ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 7
ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
अ॒भि त्वा॑ पू॒र्वपी॑तय॒ इन्द्र॒ स्तोमे॑भिरा॒यव॑: । स॒मी॒ची॒नास॑ ऋ॒भव॒: सम॑स्वरन्रु॒द्रा गृ॑णन्त॒ पूर्व्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । त्वा॒ । पू॒र्वऽपी॑तये । इन्द्र॑ । स्तोमे॑भिः । आ॒यवः॑ । स॒म्ऽई॒ची॒नासः॑ । ऋ॒भवः॑ । सम् । अ॒स्व॒र॒न् । रु॒द्राः । गृ॒ण॒न्त॒ । पूर्व्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि त्वा पूर्वपीतय इन्द्र स्तोमेभिरायव: । समीचीनास ऋभव: समस्वरन्रुद्रा गृणन्त पूर्व्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । त्वा । पूर्वऽपीतये । इन्द्र । स्तोमेभिः । आयवः । सम्ऽईचीनासः । ऋभवः । सम् । अस्वरन् । रुद्राः । गृणन्त । पूर्व्यम् ॥ ८.३.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 7
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (आयवः) मनुष्याः (पूर्वपीतये) अग्रपानार्थं (स्तोमेभिः) स्तुतिभिः (त्वा) त्वां (अभि) अभिष्टुवन्ति (समीचीनासः) सज्जनाः (ऋभवः) विद्वांसः (समस्वरन्) त्वां प्रति शब्दायन्ते (पूर्व्यं) अग्रण्यं (रुद्राः) योद्धारः शत्रूणां भयङ्करः (गृणन्त) त्वामेव स्तुवन्ति ॥७॥
विषयः
ईश्वरमहिमानं दर्शयति ।
पदार्थः
सर्वे विवेकिनः परमात्मानमेव स्तुवन्ति । अतो हे मनुष्याः ! अद्यतना यूयमपि तमेव स्तुतेति शिक्षते । यथा । हे इन्द्र ! आयवः=आसमन्ताद् यान्ति प्राप्नुवन्ति परमात्मतत्त्वं ये ते=आयवस्तत्त्वविदो मनुष्याः । पूर्वपीतये=प्रथमतः पीतयेऽनुग्रहाय । स्तोमैः=विविधैः स्तोत्रैः । त्वा=त्वाम् । अभि=अभितः सर्वतः । गृणन्त=गृणन्ति स्तुवन्ति । तथा । समीचीनासः=समीचीनाः सम्यगञ्चन्ति पूजयन्ति ये ते समीचीनाः । ऋभवः=श्रेष्ठा नराः । त्वामेव । समस्वरन्=संस्वरन्ति संस्तुवन्ति । स्वृ शब्दोपतापयोः । रुद्राः=रुद् दुःखं द्रावयन्ति विनाशयन्ति ये ते रुद्राः परहितेच्छवो जनाः । पूर्व्यम्=पूर्वं प्रथमं पुराणपुरुषं त्वामेव गृणन्ति ॥७ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (आयवः) मनुष्य (पूर्वपीतये) अग्रपान के लिये (स्तोमेभिः) स्तोत्र द्वारा (त्वा) आपका (अभि) स्तवन करते हैं (समीचीनासः) सज्जन (ऋभवः) सत्य से शोभा पानेवाले विद्वान् (समस्वरन्) आपके आह्वान का शब्द कर रहे हैं (पूर्व्यं) अग्रणी (रुद्राः) शत्रु को भयकारक योद्धा लोग (गृणन्त) आपकी स्तुति करते हैं ॥७॥
भावार्थ
याज्ञिक लोगों का कथन है कि हे कर्मयोगिन् ! सत्यभाषी विद्वान् पुरुष स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति करते हुए सोमरस का अग्रपान करने के लिये आपका आह्वान करते हैं और शत्रुओं को भयप्रद योद्धा लोग आपकी स्तुति करते हुए सत्कारार्ह उत्तमोत्तम पदार्थ भेंटकर आपको प्रसन्न करना चाहते हैं ॥७॥
विषय
ईश्वर की महिमा दिखलाते हैं ।
पदार्थ
सब विवेकी पुरुष परमात्मा की ही स्तुति करते हैं । इस हेतु हे मनुष्यो ! आप भी सब मिलकर उसी की स्तुति उपासना करें, यह शिक्षा इससे देते हैं । यथा−(इन्द्र) हे इन्द्र ! (आयवः) अच्छे प्रकार परमात्मा के तत्त्वों को जाननेवाले पुरुष (पूर्वपीतये) सबसे प्रथम अनुग्रह करने के लिये (स्तोमैः) स्तुतियों के द्वारा (त्वा) आपकी ही (अभि) सब प्रकार से (गृणन्त) स्तुति करते हैं और (समीचीनासः) सम्यग् तत्त्ववेत्ता (ऋभवः) श्रेष्ठ नर (समस्वरन्) आपकी ही अच्छे प्रकार स्तुति करते हैं तथा (रुद्राः) परदुःखनिवारक जन (पूर्व्यम्) परमपुराण आपकी ही स्तुति करते हैं ॥७ ॥
भावार्थ
स्वभावतः सर्वजन स्वकीय रक्षा प्रथम ही चाहते हैं और निज-२ सहायता के लिये सब उसी को बुलाते हैं, परन्तु जो सबको त्याग उसकी कल्याणी मति में रहते हैं, उसी को उसके नियम पालते हैं ॥७ ॥
विषय
