ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 98/ मन्त्र 10
ऋषिः - अम्बरीष ऋजिष्वा च
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
इन्द्रा॑य सोम॒ पात॑वे वृत्र॒घ्ने परि॑ षिच्यसे । नरे॑ च॒ दक्षि॑णावते दे॒वाय॑ सदना॒सदे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑य । सो॒म॒ । पात॑वे । वृ॒त्र॒ऽघ्ने । परि॑ । सि॒च्य॒से॒ । नरे॑ । च॒ । दक्षि॑णाऽवते । दे॒वाय॑ । स॒द॒न॒ऽसदे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राय सोम पातवे वृत्रघ्ने परि षिच्यसे । नरे च दक्षिणावते देवाय सदनासदे ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्राय । सोम । पातवे । वृत्रऽघ्ने । परि । सिच्यसे । नरे । च । दक्षिणाऽवते । देवाय । सदनऽसदे ॥ ९.९८.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 98; मन्त्र » 10
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) हे सर्वोत्पादक ! (वृत्रघ्ने) अज्ञाननाशको भवान् (इन्द्राय) कर्मयोगिनः (पातवे) तृप्तये (परिषिच्यसे) साक्षात्क्रियते (देवाय) दिव्यगुणाय (दक्षिणावते, नरे) अनुष्ठानिने विदुषे (सदनासदे) यज्ञगृहेषु साक्षात्क्रियते ॥१०॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोम) हे सर्वोत्पादक परमात्मन् ! (वृत्रघ्ने) अज्ञान के नाशक (इन्द्राय) कर्मयोगी की (पातवे) तृप्ति के लिये (परिषिच्यसे) साक्षात्कार किये जाते हो (दक्षिणावते, नरे) अनुष्ठानी विद्वान् (देवाय) जो दिव्यगुणयुक्त हैं, उसके लिये (सदनासदे) यज्ञगृह में साक्षात्कार किये जाते हो ॥१०॥
भावार्थ
परमात्मा कर्मयोगी तथा अनुष्ठानी विद्वानों का ही साक्षात्करणार्ह है ॥१०॥
विषय
उसके कर्त्तव्य और जिम्मेदारियां।
भावार्थ
हे (सोमः) शासक ! तू (पातवे) पालन करने वाले (इन्द्राय) शत्रुहन्ता, अन्न-जल-दाता, ऐश्वर्यवान्, तेजस्वी (नरे) नायक (दक्षिणावते) दान और शक्ति वाले (वृत्रध्ने) दुष्टों का नाश करने वाले (सदनासदे देवाय) आसन पर विराजने वाले राजा या तेजस्वी पुरुष पद के लिये (परि सिच्यसे) अभिषिक्त किया जा रहा है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अम्बरीष ऋजिष्वा च ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २, ४, ७, १० अनुष्टुप्। ३, ४, ९ निचृदनुष्टुप्॥ ६, १२ विराडनुष्टुप्। ८ आर्ची स्वराडनुष्टुप्। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'इन्द्र-नर-देव' का सोमपान
पदार्थ
हे (सोम) = वीर्य ! तू (वृत्रघ्ने) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को विनष्ट करनेवाले (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (पातवे) = शरीर के अन्दर ही व्याप्त होने के लिये (परिषिच्यसे) = शरीर में चारों ओर सिक्त होता है । अर्थात् सोम का पान [शरीर में रक्षण] वासना को जीतनेवाला जितेन्द्रिय पुरुष ही कर पाता है । (दक्षिणावते) = दान की वृत्ति वाले (नरे) = [नृ ङे] पुरुष के लिये यह सोम शरीर में परिषिक्त होता है। और (सदनासदे) = यज्ञगृह में आसीन होनेवाले (देवाय) = देववृत्ति के पुरुष के लिये तू परिषिक्त होता है । अर्थात् सोम का रक्षण दानशील त्यागी पुरुष कर पाता है और यज्ञ आदि उत्तम कर्मों में आसीन होनेवाला देव पुरुष कर पाता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोम का पान तीन व्यक्ति करते हैं, वासना का विजेता जितेन्द्रिय पुरुष, दानशील त्यागी पुरुष तथा यज्ञगृह में आसीन होनेवाला देव पुरुष ।
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma spirit of light and ecstasy of grace, you are adored and served for the soul’s experience of divinity, for the man of charity and the brilliant sage on the vedi of yajnic service so that the demon of evil, darkness and ignorance may be expelled from the soul of humanity and destroyed.
मराठी (1)
भावार्थ
कर्मयोगी व अनुष्ठानी विद्वानांना परमात्म्याचा साक्षात्कार होतो. ॥१०॥
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