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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 11
    ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    श॒ग्धी न॑ इन्द्र॒ यत्त्वा॑ र॒यिं यामि॑ सु॒वीर्य॑म् । श॒ग्धि वाजा॑य प्रथ॒मं सिषा॑सते श॒ग्धि स्तोमा॑य पूर्व्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒ग्धि । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । यत् । त्वा॒ । र॒यिम् । यामि॑ । सु॒ऽवीर्य॑म् । श॒ग्धि । वाजा॑य । प्र॒थ॒मम् । सिसा॑सते । श॒ग्धि । स्तोमा॑य । पू॒र्व्य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शग्धी न इन्द्र यत्त्वा रयिं यामि सुवीर्यम् । शग्धि वाजाय प्रथमं सिषासते शग्धि स्तोमाय पूर्व्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शग्धि । नः । इन्द्र । यत् । त्वा । रयिम् । यामि । सुऽवीर्यम् । शग्धि । वाजाय । प्रथमम् । सिसासते । शग्धि । स्तोमाय । पूर्व्य ॥ ८.३.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 11
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ कर्मयोगिसकाशात् धनं प्रार्थ्यते।

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! (यत्, रयिं) यादृशं धनं (सुवीर्यं, त्वा) सुष्ठु वीर्यवन्तं त्वां (यामि) याचामि (नः, शग्धि) तत्प्रयच्छ अस्मभ्यम् (सिषासते) संभक्तुमिच्छते (वाजाय) अन्नं (प्रथमं) सर्वेभ्यः पूर्वं (शग्धि) प्रयच्छ (पूर्व्य) हे अग्रणीः ! (स्तोमाय) स्वस्तोत्रे (शग्धि) प्रयच्छ ॥११॥

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    विषयः

    किं प्रार्थनीयमिति शिक्षते ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! इन्धे दीपयति जगदिदमितीन्द्रः हे भगवन् ! त्वम् । नोऽस्मान् । शग्धि=शक्तान् कुरु । तदास्माकं साहाय्यं कुरु । यद्=यदा । अहम् । सुवीर्य्यम्=शोभनवीर्य्योपेतं पुत्रादिसहितम् । रयिम्=धनम् । त्वा=त्वाम् । यामि=याचामि याचे । अत्र वर्णलोपश्छान्दसः । पुनः । यदा । वाजाय=विज्ञानाय । त्वां याचे । तदा । शग्धि=प्रथमं साहाय्यं कुरु । तथा । सिषासते=सनितुं संभक्तुं दीनेभ्यो धनानि संविभाजयितुमिच्छते । स्तोमाय=स्तोत्राय । शग्धि । हे पूर्व्य=हे पूर्ण ! हे पुरातन ईश ! इमान् मनोरथान् पूरय ॥११ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब कर्मयोगी से धन की याचना करना कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! (यत्, रयिं) जिस धन की (सुवीर्यं, त्वा) सुन्दर वीर्यवाले आपसे (यामि) याचना करता हूँ (नः, शग्धि) वह हमको दीजिये (सिषासते) जो आपके अनुकूल चलना चाहता है, उसको (वाजाय) अन्न (प्रथमं) सबसे पहले (शग्धि) दीजिये (पूर्व्य) हे अग्रणी ! (स्तोमाय) स्तुतिकर्त्ता को (शग्धि) दीजिये ॥११॥

    भावार्थ

    इन्द्र=हे सब धनों के स्वामी कर्मयोगिन् ! हम लोग आपकी आज्ञापालन करते हुए आपसे याचना करते हैं कि आप हमें सब प्रकार का धन-धान्य देकर संतुष्ट करें, क्योंकि जो आपका अनुकूलगामी है, उसको सबसे प्रथम अन्नादि धन दीजिये अर्थात् कर्मयोगी का यह कर्तव्य है कि वह वैदिकमार्ग में चलने तथा चलानेवाली प्रजाओं को धनादि सकल आवश्यक पदार्थ देकर सर्वदा प्रसन्न रखे, जिससे उसके किसी राष्ट्रिय अङ्ग में न्यूनता न आवे ॥११॥

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    विषय

    क्या प्रार्थना करनी चाहिये, यह शिक्षा देते हैं ।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! हे सर्वप्रकाशक देव ! तू (नः) हम लोगों का (शग्धि) साहाय्य उस समय करो (यद्) जब (सुवीर्य्यम्) शोभनवीर्य्ययुक्त पुत्रादिक (रयिम्) धन (त्वाम्) तुझसे (यामि) माँगूँ पुनः (नः) हमको (प्रथमम्) प्रथम (शग्धि) सहायता दे, जब (वाजाय) विज्ञान के लिये तुझसे याचना करूँ पुनः (शग्धि) हमको साहाय्य प्रदान कर जब (सिषासते) परमोत्कृष्ट (स्तोमाय) स्तोत्र के लिये तुझसे याचना करूँ । (पूर्व्य) हे पूर्ण ! हे पुरातन ईश ! इन मनोरथों को तू पूर्ण कर ॥११ ॥

