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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 88 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 88/ मन्त्र 6
    ऋषिः - उशनाः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒ते सोमा॒ अति॒ वारा॒ण्यव्या॑ दि॒व्या न कोशा॑सो अ॒भ्रव॑र्षाः । वृथा॑ समु॒द्रं सिन्ध॑वो॒ न नीची॑: सु॒तासो॑ अ॒भि क॒लशाँ॑ असृग्रन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒ते । सोमाः॑ । अति॑ । वारा॑णि । अव्या॑ । दि॒व्या । न । कोशा॑सः । अ॒भ्रऽव॑र्षाः । वृथा॑ । स॒मु॒द्रम् । सिन्ध॑वः । न । नीचीः॑ । सु॒तासः॑ । अ॒भि । क॒लशा॑न् । अ॒सृ॒ग्र॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एते सोमा अति वाराण्यव्या दिव्या न कोशासो अभ्रवर्षाः । वृथा समुद्रं सिन्धवो न नीची: सुतासो अभि कलशाँ असृग्रन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एते । सोमाः । अति । वाराणि । अव्या । दिव्या । न । कोशासः । अभ्रऽवर्षाः । वृथा । समुद्रम् । सिन्धवः । न । नीचीः । सुतासः । अभि । कलशान् । असृग्रन् ॥ ९.८८.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 88; मन्त्र » 6
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 6
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (एते, सोमाः) उक्तपरमात्मानः सोमादिगुणाः (वाराणि, अव्या) वरणीयान् रक्षणीयाञ्च सर्वदिव्यपदार्थान् (कोशासः) पात्राणि च (अभ्रवर्षाः, न) मेघस्य वर्षा इव परिपूर्णयन्ति। अपि च (वृथा) यथाऽनायासेनैव (समुद्रं) अन्तरिक्षं (सिन्धवः) स्यन्दनशीलप्रकृतेः सत्त्वादिगुणाः प्राप्नुवन्ति, तथैव (नीचीः, न) निम्नाभिमुखं (सुतासः) आविर्भावं प्राप्नुवन्तो गुणाः (कलशान्) शुद्धान्तःकरणानि (अभि, असृग्रन्) सर्वथा गच्छन्ति ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (एते सोमाः) उक्त परमात्मा के सोमादि गुण (वाराण्यव्या) वरणीय और रक्षणीय दिव्यादिव्य पदार्थों को (कोशासः) पात्रों को (अभ्रवर्षाः, न) मेघ की वर्षा के समान परिपूर्ण कर देते हैं और (वृथा) जैसे अनायास से ही (समुद्रं) अन्तरिक्ष को (सिन्धवः) स्यन्दनशील प्रकृति के सत्त्वादिक गुण प्राप्त होते हैं, इसी प्रकार (नीचीर्न) नीचाई की ओर (सुतासः) आविर्भाव को प्राप्त हुए गुण (कलशान्) शुद्ध अन्तःकरणों की (अभि, असृग्रन्) ओर भली-भाँति गमन करते हैं ॥६॥

    भावार्थ

    जिन पुरुषों का अन्तःकरण पवित्र है, अर्थात् जिन्होंने श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन द्वारा अपने अन्तःकरणों को शुद्ध किया है, परमात्मा के ज्ञान का प्रवाह उनके अन्तःकरणों की ओर स्वतः ही प्रवाहित होता है ॥६॥

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    विषय

    मेघस्थ धाराओं के तुल्य विद्वानों का आगमन और उनका प्रभु वा जनों के प्रति गमन।

    भावार्थ

    (एते) ये (सोमाः) निष्णात विद्वान् जन (वाराणि अव्या अति) भेड़ के वालों से बने कम्बलों को त्याग कर (दिव्याः कोशासः न) आकाशगत मेघों के तुल्य (अभ्र-वर्षाः) मेघों द्वारा गिराई वर्षा धाराओं के तुल्य आते हैं। और वे (सिन्धवः नीचीः न) बहती, नीचे जाती धाराओं के समान विनीत होकर (वृथा समुद्रम् अभि) अनायास ही उस महान् समुद्रवत् अपार प्रभु की ओर तथा (कलशान अभि) राष्ट्रों की ओर (असृग्रन्) चले जाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    उशना ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः – १ सतः पंक्ति:। २, ४, ८ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ६, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ५ त्रिष्टुप्। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    दिव्य कोश

    पदार्थ

    (एते सोमाः) = ये सोम (अभ्रवर्षाः) = मेघों से वृष्ट होनेवाले (दिव्या कोशासः) = दिव्य कोशों के समान हैं। बादलों से वृष्ट होनेवाले जलों के समान अतिशयेन हितकर हैं। ये (अव्या) = रक्षण सम्बन्धी (वाराणि) = रोगनिवारण आदि कर्मों को अति अतिशयेन करते हैं [अति कुर्षन्ति, उपसर्गस्तु तैर्योग्य क्रियाध्याहारः]। मेघबल के समान ये सोम दिव्य सम्पत्ति हैं। ये हमें नीरोग निर्मल व तीव्र बुद्धि बनानेवाले हैं। (न) = जैसे (नीची:) = निम्न प्रवाहवाली (सिन्धवः) = नदियाँ (समुद्रम्) = समुद्र को (वृथा) = अनायास प्राप्त होती हैं, उसी प्रकार (सुतासः) = उत्पन्न हुए हुए ये सोम (कलशान् अभि) = सोलह कलाओं के आधारभूत इन शरीरों को लक्ष्य करके (असृग्रन्) = उत्पन्न किये जाते हैं। ये शरीर में प्रविष्ट होकर उसे सोलह कला सम्पन्न बनाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम दिव्य कोश हैं। ये शरीरों को सोलह कला सम्पन्न बनाते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    These soma currents of fluent joyous divine energy pass through higher regions of purity and refinement in the process of nature, and then these divine and protected treasure-holds of joy like vapours of rain bearing clouds, cleansed and sanctified, flow to the heart core of the devoted celebrants in the same manner as showers of rain from the clouds bless the earth and rivers flow down to the deep sea.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या पुरुषांचे अंत:करण पवित्र आहे. ‘अर्थात् ज्यांनी श्रवण, मनन व निदिध्यासनाद्वारे आपल्या अंत:करणांना शुद्ध केलेले आहे’ परमेश्वराच्या ज्ञानाचा प्रवाह त्यांच्या अंत:करणाकडे स्वत:च प्रवाहित होतो. ॥६॥

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