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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 98 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 98/ मन्त्र 8
    ऋषिः - अम्बरीष ऋजिष्वा च देवता - पवमानः सोमः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अ॒स्य वो॒ ह्यव॑सा॒ पान्तो॑ दक्ष॒साध॑नम् । यः सू॒रिषु॒ श्रवो॑ बृ॒हद्द॒धे स्व१॒॑र्ण ह॑र्य॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्य । वः॒ । हि । अव॑सा । पान्तः॑ । द॒क्ष॒ऽसाध॑नम् । यः । सू॒रिषु॑ । श्रव॑ह् । बृ॒हत् । द॒धे । स्वः॑ । न । ह॒र्य॒तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्य वो ह्यवसा पान्तो दक्षसाधनम् । यः सूरिषु श्रवो बृहद्दधे स्व१र्ण हर्यतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्य । वः । हि । अवसा । पान्तः । दक्षऽसाधनम् । यः । सूरिषु । श्रवह् । बृहत् । दधे । स्वः । न । हर्यतः ॥ ९.९८.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 98; मन्त्र » 8
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यः सूरिषु) यश्च परमात्मा कर्मयोगिषु (बृहत्) महत् (श्रवः) ऐश्वर्यं (दधे) धारयति (अस्य, अवसा) अस्य परमात्मनो रक्षया (वः) यूयम् (पान्तः) आनन्दपानं कुरुत य आनन्दः (दक्षसाधनं) सर्वविधचातुर्यमूलं (स्वः, न) सूर्यस्य इव (हर्यतः) अज्ञाननाशकस्य परमात्मनो निसर्गगुणश्च ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यः) जो परमात्मा (सूरिषु) कर्मयोगियों में (बृहत्) बड़े (श्रवः) ऐश्वर्य्य को (दधे) धारण करता है (हि) क्योंकि (अस्य) उक्त परमात्मा की (अवसा) रक्षा द्वारा (वः) आप लोग (पान्तः) उसके आनन्द का पान करें, जो आनन्द (दक्षसाधनम्) सब प्रकार के चातुर्य्यों का मूल है और (स्वः) सूर्य के (न) समान (हर्यतः) अज्ञान के नाशक परमात्मा का स्वभावभूत गुण है ॥८॥

    भावार्थ

    उस परमात्मा के सर्वोत्तम स्वादुमय आनन्द को कर्मयोगी ही पा सकते हैं, अन्य नहीं ॥८॥

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    विषय

    पांचों प्रजाओं से उसका अभिषेक।

    भावार्थ

    आप लोग (अस्य) इसके ही (अवसा) बल, ज्ञान और प्रेम से (वः) अपने (दक्ष-साधनम्) बल को बढ़ाने वाले बल का (पान्तः) पालन करते रहे हो। (यः) जो (हर्यतः न) सूर्यवत् तेजस्वी होकर (स्वः नः) प्रकाश के तुल्य (श्रवः बृहत्) बड़ा यश, धन और ज्ञान (सूरिषु) विद्वानों को (दुधे) धारण कराता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अम्बरीष ऋजिष्वा च ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २, ४, ७, १० अनुष्टुप्। ३, ४, ९ निचृदनुष्टुप्॥ ६, १२ विराडनुष्टुप्। ८ आर्ची स्वराडनुष्टुप्। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    दक्ष + श्रवः [बल+ज्ञान]

    पदार्थ

    प्रभु कहते हैं कि (वः) = तुम अस्य अवसा हि इस सोम के रक्षण से ही (दक्षसाधनम्) = बल व उन्नति के साधनभूत रस का (पान्तः) = रक्षण करते हुए होवो। उस सोम के रक्षण से तुम बल व उन्नति का साधन करो (यः) = जो सोम (सूरिषु) = ज्ञानी स्तोताओं में (बृहत् श्रवः) = उत्कृष्ट ज्ञान को (दधे) = स्थापित करता है, ज्ञानाग्नि को दीप्त करके ज्ञान के उत्कर्ष का कारण बनता है । और (स्वः न) = सूर्य की तरह (हर्यतः कान्त) = चमकता हुआ अथवा सूर्य की तरह सब से स्पृहणीय है, चाहने योग्य है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से बल की वृद्धि होती है, उत्कृष्ट ज्ञान प्राप्त होता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    This spirit of beauty and perfection, sublime like the sun, by virtue of its own innate potential which vests all great ones with their mighty power and honour, that spirit you all adore for protection and perfection of your life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    त्या परमात्म्याच्या सर्वोत्तम स्वादुमय आनंदाला कर्मयोगीच प्राप्त करू शकतात, इतर नाही. ॥८॥

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