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यजुर्वेद अध्याय - 7

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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 27
    ऋषिः - देवश्रवा ऋषिः देवता - यज्ञपतिर्देवता देवता छन्दः - आसुरी अनुष्टुप्,आसुरी उष्णिक्,साम्नी गायत्री,आसुरी गायत्री स्वरः - ऋषभः, षड्जः
    2

    प्रा॒णाय॑ मे वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्व व्या॒नाय॑ मे वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्वोदा॒नाय॑ मे वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्व वा॒चे मे॑ वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्व॒ क्रतू॒दक्षा॑भ्यां मे वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्व॒ श्रोत्रा॑य मे वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्व॒ चक्षु॑र्भ्यां मे वर्चो॒दसौ॒ वर्च॑से पवेथाम्॥२७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒णाय॑। मे॒। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। व्या॒नायेति॑ विऽआ॒नाय॑। मे॒। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। उ॒दा॒नायेत्यु॑त्ऽआ॒नाय॑। मे॒। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्च॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। वा॒चे। मे॒। व॒र्चो॒दा इति वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। क्रतू॒दक्षा॑भ्याम्। मे॒। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। श्रोत्रा॑य। मे॒। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। चक्षु॑र्भ्या॒मिति॒ चक्षुः॑ऽभ्याम्। मे॒। व॒र्चो॒दसा॒विति॑ वर्चः॒ऽदसौ॑। वर्च॑से। प॒वे॒था॒म् ॥२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राणाय मे वर्चादा वर्चसे पवस्व व्यानाय मे वर्चादा वर्चसे पवस्व उदानाय मे वर्चादा वर्चसे पवस्व वाचे मे वर्चादा वर्चसे पवस्व क्रतूदक्षाभ्याम्मे वर्चादा वर्चसे पवस्व श्रोत्राय मे वर्चादा वर्चसे पवस्व चक्षुर्भ्याम्मे वर्चादसौ वर्चसे पवेथाम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्राणाय। मे। वर्चोदा इति वर्चःऽदाः। वर्चसे। पवस्व। व्यानायेति विऽआनाय। मे। वर्चोदा इति वर्चःऽदाः। वर्चसे। पवस्व। उदानायेत्युत्ऽआनाय। मे। वर्चोदा इति वर्चऽदाः। वर्चसे। पवस्व। वाचे। मे। वर्चोदा इति वर्चःऽदाः। वर्चसे। पवस्व। क्रतूदक्षाभ्याम्। मे। वर्चोदा इति वर्चःऽदाः। वर्चसे। पवस्व। श्रोत्राय। मे। वर्चोदा इति वर्चःऽदाः। वर्चसे। पवस्व। चक्षुर्भ्यामिति चक्षुःऽभ्याम्। मे। वर्चोदसाविति वर्चःऽदसौ। वर्चसे। पवेथाम्॥२७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 27
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनरध्ययनाध्यापनाख्ययज्ञकर्त्तुर्विषयान्तरमाह॥

    अन्वयः

    हे वर्चोदा अध्येतरध्यापक! त्वं मम प्राणाय वर्चसे पवस्व, हे वर्चोदा! मम व्यानाय वर्चसे पवस्व, हे वर्चोदा! मे ममोदनाय वर्चसे पवस्व, हे वर्चोदा मे मम वाचे वर्चसे पवस्व, हे वर्चोदसौ युवां मे मम चक्षुर्भ्यां वर्चसे पवेथाम्॥२७॥

