ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 18
ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
इ॒मे हि ते॑ का॒रवो॑ वाव॒शुर्धि॒या विप्रा॑सो मे॒धसा॑तये । स त्वं नो॑ मघवन्निन्द्र गिर्वणो वे॒नो न शृ॑णुधी॒ हव॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मे । हि । ते॒ । का॒रवः॑ । वा॒व॒शुः । धि॒या । विप्रा॑सः । मे॒धऽसा॑तये । सः । त्वम् । नः॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒णः॒ । वे॒नः । न । शृ॒णु॒धि॒ । हव॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमे हि ते कारवो वावशुर्धिया विप्रासो मेधसातये । स त्वं नो मघवन्निन्द्र गिर्वणो वेनो न शृणुधी हवम् ॥
स्वर रहित पद पाठइमे । हि । ते । कारवः । वावशुः । धिया । विप्रासः । मेधऽसातये । सः । त्वम् । नः । मघऽवन् । इन्द्र । गिर्वणः । वेनः । न । शृणुधि । हवम् ॥ ८.३.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 18
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (इमे, हि, ते, कारवः) इमे हि पुरःस्थास्तव कर्मणां कर्तारः (विप्रासः) स्वकर्मणि कुशलाः (मेधसातये) यज्ञसेवनार्थं (धिया) स्वस्तुतिवाचा (वावशुः) त्वां प्रकामयन्ते (मघवन्) हे धनवन् ! (गिर्वणः, सः, त्वं) प्रशंसनीयः स त्वं (वेनः, न) जाताभिलाष इव (नः, हवं) अस्मत्प्रार्थनां (शृणुधि) शृणुयाः ॥१८॥
विषयः
मेधायै प्रार्थ्यते ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! इमे=संसारस्थाः । हि=खलु । कारवः=यज्ञादिशुभकर्मणां कर्तारः । विप्रासः=मेधाविनो जनाश्च । धिया=स्तुत्या कर्मणाऽन्तःकरणेन वा । ते=त्वामुद्दिश्य । वावशुः=पुनः पुनरुशन्तीच्छन्ति स्तुवन्ति । वश कान्तौ । कस्मै प्रयोजनाय । मेधसातये=मेधानां यज्ञानां सातये संभजनाय । हे मघवन् ! हे गिर्वणः=गीर्भिर्वचनैः । वननीय=स्तुत्य । देव ! स त्वं । वेनो न=वेन इव । वेनतिः कान्तिकर्मा । यथा कान्तः तद्वदिव । नोऽस्माकम् । हवम्=आह्वानम् । शृणुधि=शृणु ॥१८ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (इमे, हि, ते, कारवः) यह पुरःस्थ आपके शिल्पी लोग (विप्रासः) जो स्व-स्व कार्य्य में कुशल हैं, वे (मेधसातये) यज्ञभागी होने के लिये (धिया) अपनी स्तुति वाग्द्वारा (वावशुः) आपकी अत्यन्त कामना करते हैं (मघवन्) हे धनवन् ! (गिर्वणः, सः, त्वं) प्रशंसनीय वह आप (वेनः, न) जाताभिलाष पुरुष के सदृश (नः, हवं) हमारी प्रार्थना को (शृणुधि) सुनें ॥१८॥
भावार्थ
याज्ञिक पुरुषों की ओर से कथन है कि हे ऐश्वर्य्यशाली कर्मयोगिन् ! शिल्पी लोग, जो विविध प्रकार के अस्त्र-शस्त्रादि बनाने तथा अन्य कामों के निर्माण करने में कुशल हैं, वे यज्ञ में भाग लेने के लिये आपकी कामना करते हैं अर्थात् अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण द्वारा युद्धविशारद होना भी यज्ञ है, सो इन साहाय्याभिलाषी पुरुषों को यज्ञ में भाग दें, ताकि युद्धसामग्री के निर्माणपूर्वक यह यज्ञ सर्वाङ्गपूर्ण हो ॥१८॥
विषय
मेधाप्राप्ति के लिये प्रार्थना करते हैं ।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! (इमे) ये संसार में दृश्यमान (कारवः) कर्मरत और (विप्रासः) मेधावीगण (मेधसातये) शुभकर्मों की पूर्ति के लिये (धिया) अन्तःकरण से (ते) तेरी ही (वावशुः) स्तुति करते हैं (मघवन्) हे धनसम्पन्न ! (गिर्वणः) हे वाणियों से स्तवनीय ईश ! (सः+त्वम्) वह तू (वेनः+न) कामी पुरुष के समान अथवा ज्ञानी के समान (नः) हमारे (हवम्) आह्वान को (शृणुधि) सुन ॥१८ ॥
