम्) = सब मार्गों के स्वामी व रक्षक (अर्कम्) = उपासनीय प्रभु को वचस्या स्तुति के द्वारा (अभ्यानट्) = व्याप्त करता है, स्तुति के द्वारा प्रभु को प्राप्त होता है । [२] (सः) = वह (पूषा) = सबका पोषण करनेवाले प्रभु (नः) = हमारे लिये (शुरुधः) = [शुग्धः] शोकों को दूर करनेवाली (चन्द्राग्नाः) = आह्लाद है अग्रभाग में जिनके ऐसी ज्ञान की वाणियों को [गा:] (रासत्) = देते हैं और (धियं धियम्) = प्रत्येक ज्ञान को (प्रसीषधाति) = हमारे लिये सिद्ध करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करें। प्रभु हमें ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करायेंगे और हमारी बुद्धियों को प्रशस्त करेंगे ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जो तुम्हाला सन्मार्ग दाखवून वाईट मार्गाचा नाश करतो व सत्याने वागणाऱ्याचा स्वीकार करावयास लावतो, दुष्टांचे निवारण करून बुद्धी वाढवितो तोच तुमच्याकडून सत्कार घेण्यायोग्य असतो. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Let the supplicant inspired by love and reverence offer homage in holy words to adorable Pusha, giver of health and sustenance and guardian of people in all paths of life, and may that lord grant the supplicant invigorating herbs and brilliant life saving drugs. Pusha matures our mind and intelligence and gives us success in action and achievement.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should be served by men-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The nourisher, who pervades the respectable good dealing of (good acts on each path, leading to the true master with good desire and words, may become our preacher and dispenser of justice. May he give us riches, which remove all miseries quickly and in which gold is prominent. He accomplishes every good intellect and action.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! you should honor that good person, who shows you the right path, takes you away from the wicked path, makes you serve the true master, who is of truthful conduct and keeping you away from the wicked master, increases your intellect.

    Foot Notes

    (अर्कम्) सत्कर्त्तव्यं क्रियामयं व्यवहारम् । (अर्कः) is from अर्च-पूजायाम् (भ्वा०.) अर्कोदेवोभवति । यदेनमर्चेन्ति (NKT 5, 1, 4)। = Respectful dealing of good acts (शुरुधः) सद्यो रोधिकाः शू । इति क्षिप्रनाम(NG 2,15)। = Remover of miseries quickly.

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