    पदार्थः

    (प्राणाय) प्राणति जीवयतीति प्राणो हृदयस्थो वायुस्तस्मै (मे) मम (वर्चोदाः) यथायोग्यं ददाति, तत्संबुद्धौ (वर्चसे) विद्याप्रकाशाय (पवस्व) पवित्रतया प्राप्नुहि (व्यानाय) सर्वशरीरगतवायवे (मे) मम (वर्चोदाः) दीप्तिप्रदो जाठराग्निरिव (वर्चसे) अन्नाय। वर्च इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं॰२।७) (पवस्व) (उदानाय) (मे) मम (वर्चोदाः) वर्चो विद्याबलं ददातीति (वर्चसे) पराक्रमाय (पवस्व) (वाचे) वाण्यै (मे) मम (वर्चोदाः) सत्यवक्तृत्वप्रदः (वर्चसे) प्रागल्भ्याय (पवस्व) प्रवर्त्तस्व (क्रतूदक्षाभ्याम्) प्रज्ञाबलाभ्याम् (मे) मम (वर्चोदाः) विज्ञानप्रदः (वर्चेसे) शब्दार्थसम्बन्धविज्ञानाय (पवस्व) उपदिश (श्रोत्राय) शब्दज्ञानाय (मे) मम (वर्चोदाः) तज्ज्ञानदः (वर्चसे) अध्ययनदीप्त्यै (पवस्व) प्रापको भव (चक्षुर्भ्याम्) (मे) मम (वर्चोदसौ) सूर्य्याचन्द्रमसाविवातिथ्यध्यापकौ (वर्चसे) शुद्धसिद्धान्तप्रकाशाय (पवेथाम्) प्राप्नुतम्॥ अयं मन्त्रः (शत॰४। ५। ६। २) व्याख्यातः॥२७॥

    भावार्थः

    यो मनुष्यो विद्यावृद्धये पठनपाठनरूपं यज्ञं कर्म करोति, स सर्वपुष्टिसन्तुष्टिकरो भवत्यत एवं सर्वैरनुष्ठातव्यम्॥२७॥

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    विषयः

    पुनरध्ययनाध्यापनाख्ययज्ञकर्त्तुर्विषयान्तरमाह।।

    सपदार्थान्वयः

    हे वर्चोदाः यथायोग्यं ददाति तत सम्बुद्धौअध्येतरध्यापक! त्वं [मे]=मम प्राणाय प्राणिति जीवयतीति प्राणः= हृदयस्थो वायुस्तस्मै वर्चसे विद्याप्रकाशाय पवस्व पवित्रतया प्राप्नुहि। हे वर्चोदाः! दीप्तिप्रदो जाठराग्निरिव ! [मे] मम व्यानाय सर्वशरीरगतवायवे वर्चसे अन्नाय पवस्व। हे वर्चोदा: वर्चः=विद्याबलं ददातीति मे=ममोदानाय वर्चसे पराक्रमाय पवस्व। हे वर्चोदा: सत्यवक्तृत्वप्रद ! मे=मम वाचे वाण्यैवर्चसे प्रागल्भ्याय पवस्व प्रवर्त्तस्व। हे [वर्चोदा:] विज्ञानप्रद [मे] मम [क्रतूदक्षाभ्यां] प्रज्ञाबलाभ्यां [वर्चसे] शब्दार्थसम्बन्धविज्ञानाय [पवस्व] उपदिश। हे [वर्चोदाः] तज्ज्ञानदः [मे] मम [श्रोत्राय] शब्दज्ञानाय [वर्चसे] अध्ययनदीप्त्यै] [पवस्व] प्रापको भव। हे वर्चोदसौ ! सूर्य्याचन्द्रमसाविवातिथ्याध्यापकौयुवां मे मम चक्षुर्भ्यां वर्चसे शुद्धसिद्धान्तप्रकाशाय पवेथां प्राप्नुतम् ।। ७ । २७ ।। [हे वर्चोदाः! अध्येतरध्यापक! त्वं [मे]=मम प्राणाय वर्चसे पवस्व......]

    पदार्थः

    (प्राणाय) प्राणिति=जीवयतीति प्राणो=हृदयस्थो वायुस्तस्मै (मे) मम (वर्चोदा:) यथायोग्यं प्रकाशं ददाति, तत्संबुद्धौ (वर्चसे) विद्याप्रकाशाय (पवस्व) पवित्रतया प्राप्नुहि (व्यानाय) सर्वशरीरगतवायवे (मे) मम (वर्चोदाः) दीप्तिप्रदो जाठराग्निरिव (वर्चसे) अन्नाय। वर्च इत्यन्ननामसु पठितम् ॥ निघं० २ । ७ ॥ (पवस्व) (उदानाय) (मे) मम (वर्चोदाः) वर्चो=विद्याबलं ददाति पराक्रमाय (पवस्व) (वाचे) वाण्यै (मे) मम (वर्चोदाः) सत्यवक्तृत्वप्रदः (वर्चसे) प्रागल्भ्याय (पवस्व) प्रवर्त्तस्व (क्रतूदक्षाभ्याम्) प्रज्ञाबलाभ्याम् (मे) मम (वर्चोदा:) विज्ञानप्रदः (वर्चसे) शब्दार्थसंबन्धविज्ञानाय (पवस्व) उपदिश (श्रोत्राय) शब्दज्ञानाय (मे) मम (वर्चोदाः) तज्ज्ञानदः (वर्चसे) अध्ययनदीप्त्यै (पवस्व) प्रापको भव (चक्षुर्भ्याम्) (मे) मम (वर्चोदसौ) सूर्याचन्द्रमसाविवातिथ्यध्यापकौ (वर्चसे) शुद्धसिद्धांतप्रकाशाय (पवेथाम्) प्राप्नुतम् ॥ अयं मंत्रः शत० ४ । ५ । ६ । २ व्याख्यातः ॥ २७ ॥

    भावार्थः

    यो मनुष्यो विद्यावृद्धये पठनपाठनरूपं यज्ञं कर्म करोति, स सर्वपुष्टिसन्तुष्टिकरो भवत्यत एवं सर्वैरनुष्ठातव्यम् ।। ७ । २७ ।।

    विशेषः

    देवश्रवा । यज्ञपतिः=विद्यादाता गुरुः। प्राणायेत्यस्य व्यानायेत्यस्य चासुर्य्यनुष्टुप्, उदानायेत्यस्यासुर्य्युष्णिक्, वाचेम इत्यस्य साम्नी गायत्री, क्रतूदक्षाभ्यामित्यस्यासुरी गायत्री, श्रोत्रायमेद्रत्यस्यासुर्य्यनुष्टुप्, चक्षुर्भ्यामित्यस्य चासुर्य्युष्णिक् छन्दांसि। अनुष्टुभो गान्धारो गायत्र्याः षड्ज उष्णिज ऋषभश्च स्वरः।।

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर पठन-पाठन यज्ञ के करने वाले का विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (वर्चोदाः) यथायोग्य विद्या पढ़ने-पढ़ाने रूप यज्ञकर्म करने वाले! आप (मे) मेरे (प्राणाय) हृदयस्थ जीवन के हेतु प्राणवायु और (वर्चसे) वेदविद्या के प्रकाश के लिये (पवस्व) पवित्रता से वर्तें। हे (वर्चोदाः) ज्ञानदीप्ति के देने वाले जाठराग्नि के समान आप (मे) मेरे (व्यानाय) सब शरीर में रहने वाले पवन और (वर्चसे) अन्न आदि पदार्थों के लिये (पवस्व) पवित्रता से प्राप्त होवें। हे (वर्चोदाः) विद्याबल देने वाले! आप (मे) (उदानाय) श्वास से ऊपर को आने वाले उदान-संज्ञक पवन और (वर्चसे) पराक्रम के लिये (पवस्व) ज्ञान दीजिये। हे (वर्चोदाः) सत्य बोलने का उपदेश करने वाले आप (मे) मेरी (वाचे) वाणी और (वर्चसे) प्रगल्भता के लिये (पवस्व) प्रवृत्त हूजिये। (वर्चोदाः) विज्ञान देने वाले आप (मे) मेरे (क्रतूदक्षाभ्याम्) बुद्धि और आत्मबल की उन्नति और (वर्चसे) अच्छे बोध के लिये (पवस्व) शिक्षा कीजिये। हे (वर्चोदाः) शब्दज्ञान के देने वाले यज्ञपति! आप (मे) मेरे (श्रोत्राय) शब्द ग्रहण करने वाले कर्णेन्द्रिय के लिये (वर्चसे) शब्दों के अर्थ और सम्बन्ध का (पवस्व) उपदेश करें। हे (वर्चोदसौ) सूर्य्य और चन्द्रमा के समान अतिथि और पढ़ाने वाले आप दोनों (मे) मेरे (चक्षुर्भ्याम्) नेत्रों के लिये (वर्चसे) शुद्ध सिद्वान्त के प्रकाश को (पवेथाम्) प्राप्त हूजिये॥२७॥

