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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 20
    ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    निर॒ग्नयो॑ रुरुचु॒र्निरु॒ सूर्यो॒ निः सोम॑ इन्द्रि॒यो रस॑: । निर॒न्तरि॑क्षादधमो म॒हामहिं॑ कृ॒षे तदि॑न्द्र॒ पौंस्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    निः । अ॒ग्नयः॑ । रु॒रु॒चुः॒ । निः । ऊँ॒ इति॑ । सूर्यः॑ । निः । सोमः॑ । इ॒न्द्रि॒यः । रसः॑ । निः । अ॒न्तरि॑क्षात् । अ॒ध॒मः॒ । म॒हाम् । अहि॑म् । कृ॒षे । तत् । इ॒न्द्र॒ । पौंस्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    निरग्नयो रुरुचुर्निरु सूर्यो निः सोम इन्द्रियो रस: । निरन्तरिक्षादधमो महामहिं कृषे तदिन्द्र पौंस्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    निः । अग्नयः । रुरुचुः । निः । ऊँ इति । सूर्यः । निः । सोमः । इन्द्रियः । रसः । निः । अन्तरिक्षात् । अधमः । महाम् । अहिम् । कृषे । तत् । इन्द्र । पौंस्यम् ॥ ८.३.२०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 20
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ कर्मयोगिपौरुषफलं कथ्यते।

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (अन्तरिक्षात्) यदा हृदयाकाशात् (महां, अहिं) महद्व्यापकमन्धकारं (निरधमः) निर्गमितवान् (तत्, पौंस्यं, कृषे) तत्पौरुषं कृतवान् तदा (अग्नयः) भौतिकाग्नयः (निरुरुचुः) निःशेषेण मह्यं अरोचिषत (उ) अथ (सूर्यः) सूर्योऽपि (निः) न्यरोचिष्ट (इन्द्रियः, रसः, सोमः) त्वदीयभागः सोमरसोऽपि (निः) न्यरोचिष्ट ॥२०॥

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    विषयः

    तस्यैव महिमा प्रगीयते ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! यदा । त्वम् । अन्तरिक्षात्=प्रदेशादपि । महाम्=महान्तम् । अहिम्=व्यापकमन्धकारं महाविघ्नञ्च । निः+अधमः=नितरां निष्काशयसि=दूरं गमयसि । तत्=तदा । पौंस्यम्=पुंसां महद् हितम् । कृषे=साधयसि । अहिनिरसने सति । अग्नयः । निः=नितराम् । रुरुचुः=प्रकाशन्ते । तथा । सूर्यः । नीरोचते उ । तथा । इन्द्रियः=इन्द्रस्य हितकरः । सोमो रसः । निः=निरतिशयेन रोचते ॥२० ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब कर्मयोगी के पुरुषार्थ का फल कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (अन्तरिक्षात्) जब आपने हृदयाकाश से (महां, अहिं) बड़े भारी व्यापक अज्ञानान्धकार को (निरधमः) निकाल दिया (तत्, पौंस्यं, कृषे) वह महापुरुषार्थ किया, तब (अग्नयः) अग्नि (निरुरुचुः) निरन्तर रुचिकारक लगने लगीं (उ) तथा (सूर्यः) सूर्य्य (निः) निरन्तर रुचिवर्धक हो गये (इन्द्रियः, रसः, सोमः) आपका देयभाग सोमरस भी (निः) निःशेषेण रोचक हो गया ॥२०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र का भाव यह है कि जिस पुरुष के अज्ञान की निवृत्ति हो जाती है, वह महापुरुषार्थी कहलाता है और वही पुरुष सूर्य्यादि के प्रकाश, अग्न्याधान तथा सोमादि रसों से उपयोग ले सकता है और उसी को यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड रुचिकर तथा आनन्दप्रद प्रतीत होता है। या यों कहो कि सर्व रसों की राशि, जो आनन्दमय ब्रह्म है, उसकी प्रतीति अज्ञानी को नहीं हो सकती, किन्तु ज्ञानी पुरुष ही उस आनन्द को अनुभव करता है। इसी अभिप्राय से यहाँ ज्ञानी पुरुष के लिये सम्पूर्ण पदार्थों के रोचक होने से आनन्द की प्राप्ति कथन की गई है ॥२०॥

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    विषय

    उसकी ही महिमा गाई जाती है ।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! जब आप (अन्तरिक्षात्) आकाशप्रदेश से (महाम्+अहिम्) महान् अन्धकार और महाविघ्न को (निः+अधमः) दूर कर देते हैं (तत्) तब आप (पौंस्यम्+कृषे) मनुष्यों का महान् उपकार करते हैं और उस अन्धकार और विघ्न के नष्ट होने पर (अग्नयः) अग्नि=यज्ञ (निः+रुरुचुः) अतिशय प्रकाशित होते हैं (सूर्य्यः+निः) सूर्य्य अतिशय प्रकाशित होता है । और (इन्द्रियः) इन्द्रहितकारी (सोमः+रसः) सोमरस अतिरुचिकर होता है, ऐसे तुमको हम गाते हैं ॥२० ॥

