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यजुर्वेद अध्याय - 26

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  • यजुर्वेद - अध्याय 26/ मन्त्र 16
    ऋषिः - महीयव ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
    2

    उ॒च्चा ते॑ जा॒तमन्ध॑सो दि॒वि सद्भूम्याद॑दे। उ॒ग्रꣳशर्म॒ महि॒ श्रवः॑॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒च्चा। ते॒। जा॒तम्। अन्ध॑सः। दि॒वि। सत्। भूमि॑। आ। द॒दे॒। उ॒ग्रम्। शर्म॑। महि॑। श्रवः॑ ॥१६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उच्चा ते जातमन्धसो दिवि सद्भूम्या ददे । उग्रँ शर्म महि श्रवः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उच्चा। ते। जातम्। अन्धसः। दिवि। सत्। भूमि। आ। ददे। उग्रम्। शर्म। महि। श्रवः॥१६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 26; मन्त्र » 16
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे विद्वन्नहं ते यदुच्चाऽन्धसो जातं दिवि सदुग्रं महि श्रवः शर्माददे तद्भूमीव भवतु॥१६॥

    पदार्थः

    (उच्चा) उच्चम् (ते) तव (जातम्) निष्पन्नम् (अन्धसः) अन्नात् (दिवि) प्रकाशे (सत्) वर्त्तमानम् (भूमि) अत्र ‘सुपां सुलुक्’ [अ॰७.१.३९] इति विभक्तेर्लुक्। (आ, ददे) गृह्णामि (उग्रम्) उत्कृष्टम् (शर्म) गृहम् (महि) महत् (श्रवः) प्रशंसनीयम्॥१६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्वद्भिर्मनुष्यैः सूर्यकिरणवायुमन्त्यन्नादियुक्तानि महान्त्युच्चानि गृहाणि रचयित्वा तत्र निवासेन सुखं भोक्तव्यम्॥१६।

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे विद्वन्! मैं (ते) आप के जिस (उच्चा) ऊंचे (अन्धसः) अन्न से (जातम्) प्रसिद्ध हुए (दिवि) प्रकाश में (सत्) वर्त्तमान (उग्रम्) उत्तम (महि) बड़े (श्रवः) प्रशंसा के योग्य (शर्म) घर को (आ, ददे) अच्छे प्रकार ग्रहण करता हूँ, वह (भूमि) पृथिवी के तुल्य दृढ़ हो॥१६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् मनुष्यों को चाहिये कि सूर्य का प्रकाश और वायु जिस में पहुंचा करे, ऐसे अन्नादि से युक्त बड़े ऊंचे घरों को बना के उन में बसने से सुख भोगें॥१६॥

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    विषय

    उत्तम विद्वानों, नायकों और शासकों से भिन्न-भिन्न कार्यों की कामना ।

    भावार्थ

    तेरे हे (सोम) ऐश्वर्यसम्पन्न सूर्य के समान सबके प्रेरक राजन् ! (अन्धसः ते) अखिल विश्व को धारण करने वाले (ते) तेरा जो ( उच्चा दिवि) ऊंचे आकाश में ( सत् ) सत् शक्ति रूप वही ( उग्रम् ) बड़ा बल, ( शर्म ) सुखकारी शरण और ( महि श्रवः ) बड़ा ऐश्वर्यं ( जातम् ) प्रकट होता है उसको (भूमि आददे) भूमि स्वयं ग्रहण करती है, अथवा उसको मैं प्रजाजन (भूमि इव) सर्वोत्पादक सर्वाश्रय रूप से स्वीकार करता हूँ ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    [ १६ - १६ ] आमहीय ऋषिः । अग्निर्देवता । निचृद् गायत्री । षड्जः ॥

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    विषय

    सात्त्विक पदार्थों का सेवन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के 'वत्स' से ही प्रभु कहते हैं कि (ते) = तेरा (अन्धसः) = इस आध्यायनीय, सब दृष्टिकोण से ध्यान देने योग्य सोम से (उच्चा जातम्) = उत्कृष्ट विकास हुआ है, क्योंकि इसी की रक्षा से शरीर 'नीरोग' मन 'निर्मल' तथा बुद्धि 'तीव्र' बनती है। २. इस सोम की रक्षा का ही यह परिणाम है कि तू (दिवि) = सदा प्रकाशमयलोक में रहता हुआ (सत्) = उत्कृष्ट (भूमिः) = पार्थिव पदार्थों को ही (आददे) = ग्रहण करता है। तू भोजनों में सात्त्विक भोजनों का ही सेवन करता है। ३. इन सात्त्विक पदार्थों के सेवन से (उग्रम् शर्म) = उत्कृष्ट सुख को प्राप्त करता है तथा (महिश्रवः) = महनीय कीर्ति व धन को प्राप्त करनेवाला होता है। लौकिक सुखों से ऊपर उठा होने के कारण और उदात्त अपार्थिव सुखों में विचरण करने के कारण ही यह 'अमहीयु' की सन्तान 'आमहीयव' कहलाता है, यह मही- पृथिवी व पार्थिव भोगों को अपने से जोड़ना नहीं चाहता।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम जितना सोम का रक्षण करेंगे उतना ही उत्कृष्ट हमारा विकास होगा. प्रकाशमय जीवन बिताते हुए हम उत्तम सात्त्विक पार्थिव पदार्थों को ग्रहण करेंगे, परिणामत: हमें उदात्त सुख व महनीय कीर्ति व धन प्राप्त होगा।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विद्वान माणसांनी अशी उंच घरे बांधावीत की, ज्यात सूर्याचा प्रकाश व हवा खेळावी, तसेच अन्नाचा साठाही असावा. अशा घरात निवास केल्यास सुख प्राप्त होते.

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    विषय

    पुन्हा तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे विद्वान (राजपुरूष) मी (एक प्रजाजन) (ते) आपण (राजातर्फे मला दिलेल्या) ज्या (उच्चा) उंच घरामधे राहतो वा ते घर ग्रहण करतो) ते घर (अन्धासः) अन्न-धान्याने परिपूर्ण आहे, (जातम्) स्वच्छ व दृढ निर्मित त्या घरात (दिवि) प्रकाश (सत्) आहे (उग्रम्) उत्तम (महि महान व (श्रवः) प्रशंसनीय ते (शर्म) मी (आ, ददे) आपल्याकडून ग्रहण करतो. ते घर (भूमि) भूमिप्रमाणे दृढ असावे (भूकंप आदी नैसर्गिक आपत्तीत अविचल असावे) ॥16॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. विद्वान वा अनुभवी शहाण्या माणसाचे कर्तव्य आहे मी अशा घरात वास्तव्य करावे की ज्या घरात सूर्याचा पुरेसा प्रकाश आहे, स्वच्छ वायू खेळतो आहे, जे घर अन्न-धान्याने भरलेले आहे आणि ज्याची उंची पुरेशी उंच आहे. अशी घरेंच सुखकर होतात. ॥16॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, I admire thy house, high in altitude, full of foodstuffs, well ventilated and airy, grand in sight and extremely commendable. May it be durable like the Earth.

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    Meaning

    Man of knowledge, up on high is your home in the light of heaven risen from holy food and soma juice, blazing, great and admirable. I watch it with reverence and pray it be as firm with the earth as it is in the light of heaven.

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    Translation

    High is the birth of this sap of life; though set in heaven, it has come down to the earth with strong sheltering power, renown and sustenance. (1)

    Notes

    Andhasaḥ, of this sap of life (Soma). Divi sad bhūmi ādade, though it was set in heaven, it came down to earth, or taken over the earth. Ugrain śarma, mahi śravaḥ, strong is its sheltering power and great is its renown.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে বিদ্বন্! আমি (তে) আপনার যে (উচ্চ) উচ্চ (অন্ধসঃ) অন্ন হইতে (জাতম্) জাত (দিবি) প্রকাশে (সৎ) বর্ত্তমান (উগ্রম্) উত্তম (মহি) মহৎ (শ্রবঃ) প্রশংসার যোগ্য (শর্ম) গৃহকে (আ, দদে) উত্তম প্রকার গ্রহণ করি উহা (ভূমি) পৃথিবীর তুল্য দৃঢ় হউক ॥ ১৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । বিদ্বান্ মনুষ্যদিগের উচিত যে, সূর্য্যের প্রকাশ এবং বায়ু যাহাতে প্রবিষ্ট হয় এইরূপ অন্নাদি দ্বারা যুক্ত বৃহৎ উচ্চ গৃহ নির্মাণ করিয়া তন্মধ্যে নিবাস করিয়া সুখ ভোগ করুক ॥ ১৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    উ॒চ্চা তে॑ জা॒তমন্ধ॑সো দি॒বি সদ্ভূম্যা দ॑দে ।
    উ॒গ্রꣳশর্ম॒ মহি॒ শ্রবঃ॑ ॥ ১৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    উচ্চেত্যস্য মহীয়ব ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদ্ গায়ত্রী ছন্দঃ ।
    ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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