ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 98/ मन्त्र 5
ऋषिः - अम्बरीष ऋजिष्वा च
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
व॒यं ते॑ अ॒स्य वृ॑त्रह॒न्वसो॒ वस्व॑: पुरु॒स्पृह॑: । नि नेदि॑ष्ठतमा इ॒षः स्याम॑ सु॒म्नस्या॑ध्रिगो ॥
स्वर सहित पद पाठव॒यम् । ते॒ । अ॒स्य । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । वसो॒ इति॑ । वस्वः॑ । पु॒रु॒ऽस्पृहः॑ । नि । नेदि॑ष्ठऽतमाः । इ॒षः । स्याम॑ । सु॒म्नस्य॑ । अ॒ध्रि॒गो॒ इत्य॑ध्रिऽगो ॥
स्वर रहित मन्त्र
वयं ते अस्य वृत्रहन्वसो वस्व: पुरुस्पृह: । नि नेदिष्ठतमा इषः स्याम सुम्नस्याध्रिगो ॥
स्वर रहित पद पाठवयम् । ते । अस्य । वृत्रऽहन् । वसो इति । वस्वः । पुरुऽस्पृहः । नि । नेदिष्ठऽतमाः । इषः । स्याम । सुम्नस्य । अध्रिगो इत्यध्रिऽगो ॥ ९.९८.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 98; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वृत्रहन्) हे अविद्यान्तकपरमात्मन् ! (वयं) वयं सर्वे (अस्य, ते) तव वशे (स्याम) भवेम (वसो) हे सर्वाश्रय ! (वस्वः) सर्वविधैश्वर्याधिपो भवान् (पुरुस्पृहः) अनेकजनकाम्यः (नि नेदिष्ठतमाः) सर्वसन्निकटवर्ती च (अध्रिगो) हे ज्ञानगमनपरमात्मन् ! भवान् (इषः) ऐश्वर्यस्य (सुम्नस्य) सुखस्य च भोक्तास्ति ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वृत्रहन्) हे अविद्याविनाशक परमात्मन् ! “यदवृणोत्तद् वृत्रमज्ञानम्” नि.। २। १९। (वयम्) हम (अस्यते) आपके (स्याम) वशवर्त्ती हों (वसो) हे सर्वाधार परमात्मन् ! (वस्वः) आप सब प्रकार के ऐश्वर्य्यों के स्वामी हैं, (पुरुस्पृहः) सबके उपास्य देव हैं, (नि नेदिष्ठतमाः) आप सर्वान्तर्यामी हैं, (अध्रिगो) हे ज्ञानगमन परमात्मन् ! आप (इषः) ऐश्वर्य्यों के और (सुम्नस्य) सुख के भोक्ता हो ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा की उपासना द्वारा मनुष्य अविद्या का नाश करके विद्या का प्रकाश करता है ॥५॥
विषय
उसके कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (वृत्रहन्) विघ्नों के नाशक ! हे धनों के प्राप्त करानेहारे ! हे (वसो) सब में बसने और बसाने वाले ! (वयम्) हम (ते) तेरे (पुरु-स्पृहः वस्वः) बहुतों से चाहने योग्य धन और (इषः सुम्नस्य) अन्न और सुख के भी (नेदिष्टतमाः) अति समीपतम (नि स्याम) नित्य होवें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अम्बरीष ऋजिष्वा च ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २, ४, ७, १० अनुष्टुप्। ३, ४, ९ निचृदनुष्टुप्॥ ६, १२ विराडनुष्टुप्। ८ आर्ची स्वराडनुष्टुप्। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
वसु + इष्+सुम्न
पदार्थ
हे (वृत्रहन्) = वासनाओं को विनष्ट करनेवाले वसो हमारे जीवन को उत्तम निवास वाला बनानेवाले प्रभो ! (वयम्) = हम (ते) = आपके (अस्य) = इस (पुरुस्पृहः) = बहुतों से स्पृहणीय, खूब ही स्पृहणीय (वस्वः) = सोमरूप धन के जीवन के उत्तम निवास के कारणभूत सोम के (नि नेदिष्ठतमा:) = निश्चय से अधिकतम हों, समीपता से इसे प्राप्त करनेवाले स्याम हों । हे (अध्रिगो) = अधृतगमन प्रभो ! जिन आपकी व्यवस्था में कोई रुकावट नहीं उत्पन्न कर सकता उन आपकी (इषः) = प्रेरणा के हम नेदिष्ठतम हों। आपकी प्रेरणा को हम सुननेवाले हों। तथा (सुम्नस्य) = आपके स्तवन व आनन्द के हम समीप हों आपका स्तवन करें और आनन्द का अनुभव करें।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु कृपा से हमारा जीवन वासना शून्य होकर सोम धन का रक्षण करे। हम प्रभु प्रेरणा को सुननेवाले बनें और अद्भुत आनन्द को प्राप्त करें।
इंग्लिश (1)
Meaning
O spirit of instant mantra movement, lord of world’s wealth and shelter home of life, destroyer of evil, darkness and ignorance, let us be closest to you and the all desired world’s wealth, let us be closest to your treasure of food, energy, and knowledge and to your divine peace and comfort.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्या उपासनेद्वारे मनुष्य अविद्येचा नाश करून विद्येचा प्रकाश करतो. ॥५॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal