ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 98/ मन्त्र 2
ऋषिः - अम्बरीष ऋजिष्वा च
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
परि॒ ष्य सु॑वा॒नो अ॒व्ययं॒ रथे॒ न वर्मा॑व्यत । इन्दु॑र॒भि द्रुणा॑ हि॒तो हि॑या॒नो धारा॑भिरक्षाः ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । स्यः । सु॒वा॒नः । अ॒व्यय॑म् । रथे॑ । न । वर्म॑ । अ॒व्य॒त॒ । इन्दुः॑ । अ॒भि । द्रूणा॑ । हि॒तः । हि॒या॒नः । धारा॑भिः । अ॒क्षा॒रिति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि ष्य सुवानो अव्ययं रथे न वर्माव्यत । इन्दुरभि द्रुणा हितो हियानो धाराभिरक्षाः ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । स्यः । सुवानः । अव्ययम् । रथे । न । वर्म । अव्यत । इन्दुः । अभि । द्रूणा । हितः । हियानः । धाराभिः । अक्षारिति ॥ ९.९८.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 98; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(स्यः) सः (सुवानः) सर्वोत्पादकः परमात्मा (अव्ययं) सुरक्षितजनं (धाराभिः) स्वकृपावृष्ट्या (अक्षाः) रक्षति (न) यथा (रथे) कर्मयोगवर्तिपुरुषं (वर्म, परि, अव्यत) कर्मयोगो रक्षति (इन्दुः) प्रकाशस्वरूपः सः (अभि द्रुणा) उपासनया युक्तः (हियानः) ज्ञानस्वरूपः (हितः) अन्तःकरणे प्रवेशितः मनुष्यबुद्धिं रक्षति ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(स्यः) वह पूर्वोक्त (सुवानः) सर्वोत्पादक परमात्मा (अव्ययम्) रक्षायुक्त पुरुष को (धाराभिः) अपनी कृपामयी वृष्टि से (अक्षाः) रक्षा करता है, (न) जैसे कि, (रथे) कर्मयोग में स्थित विद्वान् को (वर्म) कर्मयोग (पर्य्यव्यत) सब ओर से रक्षा करता है। (इन्दुः) वह प्रकाशस्वरूप परमात्मा (अभिद्रुणा) उपासना किया हुआ और (हियानः) ज्ञानस्वरूप (हितः) साक्षात्कार किया हुआ मनुष्य की बुद्धि की रक्षा करता है ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा का साक्षात्कार मनुष्य को सर्वथा सुरक्षित करता है ॥२॥
विषय
अभिषिक्त शासक के कर्त्तव्य। राजा के कवचवत् रक्षण कार्य।
भावार्थ
जिस प्रकार योद्धा (रथे वर्म न) रथ पर बैठ कर कवच को धारण करता है उसी प्रकार तू (स्यः) वह (सुवानः) अभिषेक प्राप्त करता हुआ (अव्ययं) रक्षक के योग्य (वर्म) सर्व रक्षक पद (परि अव्यत) प्राप्त कर। तू (इन्दुः) तेजस्वी होकर (द्रुणा) द्रुत गति से जाने वाले अश्व वा रथ से (हियानः) जाता हुआ (हितः) पद पर स्थिर होकर (धाराभिः) धाराओं से मेघ के तुल्य, (धाराभिः) अपनी ज्ञान वाणियों से (अभि अक्षाः) सब ओर व्याप। सर्वत्र अधिकार कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अम्बरीष ऋजिष्वा च ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २, ४, ७, १० अनुष्टुप्। ३, ४, ९ निचृदनुष्टुप्॥ ६, १२ विराडनुष्टुप्। ८ आर्ची स्वराडनुष्टुप्। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'कवच के समान' यह सोम
पदार्थ
(स्यः) = वह (सुवानः) = उत्पन्न किया जाता हुआ सोम (रथे) = इस शरीर रथ में (अव्ययम्) = न नष्ट होनेवाले (वर्म न) = कवच के समान (परि अव्यत) = आच्छादित किया जाता है। कवच के समान यह रक्षक होता है। कवच के धारण किये हुए योद्धा शत्रु शरों से शीर्ण शरीर नहीं किया जाता, इसी प्रकार सोमरूपी कवच को धारण करनेवाला रोग आदि से आक्रान्त नहीं होता। (इन्दुः) = यह सोम द्रुणा-'द्रुगतौ' क्रियाशीलता के द्वारा (अभिहितः) = शरीर में ही स्थापित हुआ हुआ (हियानः) = शरीर के अन्दर ही प्रेरित किया जाता हुआ (धाराभिः अक्षः) = अपनी धारण शक्तियों के साथ शरीर में संचरित होता है [क्षरति] क्रिया में लगे रहना ही वासनाओं से अनाक्रान्ति का साधन है, और इस प्रकार यह क्रियाशीलता सोमरक्षण का साधन हो जाती है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरूपी कवच को धारण करनेवाले को शत्रुओं के बाण भेद सकते हैं ।
इंग्लिश (1)
Meaning
May that Soma, brilliant spirit of peace, power and purity of divinity, invoked and inspired to bless the pious heart, flow by streams and showers, inspiring and fertilizing, and reach the imperishable soul of the devotee and protect him like the armour protecting the warrior in the chariot.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराचा साक्षात्कार माणसाला सर्वस्वी सुरक्षित ठेवतो. ॥२॥
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