    भावार्थ

    ईश्वर के निकट तीन पदार्थ याचनीय हैं । इस लोक के लिये महाबलिष्ठ पुत्रादिक धन, परलोक के लिये सुविज्ञान और दोनों के लिये स्तुतिशक्ति, सत्काव्यशक्ति । प्रातः-सायं मन से उसके निकट पहुँचकर उसकी प्रार्थना करें और सम्पूर्ण दिन उसके साधन इकट्ठे करें, तब ही मनोरथ की सिद्धि हो सकती है ॥११ ॥

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    विषय

    प्रभु से प्रार्थना और उस की स्तुति । पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यप्रद ! ( यत् रयिम् ) जिस ऐश्वर्य को और । ( सु-वीर्यम् ) उत्तम बल को मैं तुझ से ( यामि ) याचना करता हूं । तू वह ( नः शग्धि ) हमें प्रदान करके समर्थ कर । ( प्रथमम् ) सब से प्रथम, सर्वोत्तम पुरुष को ( वाजाय ) ऐश्वर्य प्राप्त करने के लिये ( शग्धि ) समर्थ कर। हे ( पूर्व्य ) पूर्व के जनों में सर्वोत्तम ! हे पूर्ण ! तू ( सिषासते ) भजन सेवन करने की इच्छा वाले ( स्तोमाय ) स्तुतिकर्ता जन के भले के लिये ( शग्धि ) सब को समर्थ कर या सब कुछ करने में समर्थ है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेध्यातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—२० इन्द्रः। २१—२४ पाकस्थाम्नः कौरयाणस्य दानस्तुतिः॥ छन्दः—१ कुकुम्मती बृहती। ३, ५, ७, ९, १९ निचृद् बृहती। ८ स्वराड् बृहती। १५, २४ बृहती। १७ पथ्या बृहती। २, १०, १४ सतः पंक्तिः। ४, १२, १६, १८ निचृत् पंक्तिः। ६ भुरिक् पंक्तिः। २० विराट् पंक्तिः। १३ अनुष्टुप्। ११, २१ भुरिगनुष्टुप्। २२ विराड् गायत्री। २३ निचृत् गायत्री॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    शक्ति के द्वारा पालन व पूरण

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यत्) = जिस (रयिम्) = ऐश्वर्य को व (सुवीर्यम्) = उत्तम शक्ति को (त्वा यामि) = आप से याचना करता हूँ, उसे (नः) = हमारे लिये (शग्धि) = दीजिये [देहि द०] । [२] हे प्रभो ! आप (प्रथमम्) = सर्वप्रथम (वाजाय सिषासते) = शक्ति के लिये सम्भजन की कामनावाले पुरुष के लिये (शग्धि) = शक्ति को दीजिये । [३] हे (पूर्व्य) = पालन व पूरण करनेवालों में उत्तम प्रभो ! आप (स्तोमाय) = स्तुति करनेवाले के लिये (शग्धि) = शक्ति को देनेवाले होइये। इस शक्ति ने ही तो हमारा पालन व पूरण करना है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु से हम शक्ति की याचना करते हैं। हम स्तोता बनें, सर्वप्रथम प्रभु का सम्भजन करें। प्रभु हमें शक्ति देंगे और हम अपना पालन व पूरण कर पायेंगे।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, first and leading power of the world, give us the vigour, wealth and power we ask for. Give us the strength of the first order for the advancement and victory of the dedicated and law abiding, and bless him who celebrates your glory in song.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    (इन्द्र) हे सर्व धनाचा स्वामी कर्मयोगी! आम्ही तुमच्या आज्ञेचे पालन करत तुमची याचना करतो, की तुम्ही आम्हाला सर्व प्रकारे धनधान्य देऊन संतुष्ट करावे. कारण जो तुमच्या अनुकूल वागणारा आहे त्याला सर्वात प्रथम अन्न इत्यादी धन द्या अर्थात कर्मयोग्याचे हे कर्तव्य आहे, की वैदिक मार्गाने चालणाऱ्या व चालविणाऱ्या प्रजेला धन इत्यादी संपूर्ण आवश्यक पदार्थ देऊन सदैव प्रसन्न ठेवावे. ज्यामुळे राष्ट्रीय गोष्टीत कमतरता राहता कामा नये. ॥११॥

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