    भावार्थ

    जो विद्या की वृद्धि के लिये पठन-पाठन रूप यज्ञकर्म्म करने वाला मनुष्य है, वह अपने यज्ञ के अनुष्ठान से सब की पुष्टि तथा सन्तोष करने वाला होता है, इससे ऐसा प्रयत्न सब मनुष्यों को करना उचित है॥२७॥

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    विषय

    वर्चस्

    पदार्थ

    पिछले मन्त्र के ‘देवानामुत्क्रमणमसि’ का ही व्याख्यान २७ व २८ मन्त्र में करते हैं। देवश्रवाः सोम को सम्बोधित करते हुए कहता है कि १. हे सोम! ( मे प्राणाय ) = मेरे प्राणों के लिए तू ( वर्चोदाः ) = वर्चस् देनेवाला है, अतः ( वर्चसे ) = प्राणशक्ति के लिए तू मुझे ( पवस्व ) =  प्राप्त हो। 

    २. ( मे व्यानाय ) = मेरी व्यानवायु के लिए तू ( वर्चोदाः ) = वर्चस् देनेवाला है। ( वर्चसे ) =  व्यान की शक्ति के लिए तू ( पवस्व ) = मुझे प्राप्त हो। व्यानवायु ही सारे शरीर में गति करती हुई सब संस्थानों के कार्यों को ठीक प्रकार से चलाती है। 

    ३. ( मे उदानाय ) = मेरे कण्ठदेश में काम करनेवाले उदानवायु के लिए तू ( वर्चोदाः ) = वर्चस् देनेवाला है। ( वर्चसे ) = उदान की शक्ति के लिए तू मुझे ( पवस्व ) = प्राप्त हो। 

    ४. ( मे वाचे ) = मेरी वाणी के लिए तू ( वर्चोदाः ) = वर्चस् देनेवाला है। ( वर्चसे ) = मेरी वाक्शक्ति के लिए तू ( पवस्व ) = मुझे प्राप्त हो। 

    ५. ( मे क्रतुदक्षाभ्याम् ) =  [ प्रज्ञाबलाभ्याम्—द० ] मेरी प्रज्ञा व मेरे बल के लिए ( वर्चोदाः ) = तू वर्चस् देनेवाला है। ( वर्चसे ) = मेरी प्रज्ञाशक्ति के लिए तथा शारीरिक शक्ति के लिए तू ( पवस्व ) = मुझे प्राप्त हो। 

    ६. ( मे श्रोत्राय ) = मेरे कान के लिए ( वर्चोदाः ) = तू शक्ति देनेवाला है। ( वर्चसे ) = श्रोत्रशक्ति के लिए तू ( पवस्व ) = मुझे प्राप्त हो। 

    ७. ( मे चक्षुर्भ्याम् ) = मेरी आँखों के लिए तुम ( वर्चोदसौ ) = शक्ति को देनेवाले हो। ( वर्चसे ) = दृष्टिशक्ति के लिए ( पवेथाम् ) = मुझे प्राप्त होओ अथवा पवित्र करो। यहाँ सारे मन्त्र में इस अन्तिम वाक्य में ही ‘वर्चोदसौ’ यह द्विवचन का प्रयोग है, क्योंकि ‘चक्षुषी चन्द्रसूर्यौ’ इस वाक्य के अनुसार आँखों में चन्द्र व सूर्यशक्ति का निवास है। इस शक्तिद्वय के कारण यहाँ द्विवचन है। सूर्य यदि ‘तेजस्’ का प्रतीक है तो चन्द्र ‘प्रसाद’ का। आँखों में तेजस्विता व प्रसाद दोनों ही होने चाहिएँ। इसी दृष्टिकोण से द्विवचन है।

    भावार्थ

    भावार्थ — सोम ‘प्राण-व्यान-उदान-वाणी-प्रज्ञा और बल-श्रोत्र व चक्षु’ को वर्चस् प्राप्त करानेवाला है।