भावार्थ
शुभ कर्मों की पूर्ति के लिये ज्ञानी अज्ञानी सब ही जन अन्तःकरण से तेरी ही स्तुति करते हैं । वह तू प्रिय के समान हमारे वचनों को सुन और हमारे मनोरथों को पूर्ण कर ॥१८ ॥
विषय
प्रभु से प्रार्थना और उस की स्तुति । पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( मघवन् ) ऐश्वर्यवन् ! हे ( इन्द्र ) शत्रुहन्तः ! हे दीप्तिमन् ! प्रकाशस्वरूप ! सब जगत् को देखने हारे ! हे ( गिर्वणः ) वाणियों से स्तुति करने और वाणियों को धारने हारे ! ( इमे हि ते कारवः ) ये सब तेरे स्तुतिकर्त्ता ( विप्रासः ) बुद्धिमान् जन ( मेध-सातये ) सत्संग, यज्ञ, दान को प्राप्त करने के लिये, ( वावशुः ) तुझ ईश्वर को सदा चाहते हैं। (सः त्वं) वह तू ( वेनः न ) अभिलाषी के समान ही ( नः हवम् शृणुधि ) हमारी पुकार सुन।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेध्यातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—२० इन्द्रः। २१—२४ पाकस्थाम्नः कौरयाणस्य दानस्तुतिः॥ छन्दः—१ कुकुम्मती बृहती। ३, ५, ७, ९, १९ निचृद् बृहती। ८ स्वराड् बृहती। १५, २४ बृहती। १७ पथ्या बृहती। २, १०, १४ सतः पंक्तिः। ४, १२, १६, १८ निचृत् पंक्तिः। ६ भुरिक् पंक्तिः। २० विराट् पंक्तिः। १३ अनुष्टुप्। ११, २१ भुरिगनुष्टुप्। २२ विराड् गायत्री। २३ निचृत् गायत्री॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
ते कारवः
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (इमे ते कारवः) = ये आपके स्तोता लोग (विप्रासः) = अपना विशेषरूप से पूरण करते हुए (धिया) = बुद्धिपूर्वक (मेधसातये) = यज्ञों की प्राप्ति के लिये (हि) = निश्चय से (वावशुः) = कामना करते हैं। प्रभु का स्तोता [क] अपने जीवन में न्यूनताओं को दूर करने के लिये यत्नशील होता है। [ख] यज्ञमय जीवन बिताता है। [ग] सब कर्मों को बुद्धिपूर्वक कुशलता से करता है। [२] हे (मघवन्) = यज्ञशील (गिर्वणः) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा उपासनीय प्रभो ! (सः त्वम्) = वे आप (नः) = हमारे लिये (वेनः न) = हमारे प्रति प्रेमवाले होते हुए (हवं शृणुधि) = हमारी पुकार को सुनिये। हम आपके प्रिय बनें, हमारी प्रार्थना सदा सुनी जाये।
भावार्थ
भावार्थ- सच्चा स्तोता अपने जीवन की न्यूनताओं को दूर करता हुआ बुद्धिपूर्वक यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त रहता है। प्रभु का यह प्रिय बनता है, इसकी प्रार्थना सदा सुनी जाती है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord of power and glory, these scientists, designers and workers, vibrant and intelligent all, love and honour you and shine with their intellect and expertise. O lord adorable of all, listen to our prayer like a lover and admirer of your own celebrants and receive their homage on the success of their yajnic endeavour.
मराठी (1)
भावार्थ
याज्ञिक म्हणतात की, हे ऐश्वर्यशाली कर्मयोगी! कारागीर लोक विविध प्रकारची अस्त्रे शस्त्रे इत्यादी व इतर कार्यासाठी तुमची कामना करतात. अर्थात् अस्त्र शस्त्रे निर्माण करून युद्धविशारद असणेही यज्ञ आहे. त्यासाठी याला साह्य करणाऱ्या अभिलाषी पुरुषांनी या यज्ञात युद्धसामग्रीची निर्मिती करून हा यज्ञ सर्वांगपूर्ण करावा. ॥१८॥
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