    भावार्थ

    हे जननायक नृपराजा तथा उपदेशक आदि प्रजाहितचिन्तक जनो ! जैसे परमात्मा सर्वार्थ विघ्नों को नष्ट किया करता है, वैसे आप भी दुष्टों के निग्रह के लिये यत्न करें, तब ही मनुष्य उपद्रवरहित होंगे ॥२० ॥

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    विषय

    प्रभु से प्रार्थना और उस की स्तुति । पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे प्रकाशक ! जो तू ( अन्तरिक्षात् ) अन्तरिक्ष भाग से ( महाम् अहिम् ) बड़े भारी आघातकारी मेघ वा अन्धकार को दूर कर देता है, तब तू ( पौस्यं कृषे ) मनुष्यों के हितकर अपने बल को प्रकट करता है। उस समय ( अग्नयः निर् रुरुचुः ) अग्नियें खूब प्रज्वलित होती हैं ( सूर्यः निर् ) सूर्य खूब प्रकाशित होता है । और (इन्द्रियः रसः ) इन्द्र, आत्मा से सेवन करने योग्य ओषधि आदि रसवत् आत्मिक आनन्द भी खूब प्रकट होता है । इत्यष्टाविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेध्यातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—२० इन्द्रः। २१—२४ पाकस्थाम्नः कौरयाणस्य दानस्तुतिः॥ छन्दः—१ कुकुम्मती बृहती। ३, ५, ७, ९, १९ निचृद् बृहती। ८ स्वराड् बृहती। १५, २४ बृहती। १७ पथ्या बृहती। २, १०, १४ सतः पंक्तिः। ४, १२, १६, १८ निचृत् पंक्तिः। ६ भुरिक् पंक्तिः। २० विराट् पंक्तिः। १३ अनुष्टुप्। ११, २१ भुरिगनुष्टुप्। २२ विराड् गायत्री। २३ निचृत् गायत्री॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    वासना विनाश व दीप्ति

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! तू जब (अन्तरिक्षात्) = हृदयान्तरिक्ष से इस (महां अहिम्) = महान् हनन करनेवाली [आहन्ती] वासना को (निरधमः) = सुदूर विनष्ट करता है, तो तू (तत्) = उस (पौंस्यम्) = पुरुषार्थ को (कृषे) = करता है कि (अग्नयः) = शरीर में सब अग्नियाँ (निः रुरुचुः) = निश्चय से दीत हो उठती हैं, 'पार्थिव पदार्थों का ज्ञान, अन्तरिक्ष के पदार्थों का ज्ञान तथा द्युलोक के पदार्थों का ज्ञान' ये सब अग्नियाँ चमक उठती हैं। इसी प्रकार 'उत्साह की अग्नि', 'शक्ति की अग्नि' व 'ज्ञान की अग्नि' ये सब अग्नियाँ चमक उठती हैं । [२] (उ) = और (सूर्य:) = मस्तिष्क रूप द्युलोक में सूर्य (नि:) = निश्चय से दीप्त होता है । (सोमः) = शरीर में उत्पन्न हुई हुई सोमशक्ति (निः) = निश्चय से दीप्त हो उठती है तथा (इन्द्रियः रसः) = [इन्द्रियं वीर्यं बलम्] बल के कारण उत्पन्न होनेवाला जीवन का रस चमक उठता है।

    भावार्थ

    भावार्थ-वासना विनाश से शरीर में 'अग्नियाँ, ज्ञान का सूर्य, सोमशक्ति व बल से उत्पन्न रस' सब चमक उठते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When you broke the mighty cloud in showers from the sky and destroyed the evil from earth, the fires of earth shone and rose bright, the sun shone in glory and the soma juices for the celebration of Indra, lord of might and majesty, flowed from the herbs. That was a great deed of prowess worthy of the lord.$(Similarly when Indra, lord almighty, and also the individual soul, throws out the evil from the heart and mind, then the inner light shines bright, the fire of good life is kindled and rises, and the soma spirit of divine joy flows and rolls in the heart. That indeed is a mighty deed of the lord’s prowess, and of the individual soul too.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या पुरुषाच्या अज्ञानाची निवृत्ती होते तो महापुरुषार्थी म्हणविला जातो व तोच पुरुष सूर्य इत्यादीचा प्रकाश, अग्न्याधान व सोम इत्यादी रसाचा उपयोग करून घेऊ शकतो व त्यालाच हे संपूर्ण ब्रह्मांड रुचकर व आनंददायक वाटते किंवा सर्व रसांची राशी असा जो आनंदमय ब्रह्म आहे त्याची प्रचीती अज्ञानी लोकांना होऊ शकत नाही तर ज्ञानी पुरुषच त्या आनंदाचा अनुभव घेऊ शकतो. याच अभिप्रायाने येथे ज्ञानी पुरुषासाठी संपूर्ण पदार्थ रोचक असल्यामुळे आनंदाची प्राप्ती सांगितलेली आहे. ॥२०॥

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