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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 88 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 88/ मन्त्र 5
    ऋषिः - उशनाः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒ग्निर्न यो वन॒ आ सृ॒ज्यमा॑नो॒ वृथा॒ पाजां॑सि कृणुते न॒दीषु॑ । जनो॒ न युध्वा॑ मह॒त उ॑प॒ब्दिरिय॑र्ति॒ सोम॒: पव॑मान ऊ॒र्मिम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः । न । यः । वने॑ । आ । सृ॒ज्यमा॑नः । वृथा॑ । पाजां॑सि । कृ॒णु॒ते॒ । न॒दीषु॑ । जनः॑ । न । युध्वा॑ । म॒ह॒तः । उ॒प॒ब्दिः । इय॑र्ति । सोमः॑ । पव॑मानः । ऊ॒र्मिम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निर्न यो वन आ सृज्यमानो वृथा पाजांसि कृणुते नदीषु । जनो न युध्वा महत उपब्दिरियर्ति सोम: पवमान ऊर्मिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः । न । यः । वने । आ । सृज्यमानः । वृथा । पाजांसि । कृणुते । नदीषु । जनः । न । युध्वा । महतः । उपब्दिः । इयर्ति । सोमः । पवमानः । ऊर्मिम् ॥ ९.८८.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 88; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यः) यः सोमः (सृज्यमानः, अग्निः, न) उत्पन्नाग्निरिव (वने) अरण्ये (पाजांसि) बलानि (वृथा, कृणुते) व्यर्थयति। (नदीषु) अन्तरिक्षेषु (पाजांसि) जलबलानि (वृथा, कृणुते) व्यर्थयति। (जनः, न) यथा नरः (युद्ध्वा) युद्धं कृत्वा (महतः, उपब्दिः) महाशब्दं कुर्वन् (इयर्ति) प्रेरयति। एवमेव (पवमानः) सर्वपावकः (सोमः) परमात्मा (ऊर्मिं) आनन्दतरङ्गान् वाहयति ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यः) जो सोम (सृज्यमानः अग्निर्न) उत्पन्न की हुई अग्नि के समान (वने) वन में (पाजांसि) बलों को (वृथा कृणुते) व्यर्थ कर देता है। (नदीषु) अन्तरिक्षों में (पाजांसि) जल के बलों को (वृथा कृणुते) व्यर्थ कर देता है। (जनो न) जिस प्रकार मनुष्य (युद्ध्वा) युद्ध करके (महत उपब्दिः) बड़ा शब्द करता हुआ (इयर्ति) प्रेरणा करता है, इसी प्रकार (पवमानः) सबको पवित्र करनेवाला (सोमः) सोम (ऊर्म्मिम्) आनन्द की लहरों को बहाता है ॥५॥

    भावार्थ

    अग्नि जिस प्रकार सब तेजों को तिरस्कृत करके अपने में मिला लेता है अर्थात् विद्युदादि तेज जैसे अन्य तुच्छ तेजों को तिरस्कृत कर देता है, इसी प्रकार परमात्मा के समक्ष सब तेज तुच्छ हैं अर्थात् परमात्मा ही सब ज्योतियों की ज्योति होने से स्वयंज्योति है ॥५॥

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    विषय

    जलों में प्रशान्त अग्नि के तुल्य शिष्य की वनस्थों के बीच ज्ञान-प्राप्ति, और उपदेष्टा होने का आदेश।

    भावार्थ

    (आसृज्यमानः वने अग्निः न नदीषु पाजांसि) जिस प्रकार वन में लगा अग्नि अनायास ही नदियों में अपने बलों को वृथा कर देता है उस प्रकार जो (अग्निः) विनीत शिष्य होकर (वने आसृज्यमानः) वनस्थ जन समूह के बीच में तैयार होता है वह (नदीषु) उत्तम उपदेश करने योग्य वाणियों में (वृथा) अनायास ही (पाजांसि) नाना ज्ञान (कृणुते) प्राप्त कर लेता है। वह (युध्वा जनः न) योद्धा जन के तुल्य (सोमः) उत्तम शिष्य (पवमानः) आगे बढ़ता हुआ, (महतः) बड़े भारी वेद-राशि का (उपब्दिः) उपदेष्टा होकर वाणी के तुल्य ही (ऊर्मिम् इयर्त्ति) उन्नत विचारों को प्रकट करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    उशना ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः – १ सतः पंक्ति:। २, ४, ८ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ६, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ५ त्रिष्टुप्। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    वासना विनाश व प्रकाश

    पदार्थ

    (यः) = जो सोम (वने) = वन में (आसृज्यमानः) = उत्पन्न किये जाते हुए (अग्नि न) = अग्नि की तरह (वृथा) = अनायास ही (नदीषु) = स्तोताओं में (पाजांसि) = शक्तियों को (कृणुते) = करता है। अग्नि जैसे उस वन में सब झाड़ी-झंकाड़ों को भस्म कर देता है उसी प्रकार यह सोम इन स्तोताओं के जीवन में सब वासनाओं व रोगों को भस्म करनेवाला होता है । (युध्वा) = योद्धा (जनः न) = मनुष्य के समान यह सोम (महतः उपब्दिः) = महान् शत्रुओं को भी रुलानेवाला होता है [शब्दयिता सा०] इस प्रकार काम-क्रोध आदि शत्रुओं को समाप्त करके ये (पवमानः) = पवित्र करनेवाला (सोमः) = सोम (ऊर्मिम्) = प्रकाश की किरणों को (इयर्ति) = प्रेरित करता है। [ऊर्मि light]।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम सुरक्षित होकर वासना वन का विनाश करके जीवन को प्रकाशमय बनाता है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Created like fire by friction in the serious business of life, Soma spontaneously creates mighty motions of flow in the dynamics of existence. Like a mighty man warrior roaring and resounding as a great victor, soma goes forward to billows of the sea sending out waves of purity and power all round.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अग्नी ज्या प्रकारे सर्व तेजांना निष्प्रभ करून आपल्यात सामावून घेतो. विद्युत इत्यादी तेज जसे कमी तेजांना निष्प्रभ करते. याच प्रकारे परमेश्वरासमक्ष सर्वांचे तेज कमी आहे. अर्थात परमात्माच सर्व ज्योतींचा ज्योती असल्यामुळे स्वयं ज्योती आहे. ॥५॥

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