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    विषय

    शरीर के अंगों और प्राणों से राज्यांगों की तुलना ।

    भावार्थ

     अब राजा अपने अधीन नियुक्त पुरुषों को अपने राष्ट्र रूप शरीर के अंग मान कर इस प्रकार कहता है । जिस प्रकार प्राण शरीर में मुख्य है, वह परम आत्मा से उतर कर है, उसी प्रकार आत्मा के समान राजा के समीप का पद ‘उपांशु' कहा है । है उपांशु ! उपराज ! हे सभाध्यक्ष ! तु. वर्चोदाः ) वर्चस, तेज का देने वाला है तू ( मे ) मेरे ( प्राणाय ) शरीर में प्राण के समान राष्ट्र में मुख्य कार्य के लिये ( पवस्व ) उद्योग कर ! हे (वर्चोदा:) मुझे बल देने वाले ! या बल की रक्षा करने वाले ! तू ( व्यानाय ) शरीर में व्यान के समान मेरे राष्ट्र में व्यापक प्रबन्ध के ( वर्चसे ) बल, तेज की वृद्धि के लिये ( पवस्व ) उद्योग कर | हे ( वर्चोदाः ) बल और अन्त नियन्त्रण के अधिकारी पुरुष ! ( मे उदानाय वर्चसे ) शरीर में उदान वायु समान, आक्रमणकारी बल की वृद्धि के लिये तू उद्योग कर। है ( वर्चोदाः ) ज्ञान रूप तेज के प्रदान करने हारे। उस वायु पद के अधिकारी विद्वान् पुरुष ! तू (मे वाचे वर्चसे ) शरीर में वाणी के समान वेदज्ञान रूप मेरे तेज की वृद्धि के लिये ( पवस्व ) उद्योग कर। हे ( वर्चोदाः ) तेज और बलप्रद मित्रावरुण पद के अधिकारी पुरुष ! तू ( क्रतुदक्षाभ्यां ) ज्ञान वृद्धि और बल वृद्धि और (वर्चसे ) तेज की वृद्धि के लिये ( पवस्व ) उद्योग कर । ( वर्चोदाः ) बलप्रद 'आश्विन पद के अधिकारी पुरुष ! तू मे ( श्रोत्राय वर्चसे ) शरीर में श्रोत्र के समान राष्ट्र में परस्पर एक दूसरे के दुःख सुख श्रवण करने रूप तेज की वृद्धि के लिये ( पवस्व ) उद्योग कर। हे ( वर्चो- दसौ ) तेज के देने हारे शुक्र और मन्थी पद के अधकारी पुरुषो ! तुम दोनों (चक्षुर्भ्याम् ) शरीर में आंखों के समान कार्य करने वाले अधिकारियों के ( वर्चसे ) बल वृद्धि करने के लिये (पवेथाम् ) उद्योग करो।
     

    टिप्पणी

    १ प्राणाय। २ व्यानाय। ३ दानाय। ४ वाचे। ५ क्रतूदक्षाभ्यां। ६ श्रोत्राय। ७ चक्षुर्भ्याम्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यज्ञपतिर्देवता । ( १, २)आसुर्यनुष्टुभौ । गान्धारः । ( ३ ) आसुर्यष्णिक् । 
    ऋषभः । ( ४ ) साम्नी गायत्री षड्जः । ( ५ ) आसुरी गायत्री । षड्जः । ( ६ ) आसुर्यनुष्टुप् । गान्धारः । ( ७ ) आसुर्युष्णिक् । ऋषभ: ॥ 

