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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 98 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 98/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अम्बरीष ऋजिष्वा च देवता - पवमानः सोमः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    परि॒ त्यं ह॑र्य॒तं हरिं॑ ब॒भ्रुं पु॑नन्ति॒ वारे॑ण । यो दे॒वान्विश्वाँ॒ इत्परि॒ मदे॑न स॒ह गच्छ॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । त्यम् । ह॒र्य॒तम् । हरि॑म् । ब॒भ्रुम् । पु॒न॒न्ति॒ । वारे॑ण । यः । दे॒वान् । विश्वा॑न् । इत् । परि॑ । मदे॑न । स॒ह । गच्छ॑ति ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परि त्यं हर्यतं हरिं बभ्रुं पुनन्ति वारेण । यो देवान्विश्वाँ इत्परि मदेन सह गच्छति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । त्यम् । हर्यतम् । हरिम् । बभ्रुम् । पुनन्ति । वारेण । यः । देवान् । विश्वान् । इत् । परि । मदेन । सह । गच्छति ॥ ९.९८.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 98; मन्त्र » 7
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (त्यं) उक्तपरमात्मानं (हरिं) सृष्टेर्लयादिकर्तारं (हर्यतं) सर्वप्रियं (बभ्रुं) ज्ञानस्वरूपं (वारेण) वरणीयतमपदार्थेनोपासते (यः) यश्च (विश्वान्, देवान्) सर्वविदुषः (इत्) हि (मदेन) आनन्देन (सह) साकं (परि पुनन्ति) परितः पावयति (परि गच्छति) सर्वत्र व्याप्नोति च ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (त्यम्) उक्त परमात्मा (हरिम्) जो अनन्त प्रकार की सृष्टि की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय करता है, (हर्यतम्) जो सर्वप्रिय है, (बभ्रुम्) ज्ञानस्वरूप है, (वारेण) वरणीय से वरणीय पदार्थों द्वारा जिसकी उपासना करते हैं और (यः) जो (विश्वान्) सब (देवान्) विद्वानों को (इत्) ही (मदेन) परमानन्द के (सह) साथ (परिपुनन्ति) पवित्र करता है, (परिगच्छति) वह सर्वत्र प्राप्त है ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में परमात्मा का स्वातन्त्र्य-वर्णन किया है ॥७॥

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    विषय

    पांचों प्रजाओं से उसका अभिषेक।

    भावार्थ

    (यम्) जिस (स्वयशसम्) अपने ही स्वतः बलवान्, (अद्रि-संहतम्) पर्वत के समान दृढ़ शरीर वाले, (प्रियम्) प्रिय, (इन्द्रस्य काम्यम्) ऐश्वर्य पद की कामना करने वाले, (ऊर्मिणम्) बलवान्, उत्तम भावों वाले उदात्त पुरुष को (पञ्च स्वसारः) पाचों प्रजाएं, भगिनियों के तुल्य पांचों प्रजाएं (द्विः) दो बार विद्या और व्रत में (प्रस्नापयन्ति) स्नान करातीं, अभिषेक करती हैं। (त्यं) उस (हर्यतं) कान्तिमान् (बभ्रुं) भरण पोषण में समर्थ, तेजस्वी (हरिम्) पुरुष को (वारेण परि पुनन्ति) वरण करके सभी पवित्र करते हैं। (यः) जो (विश्वान् देवान् इत्) समस्त कामनावान् पुरुषों को (मदेन सह परि गच्छति) हर्ष सहित प्राप्त होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अम्बरीष ऋजिष्वा च ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २, ४, ७, १० अनुष्टुप्। ३, ४, ९ निचृदनुष्टुप्॥ ६, १२ विराडनुष्टुप्। ८ आर्ची स्वराडनुष्टुप्। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    मदेन सह

    पदार्थ

    (त्यम्) = उस (हर्यतम्) = सबसे स्पृहणीय कान्त, (हरिम्) = दुःखों व रोगों का हरण करनेवाले, (बभ्रुम्) = धारण करनेवाले सोम को (वारेण) = वासनाओं के निवारण के द्वारा (परिपुनन्ति) = सर्वथा पवित्र करते हैं। सोम शुद्धि के लिये अपने को वासनाओं से बचाना ही एकमात्र उपाय है। उस सोम को पवित्र करते हैं, (यः) = जो (विश्वान् देवान्) = सब देववृत्ति के पुरुषों को (इत्) = ही (मदेन सह) = उल्लास के साथ परि गच्छति शरीर में चारों ओर प्राप्त होता है । सोमरक्षण देववृत्ति वाले पुरुष ही कर पाते हैं । सुरक्षित सोम उल्लास का जनक होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - वासनाओं का निवारण करते हुए देव पुरुष ही सोम का पान करते हैं, यह सुरक्षित सोम जीवन में उल्लास का कारण बनता है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ten psychic powers with the best of their potential adore and exalt that dear divinity, omniscience itself, who, omnipresent, pervades and rejoices with all divinities of the world with divine ecstasy.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात परमात्म्याच्या स्वातंत्र्याचे वर्णन केलेले आहे. ॥७॥

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