ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 63/ मन्त्र 14
ऋषिः - निध्रुविः काश्यपः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - ककुम्मतीगायत्री
स्वरः - षड्जः
ए॒ते धामा॒न्यार्या॑ शु॒क्रा ऋ॒तस्य॒ धार॑या । वाजं॒ गोम॑न्तमक्षरन् ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ते । धामा॑नि । आर्या॑ । शु॒क्राः । ऋ॒तस्य॑ । धार॑या । वाज॑म् । गोऽम॑न्तम् । अ॒क्ष॒र॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
एते धामान्यार्या शुक्रा ऋतस्य धारया । वाजं गोमन्तमक्षरन् ॥
स्वर रहित पद पाठएते । धामानि । आर्या । शुक्राः । ऋतस्य । धारया । वाजम् । गोऽमन्तम् । अक्षरन् ॥ ९.६३.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 63; मन्त्र » 14
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(एते शुक्राः) प्रागुक्तशीलस्वभावः परमेश्वरः यः (ऋतस्य धारया) सत्यधाराभिः (वाजम्) बलं तथा (गोमन्तम्) ऐश्वर्यं (अक्षरन्) वर्षयते स ईश्वरः (आर्या) आर्यपुरुषाणां (धामानि) स्थानरूपोऽवगन्तव्यः ॥१४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(एते शुक्राः) पूर्वोक्त शीलस्वभाव परमेश्वर, जो (ऋतस्य धारया) सच्चाई की धाराओं से (वाजम्) बल को और (गोमन्तं) ऐश्वर्य को (अक्षरन्) बरसाते हैं, वे (आर्या) आर्य पुरुषों के (धामानि) स्थान समझने चाहिये ॥१४॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करता है कि श्रेष्ठ पुरुषों की स्थिति का हेतु एकमात्र शुभस्वभाव वा शील ही समझना चाहिये। अर्थात् शुभशील से उनकी दृढ़ता और उनका आर्यत्व बना रहता है, इसलिये शील को सम्पादन करना आर्यों का परम कर्तव्य है ॥१४॥
विषय
गोमान् वाज
पदार्थ
[१] (एते) = ये (शुक्राः) = जीवन को शुचि व शक्तिशाली बनानेवाले सोम (ऋतस्य धारया) = [धारा=वाड्नामसु] सत्य वेदज्ञान की वाणी से (आर्या धामानि) = श्रेष्ठ तेजों को (अक्षरन्) = हमारे में क्षरित करते हैं। ये सोमकण ज्ञानाग्नि को दीप्त करके हमें श्रेष्ठ तेजों से युक्त करते हैं । [२] (गोमन्तं वाजम्) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाले [गाव: इन्द्रियाणि] बल को ये हमारे में क्षरित करते हैं। हमें ये पवित्र व बल-सम्पन्न बनाते हैं। सुरक्षित सोम से शरीर ही नीरोग नहीं होता, मन भी इससे निर्मल बनता है । एवं यह सोम हमें पवित्र तो बनाता ही है। यह हमें शक्तिशाली भी बनाता है । पवित्र व वासनाओं से अनाक्रान्त जीवनवाला पुरुष शक्ति के रक्षण से बल-सम्पन्न तो होता ही है ।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें वेदज्ञान के अनुसार चलाता हुआ पवित्र व शक्ति सम्पन्न बनाता है ।
विषय
किरणों वा जलों के समान शासकों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
जिस प्रकार तेजस्वी सूर्य की किरणें तेज वा जल की धारा से उत्तम तेजों और भूमि के अन्न को उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार (एते) ये (शुक्राः) शुद्ध कान्तियुक्त, तेजस्वी, शीघ्र कार्यकारी पुरुष (ऋतस्य धारया) सत्य ज्ञानयुक्त वेद वाणी द्वारा (आर्या धामानि) श्रेष्ठ धारण करने योग्य गुणों को (अक्षरन्) प्रवाहित करते और (गोमन्तं वाजं अक्षरन्) उसी वाणी द्वारा वाणी से युक्त ज्ञान और भूमि से युक्त अन्न-ऐश्वर्य को भी प्रवाहित करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
निध्रुविः काश्यप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:- १, २, ४, १२, १७, २०, २२, २३, २५, २७, २८, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७-११, १६, १८, १९, २१, २४, २६ गायत्री। ५, १३, १५ विराड् गायत्री। ६, १४, २९ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
These, showers of soma, divine creative power, great and dynamic, pure and powerful, rain down on earth in streams of life sap and motherly process of natural law, giving the milk of nourishment and vibrant fulfilment to all forms of existence.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो की, श्रेष्ठ पुरुषांच्या स्थितीचा हेतु एकमात्र शुभस्वभाव किंवा शील समजले पाहिजे. अर्थात शुभशीलानेच त्यांची दृढता व त्यांचे आर्यत्व टिकते. त्यासाठी शील संपादन करणे आर्यांचे परम कर्तव्य आहे. ॥१४॥
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