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यजुर्वेद अध्याय - 7

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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 11
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - ब्राह्मी उष्णिक्, स्वरः - ऋषभः
    3

    या वां॒ कशा॒ मधु॑म॒त्यश्वि॑ना सू॒नृता॑वती। तया॑ य॒ज्ञं मि॑मिक्षितम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्य॒श्विभ्यां॑ त्वै॒ष ते॒ योनि॒र्माध्वी॑भ्यां त्वा॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या। वा॒म्। कशा॑। मधु॑मतीति॒ मधु॑ऽमती। अश्वि॑ना। सू॒नृताव॒तीति॑ सू॒नृता॑ऽवती। तया॑। य॒ज्ञम्। मि॒मि॒क्ष॒त॒म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। अ॒श्विभ्या॒मि॒त्य॒श्विऽभ्या॑म्। त्वा॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। माध्वी॑भ्याम्। त्वा॒ ॥११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या वाङ्कशा मधुमत्याश्विना सूनृतावती । तया यज्ञम्मिमिक्षतम् । उपयामगृहीतो स्यश्विभ्यान्त्वैष ते योनिर्माध्वीभ्यान्त्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    या। वाम्। कशा। मधुमतीति मधुऽमती। अश्विना। सूनृतावतीति सूनृताऽवती। तया। यज्ञम्। मिमिक्षतम्। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। अश्विभ्यामित्यश्विऽभ्याम्। त्वा। एषः। ते। योनिः। माध्वीभ्याम्। त्वा॥११॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनरप्येतयोः कर्त्तव्यमुपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे अश्विनौ योगाध्येत्रध्यापकौ! या वां मधुमती सूनृतावती कशाऽस्ति, तया यज्ञं मिमिक्षतम्। हे योगमभीप्सो! त्वमुपयामगृहीतोऽसि, किं च ते तवैष योगो योनिरस्त्यतोऽश्विभ्यां सह वर्त्तमानं त्वाम्। हे योगाध्यापक! माध्वीभ्यां सह वर्त्तमानं च त्वां वयमुपाश्रयामः॥११॥

    पदार्थः

    (या) (वाम्) युवयोः (कशा) वाणी। कशेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰१।११) (मधुमती) प्रशस्तमाधुर्य्यगुणयुक्तेव। (अश्विना) सूर्य्यचन्द्रवत् प्रकाशमानौ (सूनृतावती) उषा इव (तया) (यज्ञम्) योगम् (मिमिक्षतम्) सेक्तुमिच्छतम् (उपयामगृहीतः) उपनियमैः स्वीकृतः (असि) (अश्विभ्याम्) प्राणापानाभ्याम् (त्वा) त्वाम् (एषः) (ते) तव (योनिः) गृहम् (माध्वीभ्याम्) सुनीतियोगरीतिभ्याम् (त्वा) त्वाम्॥ अयं मन्त्रः (शत॰४। १। ५। १७ तथा ४। १। ६। १-७॥) व्याख्यातः॥११॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। योगिनो मधुरवाचाध्येतॄन् प्रति योगमुपदिशेयुरात्मसर्वस्वं योगमेव मन्येरन्नितरे जनास्तादृशं योगिनं सर्वत्राऽऽश्रयेयुरिति॥११॥

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    सपदार्थान्वयः

    हे अश्विनौ सूर्यचन्द्रवत् प्रकाशमानौ योगाध्येत्रध्यापकौ! या वां युवयोः मधुमती प्रशस्तमाधुर्यगुणयुक्तेव सूनृतावती उषा इव कशा वाणी अस्ति, तथा यज्ञं योगं मिमिक्षतं सेक्तुमिच्छतम्। हे योगमभीप्सो! त्वमुपयामगृहीतः उपनियमैः स्वीकृतः असि, किंच ते=तवैष योगो योनिः गृहम् अस्ति, अतोऽश्विभ्यां प्राणापानाभ्यां सह वर्त्तमानं [त्वा]=त्वाम्, हे योगाध्यापक ! माध्वीभ्यां सुनीतियोगरीतिभ्यां सह वर्त्तमानं च [त्वा]=त्वांवयमुपाश्रयामः ॥ ७ । ११॥ [हे अश्विनौ=योगाध्येत्रध्यापकौ या वां मधुमती.........कशाऽस्ति तया यज्ञं मिमिक्षतम्]