प्रभु से प्रार्थना और उस की स्तुति । पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) शत्रु वा दुष्टजनों के नाश करने और उनके भयभीत करने और भगाने हारे स्वामिन् ! ( आयवः ) मनुष्य लोग ( पूर्वपीतये ) सब से पहले आदरपूर्वक राष्ट्र के उपभोग और पालन करने के लिये ( त्वा अभि ) तुझे लक्ष्य कर ही ( स्तोमेभिः ) स्तुति-वचनों से ( समीचीना ) शुद्ध उत्तम भाव से युक्त होकर ( ऋभव: ) तेजस्वी और धन, ज्ञान से सम्पन्न जन भी ( सम् अस्वरन् ) मिलकर तेरी स्तुति और प्रार्थना करते हैं। ( रुद्राः ) दुष्टों को रुलाने वाले वीरगण और प्रजा की पीड़ाओं को दूर करने वाले तथा ( रुद्राः ) गर्जते, चमकते मेघ सूर्यादि वा उपदेष्टा विद्वान् जन भी ( पूर्व्यम् गृणन्त ) सब से पूर्व विद्यमान सर्वश्रेष्ठ तेरी ही स्तुति करते हैं । तुझ को ही सर्व प्रथम कारण बतलाते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेध्यातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—२० इन्द्रः। २१—२४ पाकस्थाम्नः कौरयाणस्य दानस्तुतिः॥ छन्दः—१ कुकुम्मती बृहती। ३, ५, ७, ९, १९ निचृद् बृहती। ८ स्वराड् बृहती। १५, २४ बृहती। १७ पथ्या बृहती। २, १०, १४ सतः पंक्तिः। ४, १२, १६, १८ निचृत् पंक्तिः। ६ भुरिक् पंक्तिः। २० विराट् पंक्तिः। १३ अनुष्टुप्। ११, २१ भुरिगनुष्टुप्। २२ विराड् गायत्री। २३ निचृत् गायत्री॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
चारों आश्रमों में प्रभु-स्तवन
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = काम-क्रोध आदि शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! (पूर्वपीतये) = जीवन के पूर्व भाग में सोम के रक्षण के लिये (त्वा अभि) = आपका लक्ष्य करके ही (समस्वरन्) = स्तुति शब्दों का उच्चारण करते हैं, आपका स्तवन ही वासनाओं के विनाश के द्वारा हमें सोमरक्षण के योग्य बनाता है। [२] (आयवः) = संसार व्यवहारों में चलनेवाले गृहस्थ पुरुष भी (स्तोमेभिः) = स्तुति समूहों के द्वारा आप को ही स्तुत करते हैं। आपका स्तवन ही उन्हें भोग-विलास में फँसने से बचाकर आगे बढ़ानेवाला होता है। [३] गृहस्थ से ऊपर उठकर (समीचीनासः) = प्रभु के साथ मिलकर गति करनेवाले [सं अञ्च्] प्रभु स्मरण पूर्वक गतिवाले (ऋभवः) = ज्ञानदीप्त व्यक्ति आपके ही [समस्वरत्] स्तुति शब्दों का उच्चारण करते हैं और [४] अन्त में (रुद्राः) = [रुत] ज्ञानोपदेश करनेवाले ये परिव्राजक लोग भी (पूर्व्यम्) = पालन व पूरण करनेवालों में उत्तम आप को ही (गृणन्त) = स्तुत करते हैं। आपका स्तवन ही उन्हें अनासक्त होने की शक्ति देता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु स्मरण ही एक ब्रह्मचारी को सोम के रक्षण के योग्य बनाता है। प्रभु स्मरण से ही गृहस्थ भोग-प्रसक्त नहीं हो जाता? प्रभु स्मरण ही वनस्थ को स्वाध्याय प्रवृत्त कर दीप्त जीवनवाला बनाता है। प्रभु स्मरण ही सन्यस्त को सब कमियों से दूर रहने में समर्थ करता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, men in general, learned experts of vision and wisdom, illustration powers of law and order, and fighting warriors of defence and protection all together, raising a united voice of praise, prayer and appreciation, with songs of holiness and acts of piety, invoke and invite you, ancient, nearest and most excellent lord of power and lustre, to inaugurate their yajnic celebration of the soma session of peaceful and exciting programme of development.
मराठी (1)
भावार्थ
याज्ञिक लोकांचे हे कथन आहे की हे कर्मयोगी! सत्यवचनी विद्वान पुरुष स्तोत्रांद्वारे तुमची स्तुती करत सोमरसाचे अग्रपान करण्यासाठी तुमचे आव्हान करतात व शत्रूंना भयप्रद, योद्धे तुमची स्तुती करत सत्कारासाठी उत्तमोत्तम पदार्थ भेट देऊन तुम्हाला प्रसन्न करू इच्छितात. ॥७॥
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