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    विषय

    फिर पठन-पाठन नामक यज्ञ करने वाले को विषयान्तर का उपदेश किया है ॥

    भाषार्थ

    हे (वर्चोदाः) यथायोग्य प्रकाश योग्य प्रकाशदेने वाले छात्र एवं अध्यापक!तू [मे] मेरे(प्राणाय) जीवित रखने वाले, हृदय में स्थित प्राण वायु को (वर्चसे) विद्या प्रकाश के लिये (पवस्व) पवित्रतापूर्वक प्राप्त कर । हे (वर्चोदा:) दीप्ति प्रदान करने वाले जाठराग्नि के समान छात्र एवं अध्यापक ! तू [मे] मेरे (व्यानाय) सम्पूर्ण शरीर में विद्यमान व्यान नामक वायु को (वर्चसे) अन्न के लिये (पवस्त्र) पवित्रतापूर्वक प्राप्त कर । हे (वर्चोदाः) विद्याबल को देने वाले छात्र एवं अध्यापक ! तू (मे) मेरे (उदानाय) उदान नामक प्राण को (वर्चसे) पराक्रम के लिये (पवस्व) पवित्रतापूर्वक प्राप्त कर । हे (वर्चोदाः) सत्यभाषण की शक्ति देने वाले छात्र एवं अध्यापक ! तू (मे) मेरी (वाचे) वाणी तथा (वर्चसे) प्रगल्भता की प्राप्ति के लिये (पवस्व) सदा प्रवृत्त रह । हे [वर्चोदा:] विज्ञान देने वाले छात्र एवं अध्यापक ! तू [मे] मेरे ( क्रतूदक्षाभ्याम् ) बुद्धि और बल तथा [वर्चसे ] शब्दार्थ सम्बन्ध के विज्ञान के लिये [पवस्व ] सदा उपदेश कर । हे [वर्चोदा:] शब्द-ज्ञान को देने वाले छात्र एवं अध्यापक ! तू [ मे] मेरे (श्रोत्राय) शब्द ज्ञान और [वर्चसे] अध्ययन-दीप्ति का [पवस्व] प्रापक बन । हे (वर्चदसौ) सूर्य और चन्द्रमा के समान अतिथि और अध्यापक लोगो ! तुम (मे) मेरी (चक्षुर्भ्याम् ) चक्षु और (वर्चसे) शुद्ध सिद्धान्त प्रकाश को (पवेथाम् ) प्राप्त करो ॥ ७ । २७ ।।

    भावार्थ

    जो मनुष्य विद्या वृद्धि के लिये पठन-पाठन रूप यज्ञ-कर्म को करता है वह सबकी पुष्टि और सन्तुष्टि करने वाला होता है, अतः इस प्रकार सब मनुष्य उक्त यज्ञ का अनुष्ठान करें ।। ७ । २७ ।।

    प्रमाणार्थ

    (वर्चसे) 'वर्चः' शब्द निघं० (२ । ७) में अन्न-नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४।५।६।२) में की गई है ।। ७ । २७ ।।

    भाष्यसार

    पठन-पाठन रूप यज्ञ करने वाले के लिये ईश्वर का उपदेश--पठन-पाठन रूप यज्ञ को करने वाले छात्र और अध्यापक लोग यथायोग्य विद्या-प्रकाश को देने वाले हों और वे ईश्वरकी दी हुई हृदयस्थ प्राण-शक्ति को तथा उसके विद्याप्रकाश को पवित्र आचरण से प्राप्त करें। शरीर में दीप्ति देने वाले जाठर अग्नि के समान छात्र और अध्यापक परमेश्वर की दी हुई, सब शरीर में विद्यमान व्यान-वायु को और अन्न को पवित्र आचरण से एवं यज्ञ आदि से प्राप्त करें। समाज में विद्याबल को प्रदान करने वाले छात्र और अध्यापक परमेश्वर की दी हुई उदान वायु और पराक्रम को पवित्र आचरण से प्राप्त करें। सत्यभाषण करने वाले छात्र और अध्यापक परमेश्वर की वेदवाणी और प्रगल्भता को प्राप्त करने में प्रवृत्त रहें । विज्ञान को देने वाले छात्र और अध्यापक ईश्वर की प्रज्ञा, बल से शब्दार्थ सम्बन्ध के विज्ञान का उपदेश करें। शब्द ज्ञान का उपदेश करने वाले छात्र और अध्यापक ईश्वर के शब्द ज्ञान और वेदाध्ययन से उत्पन्न दीप्ति को प्राप्त करने वाले हों । सूर्य और चन्द्रमा के समान अविद्या अन्धकार का विनाश करने वाले अतिथि और अध्यापक लोग ईश्वर की वेदज्ञान रूप चक्षु को तथा उसके शुद्ध सिद्धान्त रूप प्रकाश को प्राप्त करके विद्या की वृद्धि के लिये पठन-पाठन रूप यज्ञ-कर्म को करते रहें, जिससे सब की पुष्टि और सन्तुष्टि होती रहे ॥ ७ । २७ ।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    विद्या वाढवण्यासाठी पठणपाठणरूपी यज्ञकर्म करणारा माणूस आपल्या यज्ञाच्या अनुष्ठानाने सर्वांची पुष्टी व संतुष्टी करणारा असतो. त्यासाठी सर्व माणसांनी तशा प्रकारचा प्रयत्न केला पाहिजे.

