ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 63/ मन्त्र 10
परी॒तो वा॒यवे॑ सु॒तं गिर॒ इन्द्रा॑य मत्स॒रम् । अव्यो॒ वारे॑षु सिञ्चत ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । इ॒तः । वा॒यवे॑ । सु॒तम् । गिरः॑ । इन्द्रा॑य । म॒त्स॒रम् । अव्यः॑ । वारे॑षु । सि॒ञ्च॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
परीतो वायवे सुतं गिर इन्द्राय मत्सरम् । अव्यो वारेषु सिञ्चत ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । इतः । वायवे । सुतम् । गिरः । इन्द्राय । मत्सरम् । अव्यः । वारेषु । सिञ्चत ॥ ९.६३.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 63; मन्त्र » 10
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 31; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 31; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(गिरः) हे स्तोतारो जनाः ! भवन्तः (इन्द्राय) कर्मयोगिने तथा (वायवे) ज्ञानयोगिने (इतः) कर्मभूमौ (मत्सरं सुतम्) आह्लादजनकं शीलं वर्षयन्तु। तथा (वारेषु) समस्तवरणीयपदार्थेषु (अव्यः परिषिञ्चत) परितो रक्षावृष्टिं कुर्वन्तु ॥१०॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(गिरः) हे स्तोता लोगों ! आप (इन्द्राय) कर्मयोगी के लिये और (वायवे) ज्ञानयोगी के लिये (इतः) इस कर्मभूमि में (मत्सरं) आह्लादजनक (सुतं) शील की वृष्टि करें और (वारेषु) सब वरणीय पदार्थों में (अव्यः) रक्षा की (परिषिञ्चत) सब ओर से वृष्टि करें ॥१०॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करता है कि जो वेदवेत्ता लोग ज्ञानयोग तथा कर्मयोग का उपदेश करते हैं, वे मानों अमृत की वृष्टि से अकर्मण्यतारूप मृत्यु से मृत लोगों का पुनरुज्जीवन करते हैं ॥१०॥
विषय
'वायवे इन्द्राय' मत्सरम्
पदार्थ
[१] (सुतम्) = उत्पन्न हुए हुए सोम को (इतः) = इस उत्पत्ति-स्थान से (गिरः) = हे स्तोताओ ! (परि सिञ्चत) = शरीर में चारों ओर सिक्त करो। शरीर के अंग-प्रत्यंग को यह शक्तिशाली बनानेवाला हो। [२] उस सोम को तुम सिक्त करो, जो कि (वायवे) = गतिशील पुरुष के लिये तथा (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (मत्सरम्) = आनन्द के सञ्चार को करनेवाला है। इसलिए तुम इसे सिक्त करो कि यह (अव्यः वारेषु) = [अवेः] रक्षक पुरुष के रोगादि के निवारण का निमित्त बनाता है । हम इसका रक्षण करते हैं। यह हमें रोगों वा मानसविकारों से बचाता है। गतिशीलता व जितेन्द्रियता ही इस सोमरक्षण के साधन है ।
भावार्थ
भावार्थ- गतिशील व जितेन्द्रिय बनकर हम सोम का रक्षण करते हैं। यह रक्षित सोम हमारे जीवन में उल्लास का कारण बनता है और सब निवारण के योग्य चीजों को हमारे से दूर रखता
विषय
वीर, शत्रुवारक पुरुष का पदाभिषेक। पक्षान्तर में विद्यार्थी विद्वान् का स्नातक होना
भावार्थ
हे (गिरः) स्तोता, उपदेष्टा जनो ! आप लोग (इतः) इस आश्रम से आगे (वायवे) वायुवत् सर्वप्रिय, बलवान् पद और (इन्द्राय) ऐश्वर्ययुक्त होने के लिये, (सुतं मत्सरं) अभिषिक्त, स्नात, सब को हर्ष देने वाले इस व्यक्ति को, (अव्यः वारेषु) भूमि के शत्रुओं के वारण करने वाले वीरों के ऊपर, उनके बीच में वा भूमि के वरणीय पदार्थों या वरण करने वाले जनों के बीच मैं (परि सिञ्चत) सब ओर से वा सर्वोपरि अभिषिक्त करो। (२) इसी प्रकार (अव्यः वारेषु) भेड़ के बने कम्बलों में व्रत-पालक विद्यार्थी को स्नातक बनाओ। इत्येकत्रिंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
निध्रुविः काश्यप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:- १, २, ४, १२, १७, २०, २२, २३, २५, २७, २८, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७-११, १६, १८, १९, २१, २४, २६ गायत्री। ५, १३, १५ विराड् गायत्री। ६, १४, २९ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
And now, O celebrants, for the man of vibrant action and power and far reaching vision among the best of choice, pour out showers of sunniest and most exciting soma appreciation and the best of safe guards.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो की, वेदवेत्ते लोक ज्ञानयोग व कर्मयोगाचा उपदेश करतात. ते जणू अमृताच्या वृष्टीने अकर्मण्यता रूपी मृत्यूने, मृत लोकांचे पुनरुज्जीवन करतात. ॥१०॥
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