    पदार्थः

    (या) (वाम्) युवयोः (कशा) वाणी। कशेति वाङ्नामसु पठितम् ।। निघं० १ । ११।। (मधुमती) प्रशस्तमाधुर्य्यगुणयुक्तेव। (अश्विना) सूर्यचन्द्रवत् प्रकाशमानौ (सूनृतावती) उषा इव (तया) (यज्ञम्) योगम् (मिमिक्षतम्) सेक्तुमिच्छतम् (उपयामगृहीतः) उपनियमैः स्वीकृतः (असि) (अश्विभ्याम्) प्राणापानाभ्याम् (त्वा) त्वाम् (एषः) (ते) तव (योनिः) गृहम् (माध्वीभ्याम्) सुनीतियोगरीतिभ्याम् (त्वा) त्वाम् ॥ अयं मंत्रः शत० ४ । १ । ५ । १७ तथा ४ । १।६।१–७।। व्याख्यातः ॥ ११॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः।। योगिनो मधुरवाचाध्येतृन् प्रतियोगमुपदिशेयुः। [ते=तवैष योगो योनिरस्ति] आत्मसर्वस्वं योगमेव मन्येरन् । [हे योगाध्यापक! माध्वीभ्यां सह वर्तमानं च [त्वा]=त्वां वयमुपाश्रयाम:] इतरे जनास्तादृशं योगिनं सर्वत्राऽऽश्रयेयुरिति ॥ ७ । ११ ॥

    विशेषः

    मेधातिथि:। अश्विनौ=योगाध्येत्रध्यापकौ॥ ब्राह्मी उष्णिक्। ऋषभः।।

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी इन योगविद्या पढ़ने-पढ़ाने वालों के करने योग्य काम का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (अश्विना) सूर्य्य और चन्द्र के तुल्य प्रकाशित योग के पढ़ने-पढ़ाने वालो! (या) जो (वाम्) तुम्हारी (मधुमती) प्रशंसनीय मधुरगुणयुक्त (सूनृतावती) प्रभात समय में क्रम-क्रम से प्रदीप्त होने वाली उषा के समान (कशा) वाणी है, (तया) उससे (यज्ञम्) ईश्वर से संग कराने हारे योगरूपी यज्ञ को (मिमिक्षतम्) सिद्ध करना चाहो। हे योग पढ़ने वाले! तू (उपयामगृहीतः) यम-नियमादिकों से स्वीकार किया गया (असि) है, (ते) तेरा (एषः) यह योग (योनिः) घर के समान सुखदायक है, इससे (अश्विभ्याम्) प्राण और अपान के योगोचित नियमों के साथ वर्त्तमान (त्वा) तुझ और हे योगाध्यापक! (माध्वीभ्याम्) माधुर्य्य लिये जो श्रेष्ठ नीति और योगरीति हैं, उनके साथ वर्त्तमान (त्वा) आप का हम लोग आश्रय करते हैं अर्थात् समीपस्थ होते हैं॥११॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। योगी लोग मधुर प्यारी वाणी से योग सीखने वालों को उपदेश करें और अपना सर्वस्व योग ही को जानें तथा अन्य मनुष्य वैसे योगी का सदा आश्रय किया करें॥११॥

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    विषय

    माधुर्यमयी वाणी

    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्र में ‘मित्रावरुणौ’ का प्रकरण था—‘सबके साथ स्नेह करनेवाले, द्वेष न करनेवाले’। उन्हीं से कहते हैं कि ( या ) = जो ( वाम् ) = आप दोनों ( अश्विना ) = पति-पत्नी की ( मधुमती ) = माधुर्यवाली तथा ( सूनृता-वती ) = उत्तमता से दुःखों का परिहाण करनेवाली ऋत, अर्थात् सत्य ( कशा ) = वाणी है ( तया ) = उससे ( यज्ञम् ) = यज्ञ को ( मिमिक्षतम् ) = खूब सिक्त कर दो। आपका जीवन यज्ञमय हो। यज्ञ के लिए ही आपका संयोग हुआ है। वह यज्ञ बड़ी मधुर वाणी को लिये हुए हो। उस यज्ञ में मधुर शब्दों का ही प्रयोग हो। 

    २. हे सोम ! तू ( उपयामगृहीतः असि ) = प्रभु के समीप निवास द्वारा धारण किये गये यम-नियम से धारण किया जाता है, अर्थात् तेरी रक्षा के लिए यम-नियमों का पालन आवश्यक है। ( अश्विभ्यां त्वा ) = तुझे मैंने पति-पत्नी के लिए, अर्थात् उनके कार्यों को सुचारुरूपेण चलाने के लिए स्थापित किया है। 