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    विषय

    यानंतर पठन-पाठन रुप यज्ञ करणार्‍या मनुष्याविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (शिष्य अध्यापकास उद्देशून म्हणत आहे) (वचौदा:) विद्येचे यथोचित अध्ययन व अध्यापन, या यज्ञाचे कर्ते हे अध्यापक, आपण (मे) माझ्यासाठी (प्राणाय) हृदयस्य जीवनाचा हेतू जो प्राणवायू त्यासाठी आणि (वर्चसे) वेदविद्येच्या अध्यापनासाठी (पवस्व) पवित्रनेन प्रवृत्त व्हा. ( प्राणशक्ती व वेदविद्या शिकण्यासाठी मला प्रोत्साहित करा) हे (वर्चोदा:) ज्ञानदीप्तिप्रदाप्त, जाठराग्नीप्रमाणे आपण (मे) माझ्या (व्यानाय) संपूर्ण शरीरात राहणार्‍या वायूकरितां आणि (वर्चसे) अन्न आदी पदार्थांकरिता (पवस्व) पवित्रतेने प्राप्त व्हा (मला अनुकूल व्हा) (वर्चोदा:) हे विद्या आणि बल प्रदान करणारे अध्यापक, आपण (मे) माझ्या (उदानाय) श्वासाद्वारे वरच्या दिशेला देणारा जो पवन त्याकरिता आणि (वर्चसे) पराक्रम करण्याकरिता (पवस्व) मला ज्ञान द्या. हे (वंर्चोदा:) सत्यभाषण करण्याचा आदेश देणारे आपण (मे) माझ्या (वाचे) वाणीकरिता आणि (वर्चसे) प्रगल्भतेकरिता (पवस्न) प्रवृत्त व्हा. हे (वर्चोदा:) विज्ञानदाता, आपण (मे) माझ्या ऋतूदक्षाभ्याम्) बुद्धी व आत्मशक्तीसाठी तसेच (वर्चसे) उत्तम उपदेशासाठी (पवरन) मला शिक्षण द्या. हे (वर्चोदा:) शब्दशास्त्राचे ज्ञाता आणि यज्ञपती, आपण (मे) माझ्या (श्रोत्राय) शब्द ग्रहण करणार्‍या काऱ्नेंद्रियकरिता कर्णेद्नियाकरिता आणि (वर्चसे) शब्द-अर्थ संबंधाचे ज्ञान होण्याकरिता (पवस्व) मला उपदेश करा. हे (वर्चोदसौ) सूर्य आणि चंद्राप्रमाणे (ज्ञानाचा) प्रकाश देणारे अध्यापक आणि येणारे अतिथी, आपण दोघांनी (मे) माझ्या (चक्षुर्भ्याम्) नेत्रांसाठी आणि (वर्चसे) सिद्धांताचे स्पष्ट ज्ञान होण्यासाठी (पवस्व) प्राप्त व्हावे. (मला वरील सर्व विद्या, शक्ती व ज्ञान देण्याची कृपा करावी) ॥27॥

