यजुर्वेद - अध्याय 26/ मन्त्र 23
ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः
देवता - विद्वान् देवता
छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
2
तवा॒यꣳ सोम॒स्त्वमेह्य॒र्वाङ् श॑श्वत्त॒मꣳ सु॒मना॑ऽअ॒स्य पा॑हि।अ॒स्मिन् य॒ज्ञे ब॒र्हिष्या नि॒षद्या॑ दधि॒ष्वेमं ज॒ठर॒ऽइन्दु॑मिन्द्र॥२३॥
स्वर सहित पद पाठतव॑। अ॒यम्। सोमः॑। त्वम्। आ। इ॒हि॒। अ॒र्वाङ्। श॒श्व॒त्त॒ममिति॑ शश्वत्ऽत॒मम्। सु॒मना॒ इति॑ सु॒ऽमनाः॑। अ॒स्य। पा॒हि॒। अ॒स्मिन्। य॒ज्ञे। ब॒र्हिषि॑। आ। नि॒षद्य॑। नि॒सद्येति॑ नि॒ऽसद्य॑। द॒धि॒ष्व। इ॒मम्। ज॒ठरे॑। इन्दु॑म्। इ॒न्द्र॒ ॥२३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तवायँ सोमस्त्वमेह्यर्वाङ्छश्वत्तमँ सुमनाऽअस्य पाहि । अस्मिन्यज्ञे बर्हिष्या निषद्या दधिष्वेमञ्जठर इन्दुमिन्द्र ॥
स्वर रहित पद पाठ
तव। अयम्। सोमः। त्वम्। आ। इहि। अर्वाङ्। शश्वत्तममिति शश्वत्ऽतमम्। सुमना इति सुऽमनाः। अस्य। पाहि। अस्मिन्। यज्ञे। बर्हिषि। आ। निषद्य। निसद्येति निऽसद्य। दधिष्व। इमम्। जठरे। इन्दुम्। इन्द्र॥२३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे इन्द्र विद्वन्! यस्तवायं सोमोऽस्ति तं त्वमेहि सुमना अर्वाङ् सन्नस्य शश्वत्तमं पाहि। अस्मिन् बर्हिषि यज्ञे निषद्य जठर इममिन्दुं चादधिष्व॥२३॥
पदार्थः
(तव) (अयम्) (सोमः) ऐश्वर्ययोगः (त्वम्) (आ, इहि) समन्तात् प्राप्नुहि (अर्वाङ्) आभिमुख्यं प्राप्तः (शश्वत्तमम्) अतिशयेन शश्वदनादिभूतम् (सुमनाः) धर्मकार्ये प्रसन्नमनाः (अस्य) (पाहि) (अस्मिन्) (यज्ञे) संगन्तव्ये (बर्हिषि) उत्तमे साधुनि (आ) (निषद्य) नितरां स्थित्वा। अत्र ‘संहितायाम्’ [अ॰६.३.११४] इति दीर्घः। (दधिष्व) धर (इमम्) (जठरे) उदराग्नौ (इन्दुम्) रोगहरौषधिरसम् (इन्द्र) परमैश्वर्यमिच्छो॥२३॥
भावार्थः
विद्वांसः सर्वैः सहाभिमुख्यं प्राप्य प्रसन्नमनसः सन्तः सनातनं धर्मं विज्ञानञ्चोपदिशेयुः पथ्यमन्नादि सेवेरन् सदैव पुरुषार्थे प्रयतेरँश्च॥२३।
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्य की इच्छा वाले विद्वन्! जो (तव) आप का (अयम्) यह (सोमः) ऐश्वर्य का योग है, उस को (त्वम्) आप (आ, इहि) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये (सुमनाः) धर्म कार्य्यो में प्रसन्नचित्त (अर्वाङ्) सन्मुख प्राप्त हुए (अस्य) इस अपने आत्मा के (शश्वत्तमम्) अधिकतर अनादि धर्म की (पाहि) रक्षा कीजिये (अस्मिन्) इस (बर्हिषि) उत्तम (यज्ञे) प्राप्त होने योग्य व्यवहार में (निषद्य) निरन्तर स्थित हो के (जठरे) जाठराग्नि में (इमम्) इस प्रत्यक्ष (इन्दुम्) रोगनाशक ओषधियों के रस को (आ, दधिष्व) अच्छे प्रकार धारण कीजिये॥२३॥
भावार्थ
विद्वान् लोग सब के साथ सदा सन्मुखता को प्राप्त होके प्रसन्नचित्त हुए सनातन धर्म तथा विज्ञान का उपदेश किया करें, पथ्य अन्न आदि का भोजन करें और सदा पुरुषार्थ में प्रवृत्त रहें॥२३॥
विषय
उत्तम विद्वानों, नायकों और शासकों से भिन्न-भिन्न कार्यों की कामना ।
भावार्थ
हे राजन् ! (अयं सोमः ) यह ऐश्वर्ययुक्त राष्ट्र (तव ) तेरा है । ( त्वम् ) तू (सुमनाः) शुभ चित्त होकर (अस्य) इसके ( शश्वत् - तमम् ) सदा काल से चले आये ऐश्वर्य को ( अर्वाङ ) अपने अधीन (पाहि) पालन कर । (अस्मिन् यज्ञे ) इस महान् यज्ञ में, और इस (बर्हिषि) राज्यासन पर (आ निषद्य) विराज कर ( इमम् ) इस (इन्दुम् ) ऐश्वर्य- शील राष्ट्र को, हे (इन्द्र) ऐश्वर्य के इच्छुक ! (जठरे ) पेट में अन्न के समान (दधिष्व ) धारण कर ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विद्वान् । भुरिक् पंक्तिः । पंचमः ॥
विषय
नेष्टा की प्रेरणा
पदार्थ
१. गतमन्त्र की समाप्ति पर नेता की प्रेरणा के अनुसार चलने का संकेत है। नेता की सर्वमहान् प्रेरणा यह है कि (अयम् सोमः तव) = यह शरीर में उत्पन्न किया गया सोम तेरा है, अर्थात् यह तेरी सब प्रकार की उन्नतियों का साधन है। २. इसकी रक्षा के लिए (त्वम्) = तू (अर्वाङ्) = अपने अन्दर एहि आनेवाला बन। सामान्यतः इन्द्रियों की वृत्ति बहिर्मुखी होती है और यह बाहर भटकना मानव जीवन को भोगप्रवण बना देता है, अतः हम अन्तर्मुखी वृत्तिवाले बनें। जिधर-जिधर हमारा मन भटकने की करे, उधर-उधर से हम इस चञ्चल मन को रोकने के लिए यत्नशील हों। ३. (सुमनाः) = उत्तम मनवाला बनकर, मन को वासनाओं से शून्य करके तू (शश्वत्तमम्) = [सर्वकालम् ] सदा (अस्य पाहि) = इस सोम की रक्षा करनेवाला हो । हम तनिक प्रमाद में हुए कि वासनाओं का शिकार बन सोम का विनाश कर बैठेंगे, अतः सोमरक्षा के लिए सदा सावधान रहना अत्यावश्यक है। ४. (अस्मिन्यज्ञे) = इस यज्ञ में तथा (बर्हिषि) = वासनाशून्य हृदय में (आनिषद्य) = सदा स्थित होकर हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! तू (इमम् इन्दुम्) = इस सोम को (जठरे) = शरीर के मध्य में ही (दधिष्व) = धारण करनेवाला बन । 'सदा यज्ञों में लगे रहना तथा हृदय को वासनाशून्य बनाना' सोमरक्षा के लिए नितान्त आवश्यक हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सोम [वीर्य] ही हमारी सर्व उन्नतियों का साधन है। इसकी रक्षा के लिए को सदा आवश्यक है कि [क] हम अन्तर्मुखी वृत्ति बनाएँ [अर्वाङ् एहि], [ख] मन वासनाशून्य व निर्मल बनाए रक्खें, [ग] किसी क्षण प्रमाद में न चले जाएँ [ शश्वत्तमम्] [घ] सदा यज्ञादि उत्तम कर्मों में लगे रहें, [ङ] हम अपने हृदय को वासनाशून्य बनाने का ध्यान करें [बर्हिषि] ।
मराठी (2)
भावार्थ
विद्वान लोकांनी सर्वांसमोर प्रसन्नचित्त राहून सनातन् धर्म व विज्ञान यांचा उपदेश करावा. पथ्यकारक अन्नाचे भोजन करावे व सदैव पुरुषार्थ करावा.
विषय
पुनश्च, त्याच विषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्याची कामना करणारे विद्वान महोदय, (तव) आपला (अयम्) हा जो (सोमः) ऐश्वर्य प्राप्तीचा योग वा सामर्थ्य आहे, त्यात वा त्याद्वारे (त्वम्) आपण (आ, इहि) यशस्वी व्हा (ऐश्वर्य प्राप्त करा) (सुमनाः) धार्मिक कार्यात प्रसन्नमनाने रममाण यशस्वी व्हा (ऐश्वर्य प्राप्त करा) (सुमनाः) धार्मिक कार्यात प्रसन्नमनाने रममाण होणारे आपण (अर्वाङ्) समोर उपस्थित (अस्य) या स्व आत्म्याच्या (शश्वत्तमम्) अनादित्व विेयाचे (पाहि) रक्षण करा. (आत्म्याचे अनादि स्वरूप पूर्णपणे जाणून घ्या.) (अस्मिन्) या (बर्हिषि) उत्तम (यज्ञे) प्राप्तव्य व्यवहारामधे (निषध) निरंतर स्थिर राहून (आत्मस्वरूप ओळखणे हे सर्वश्रेष्ठ कार्य आहे आणि आपण तो शोध घ्या) (याच बरोबर प्रकृती उत्तम ठेवण्यासाठी) (जठर) पोटात (इमम्) या (इन्दुम्) रोगनाशक औषधींचा रसाचे (आ, दधिष्व) धारण करा (हा जठराग्नीप्रदीप्तक औषधरस प्या) ॥23॥
भावार्थ
भावार्थ - विद्वज्जनांचे कर्तव्य आहे की त्यांनी सदा सर्व लोकांपर्यंत स्वतः जावे आणि प्रसन्नचित्त होऊन त्यांना सनातन वैदिक धर्माचा आणि विज्ञानाचा उपदेश करावा, तसेच पथ्य आणि हितकर भोजन करीत नेहमी पुरूषार्थ-परिश्रमात प्रवृत्त असावे ॥23॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned person desirous of supremacy, secure well thy contact with power. In the performance of religious deeds, with a tranquil mind, protect this eternal soul of thine. Sitting steadfastly in this yajna, take into thy belly this efficacious medicinal juice.
Meaning
Indra, man of knowledge in search of honour and power, this soma is yours. Come straight on here and, happy at heart, protect, preserve and advance this eternal Dharma of joy in action. In this yajna, sit on the holy seats of blessed grass, take this nectar of life and light and hold it in your vital being.
Translation
O resplendent Self, this loving devotion is for you; hasten to approach it, and well-disposed, taste it unceasingly. May you be enshrined in our prayerful heart and accept our humble love in full. (1)
Notes
Barhişi, in the sacrifice. Also, on the grass-mats. Indum, 44, Soma-juice; or loving devotion.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে (ইন্দ্র) পরম ঐশ্বর্য্যের ইচ্ছাযুক্ত বিদ্বান্! (তব) আপনার (অয়ম) এই যে (সোমঃ) ঐশ্বর্য্যের যোগ, তাহাকে (ত্বম্) আপনি (আ, ইহি) উত্তম প্রকার প্রাপ্ত হউন (সুমনাঃ) ধর্ম্ম কার্য্যে প্রসন্নচিত্ত (অর্বাঙ্) সম্মুখ প্রাপ্ত (অস্য) এই স্বীয় আত্মার (শশ্বত্তমম্) অধিকতর অনাদি ধর্মের (পাহি) রক্ষা করুন (অস্মিন্) এই (বর্হিষি) উত্তম (য়জ্ঞে) প্রাপ্ত হওয়ার যোগ্য ব্যবহারে (নিষদ্য) নিরন্তর স্থিত হইয়া (জঠরে) উদরাগ্নিতে (ইমম্) এই প্রত্যক্ষ (ইন্দুম্) রোগনাশক ওষধিসকলের রসকে (আ, দধিষ্য) সম্যক্ প্রকার ধারণ করুন ॥ ২৩ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–বিদ্বান্গণ সকলের সঙ্গে সর্বদা সম্মুখবর্তিতা প্রাপ্ত হইয়া প্রসন্নচিত্তে সনাতন ধর্ম তথা বিজ্ঞানের উপদেশ করিতে থাকুন, পথ্যান্নাদি ভোজন করুন এবং সর্বদা পুরুষার্থে প্রবৃত্ত থাকুন ॥ ২৩ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
তবা॒য়ꣳ সোম॒স্ত্বমেহ্য॒র্বাঙ্ শ॑শ্বত্ত॒মꣳ সু॒মনা॑ऽঅ॒স্য পা॑হি ।
অ॒স্মিন্ য়॒জ্ঞে ব॒র্হিষ্যা নি॒ষদ্যা॑ দধি॒ষ্বেমং জ॒ঠর॒ऽইন্দু॑মিন্দ্র ॥ ২৩ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
তবায়মিত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । বিদ্বান্ দেবতা । ভুরিক্পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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