    ३. ( एषः ते योनिः ) = यह शरीर ही तेरा घर है। इसी में तूने व्याप्त होकर रहना है। ( माध्वीभ्यां त्वा ) = तुझे मैंने शरीर में इसलिए स्थापित किया है कि पति-पत्नी दोनों का जीवन बड़े माधुर्य को लिये हुए हो। सुरक्षित सोम जीवन में माधुर्य को उत्पन्न करने का कारण बनता है। ‘अश्विना’ शब्द प्राणापान के लिए भी प्रयुक्त होता है। तब अर्थ होगा कि यह सोम प्राणापान की शक्ति की वृद्धि के लिए स्थापित हुआ है और प्राणापान की शक्ति की वृद्धि के द्वारा यह माधुर्य को जन्म देने के लिए है। वस्तुतः ‘मेधातिथि’ = [ मेधया अतति ] समझदार वही है जो सोमरक्षा द्वारा प्राणापान की शक्ति को बढ़ाता है और परिणामतः अपने जीवन व वाणी को माधुर्यमय बनाता है।

     

    भावार्थ

    भावार्थ — हम सोमरक्षा द्वारा वाणी को मधुर बनाएँ। हमारे यज्ञ मधुर वाणी से सम्पन्न हों।

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    विषय

    सूर्य चन्द्र के समान राजा और प्रजा के परस्पर प्रेम युक्त व्यवहार।

    भावार्थ

    हे ( अश्विना ) हे सूर्य और चन्द्र या सूर्य और पृथिवी के समान परस्पर नित्य मिले हुए राजा और प्रजाजनो ! या स्त्री पुरुषो ! ( या ) जो ( वाम् ) तुम दोनों वर्गों की ( मधुमती ) मधुर, आनन्दप्रद, रस से युक् ( सूनृतावती ) उत्तम सत्य ज्ञान से पूर्ण ( कशा ) वाणी है ( तथा ) उससे यज्ञम् ) इस राष्ट्र रूप यज्ञ को ( मिमिक्षतम् ) सेचन करते रहो, उससे इसमें निरन्तर आनन्द को बृद्धि करते रहो। हे योग्य पुरुष ! राजन् ! (उपयाम- गृहीतः असि) देश के शासन द्वारा तू बद्ध है । (त्वा) तुझको (अश्विभ्याम्) देश के स्त्री और पुरुष दोनों की उन्नति के लिये नियुक्र करता हूं । ( एष ते योनिः ) तेरे लिये यही आश्रय है। (त्वा) तुझको (माध्वीभ्याम् ) मधु, उत्तम रस के प्रदान करने वाली, नीति और शक्ति दोनों के लिये प्रतिष्ठित करता हूं । 

    शिष्य अध्यापक के पक्ष में-- वे दोनों सूर्य चन्द्र के समान प्रकाशित हैं उनकी मधुमयी, ज्ञानमयी मधुरवाणी उनके ज्ञान यज्ञ को बढ़ावे । यही उनका आश्रय है । शत० ४ । १ । ५ । १५ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     मेधातिथिऋषिः । अश्विनौ देवते । ब्राह्मी उष्णिक । ऋषभः ॥ 

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    विषय

    फिर भी इन योगविद्या पढ़ने पढ़ाने वालों के करने योग्य काम का उपदेश किया है ।।

    भाषार्थ

    हे (अश्विनौ) सूर्य और चन्द्र के समान योगविद्या से प्रकाशमान योग के अध्येता और अध्यापक जनो ! जो (वाम्) तुम दोनों की (मधुमती) उत्तम मधुरगुण से युक्त (सुनृतावती) उषा के समान अन्धकार को दूर करने वाली (कशा) वाणी है, उससे (यज्ञम्) योग विद्या को (मिमिक्षतम्) बढ़ाने की कामना करो। हे योग के अध्येता ! तू (उपयामगृहीतः) यम-नियमों के पालन करने के कारण अपनाया गया है, और (ते) तेरा जो (एषः ) यह योग (योनिः) घर के समान सुखदायक है, इसलिये (अशिवभ्याम्) प्राण और अपान से युक्त [त्वा] तुझको, तथा--हे योग के अध्यापक ! (माध्वीभ्याम्) उत्तम आचरण और योगरीति से युक्त [त्वा] तुझ को हम लोग अपना आश्रय मानते हैं ॥ ७ । ११ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार है।।योगी लोग मधुर वाणी से शिष्यों को योग का उपदेश करें । वे योग को ही अपना सर्वस्व समझें । दूसरे लोग ऐसे योगी का सर्वत्र सङ्ग करें ।। ७ । ११ ।।

    प्रमाणार्थ

    'कशा' यह शब्द निघं ० ( १ । ११) में वाणी-नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४।१।५।१७ तथा ४ । १।६। १-७) में की गई है ।। ७ । ११ ।।

    भाष्यसार

    १. योग के अध्यापक और अध्येता का कर्त्तव्य--योग का अध्यापक योगविद्या का सूर्य है और योग का अध्येता शिष्य चन्द्र है। वह योगाध्यापक सूर्य से योगविद्या के प्रकाश को ग्रहण करता है। इस प्रकार दोनों सूर्य-चन्द्रमा के समान योग-विद्या से प्रकाशमान रहें और उषा के समान अन्धकार को दूर करने वाली मधुर वाणी से योगविद्या को सींचने (बढ़ाने) की कामना करें । अपने शिष्यों के लिये योग का उपदेश करें। और योग को ही अपना सर्वस्व समझें । सब लोग यम-नियमों का पालन करने वाले योगाभिलाषी पुरुष का सङ्ग करें। क्योंकि उसका जो योग है, वह घर के समान दुःख का निवारण करने वाला और सब सुखों का देने वाला है। तथा वह प्राण-अपान रूप योग विद्या से युक्त है। और जो योग का अध्यापक है, उसका भी सङ्ग करें क्योंकि वह भी उत्तम आचरण और योगरीति का ज्ञाता है। २. अलङ्कार -- इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार है। उपमा यह है कि योगाध्यापक सूर्य के समान योग विद्या से प्रकाशमान है तथा योगाध्येता शिष्य चन्द्र के समान है। जैसे चन्द्र सूर्य से प्रकाश ग्रहण करता है, इसी प्रकार योगाध्येता शिष्य योगाध्यापक रूप सूर्य से योगविद्या रूप प्रकाश ग्रहण करता है । दूसरी उपमा यह है कि योग के अध्यापक और अध्येता की वाणी उषा के समान है। जैसे उषा अन्धकार का विनाश करके प्रकाश का विस्तार करती है वैसे उनकी वाणी भी अविद्या अन्धकार का विनाश करके योगविद्या रूप प्रकाश का विस्तार करती है ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. योग्यांनी मधुरप्रिय वाणीने, योगाभ्यासींना, जनांना उपदेश करावा व योग हे आपले सर्वस्व आहे हे जाणावे तसेच इतरांनीही अशा योग्यांचा सदैव आश्रय घ्यावा.

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    विषय

    पुनश्च, पुढील मंत्रात योगाध्यापक आणि योगसाधक शिष्य यांच्या उपदेश केला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (अश्विनौ) सूर्य आणि चंद्राच्या प्रकाशासारखे ज्योतिमान योगाध्यापक व योगसाधक जनहो, (वाय्) तुमची (या) जी (मधुमती) मधुरगुणमयी स्तुत्य वाणी आहे, तसेच जी (सूनृतावती) प्रभातसमयी हळू हळू वाढत जाणार्‍या उष: काळाप्रमाणे मोहित करणारी आहे त्या (कशा) (तया) वाणीद्वारे (यज्ञम्) तुम्ही ईश्वराशी नाते जोडणार्‍या (समाधी अवस्थेत ईश्वराचा अनुभव देणारा) योगरुप यज्ञाला (मिमिक्षतम्) सिद्ध करा (योगाद्वारे अनुभव प्राप्त करा) हे योग शिकवणार्‍या साधका, तुला (उपयामगृहीत:) अध्यापकाने यम-नियम आदी अष्टांग- साधनांनी स्वीकार केले (यम-नियमांचे शिक्षण दिले आहे) (अकि) आहे (ते) तुझा (एष:) हा योग (यानि:) एका सुखशांतिदायक घराप्रमाणे आहे. (अश्विभ्याम्) योगसाधने करिता प्राण आणि अपान यांचे नियमनाचे जे नियम आहेत, त्याद्वारे (त्या) तुला (शिष्याला) आणि हे योगाध्यापका, तुला (माध्वीभ्याम्) माधुर्यपूर्ण श्रेष्ठ नीतीचे ज्ञान व्हावे, योगसाधनेची रीती तुम्हा दोघांप्रमाणे आम्हालाही प्राप्त व्हावी, यासाठी आम्ही (सामान्यजन) तुमच्या आश्रयास येतो. योगज्ञान प्राप्तीसाठी तुमच्याजवळ स्थानग्रहण करतो ॥11॥

    भावार्थ

    missing

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O student and teacher of yoga, resplendent like the sun and the moon, desire to develop yoga by your sweet and dawn-like pleasant speech O student of yoga, thou hast been welcomed for thy noble traits. This yoga of yours is a house unto thee for comfort. We approach thee, well versed in yogic laws of the control of breath, and thy teacher, expert in the sweet practices and methods of yoga.

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    Meaning

    Teacher and seeker of yoga, bright as Ash wins (sun and moon), advance your yajna of yoga in the light of the divine voice of the Veda, so sweet, so true, so inspiring. Seeker of yoga, sanctified in the discipline of Yama and niyama (social and personal ethics of purity), this yoga is your element, your very home of existence. Teacher and seeker, with your control over the vital energies of prana and apana, and for the sweetness and light of your spiritual awareness, we do reverence and homage to you.

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    Translation

    O you two vitals, with your honey-dripping, truthful and pleasing speech, make our sacrifice fruitful. (1) You have been duly accepted. You to both the vitals. This is your abode. You for the sake of honey-lovers. (2)

    Notes

    Madhumafi kasa, literarlly, honeyed whip. कशा इति वाड् नामसु पठितम् (Nigh. I. 11), the sweet speech. Madhvibhyam, मधु ब्राह्मणं यौ अधीयाते तौ माध्वौ to those two who study Brahmana scriptures; also, to those two who are fond of honey, the A$vins.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনরপ্যেতয়োঃ কর্ত্তব্যমুপদিশ্যতে ॥
    তবুও এই সব যোগবিদ্যা অধ্যয়ন ও অধ্যাপনকারীদিগের করণীয় কর্মের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (অশ্বিনৌ) সূর্য্য ও চন্দ্র তুল্য প্রকাশিত যোগ অধ্যয়ন ও অধ্যাপনাকারীগণ । (য়া) যে (বাম্) তোমাদিগের (মধুমতী) প্রসংসনীয় মধুরগুণযুক্ত (সুনৃতাবতী) প্রভাত সময়ে ক্রম-ক্রম পূর্বক প্রদীপ্ত হওয়া ঊষা সদৃশ (কশা) বাণী, (তয়া) উহার দ্বারা (য়জ্ঞম্) ঈশ্বরের সহিত সঙ্গ করাইবার যোগরূপী যজ্ঞকে (মিমিক্ষতম্) সিদ্ধ করিতে আকাঙ্ক্ষা কর । হে যোগ অধ্যয়নকারী । তুমি (উপয়ামগৃহীতঃ) যমনিয়মাদি দ্বারা স্বীকৃত (অসি) আছো, (তে) তোমার (এষঃ) এই যোগ (য়োনিঃ) গৃহতুল্য সুখদায়ী, ইহা (অশ্বিভ্যাম্) প্রাণ ও অপানের যোগোচিত নিয়মগুলি সহ বর্ত্তমান (ত্বা) তোমাকে এবং হে যোগাধ্যাপক ! (মাধ্বীভ্যাম্) মাধুর্য্য সহ যে শ্রেষ্ঠ নীতি ও যোগরীতি আছে তৎ সহ বর্ত্তমান (ত্বা) তোমার আমরা আশ্রয় করি অর্থাৎ সমীপস্থ হই ॥ ১১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । যোগীগণ মধুর প্রিয় বাণী দ্বারা যোগ শিক্ষা কারীদিগকে উপদেশ দিবেন এবং নিজের সর্বস্ব যোগকেই জানিবেন তথা অন্য মনুষ্যগণ সেইরূপ যোগীকে সর্বদা আশ্রয় করিতে থাকিবে ॥ ১১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়া বাং॒ কশা॒ মধু॑ম॒ত্যশ্বি॑না সূ॒নৃতা॑বতী । তয়া॑ য়॒জ্ঞং মি॑মিক্ষিতম্ ।
    উ॒প॒য়া॒মগৃ॑হীতোऽস্য॒শ্বিভ্যাং॑ ত্বৈ॒ষ তে॒ য়োনি॒র্মাধ্বী॑ভ্যাং ত্বা ॥ ১১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়া বাং কশেত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । অশ্বিনৌ দেবতে । ব্রাহ্মী উষ্ণিক্ ছন্দঃ । ঋষভঃ স্বরঃ ॥

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