    भावार्थ

    भावार्थ - विद्येच्या वृद्धीसाठी, ज्ञानाच्या प्रचार-प्रसारासाठी जो मनुष्य पठन-पाठन, अध्ययन-अध्यापन करतो, तो एकप्रकारे यज्ञच करीत आहे. तो या ज्ञानयज्ञाद्वारे सर्वांचे पोषण करतो आणि सर्वांना संतुष्ट करतो. सर्व मनुष्यांनी त्या मनुष्याप्रमाणे विद्या-ज्ञान प्रसारासाठी यज्ञ करणे उचित आहे. ॥27॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O teacher, grow thou pure for my outward breath, and impart knowledge to me. O 1 giver of spirituality, grow thou pure for my spreading breath, and supply food to me. O imparter of knowledge grow thou pure for my upward breath and grant me prowess. O preacher of truth, be attentive to my speech and eminence. O educator teach me as how to improve my soul-force and intellect, and how to acquire sound knowledge. O teacher of grammar, teach for my ear that catches sound, the relation of the words with their meanings and their use. O learned guest and teacher teach me true principles.

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    Meaning

    Lord and giver of the light of life, bless me with the light of knowledge and sanctify the pranic energy of my heart. Lord and giver of lustre, bless me with the glow of health and nourishment and energize the vyana vitality of my body. Lord and giver of vigour, bless me with the passion for action through the udana energy in my mind. Lord and giver of the force of truth and conviction, bless me with the courage of conviction and the power of speech. Lord and giver of the ambition of enlightenment and strength of the spirit, bless me with the light of self-knowledge and brilliance of intelligence. Lord of omniscience and giver of speech, bless me with the revelation of the voice divine and consecrate my ear. Lord and giver of light and beauty (like the sun and moon), venerable teacher of the teachers, bless me with the celestial vision of the eyes to see and reveal the beauty of the mystery of existence.

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    Translation

    O bestower of lustre, purify my outbreath, so that I may get lustre. (1) O bestower of lustre, purify my diffused breath, so that I may get lustre. (2) O bestower of lustre, purify my upward breath, so that I may get lustre. (3) O bestower of lustre, purify my speech, so that I may get lustre. (4) O bestower of lustre, purify my action and skill, so that I may get lustre. (5) O bestower of lustre, purify my hearing, so that I may get lustre. (6) O you two bestowers of lustre, purify my both the eyes, so that I may get lustre. (7)

    Notes

    Pavasva, purify; also, grow pure; also, पवस्व प्रवर्तय, urge, guide. Kratudaksabhyam, for action and skill. Varcodasau, two bestowers of lustre, the sun and the moon.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনরধ্যয়নাধ্যাপনাখ্যয়জ্ঞকর্ত্তুর্বিষয়ান্তরমাহ ॥
    পুনরায় পঠন পাঠন, যজ্ঞকারীর বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (বর্চোদাঃ) যথাযোগ্য বিদ্যা পঠন-পাঠন রূপ যশকর্মকারী । আপনি (মে) আমার (প্রাণায়) হৃদয়স্থ জীবন হেতু প্রাণবায়ু এবং (বর্চসে) বেদবিদ্যার প্রকাশের জন্য (পবস্ব) পবিত্রতা পূর্বক ব্যবহার করুন । হে (বর্চোদাঃ) জ্ঞানদীপ্তি দাতা জঠরাগ্নি সমান আপনি (মে) আমার (ব্যানায়) সকল শরীরে নিবাসকারী পবন এবং (বর্চসে) অন্নাদি পদার্থ হেতু (পবস্ব) পবিত্রতা পূর্বক প্রাপ্ত হউন । হে (বর্চোদাঃ) বিদ্যাবলদাতা ! আপনি (মে) (উদানায়) শ্বাস দ্বারা উপরে আসা উদান-সংজ্ঞক পবন এবং (বর্চসে) পরাক্রম হেতু (পবস্য) জ্ঞান প্রদান করুন । হে (বর্চোদাঃ) সত্য বলিবার উপদেশকারী আপনি (যে) আমার (বাচে) বাণী এবং (বর্চসে) বুদ্ধিমত্তার জন্য (পবস্ব) প্রবৃত্ত হউন (বর্চোদা) বিজ্ঞানদাতা আপনি (মে) আমার (ক্রতূদক্ষাভ্যাম্) বুদ্ধি ও আত্মবলের উন্নতি এবং (বর্চসে) সুষ্ঠু বোধ হেতু (পবস্য) শিক্ষা দান করুন । হে (বর্চোদাঃ) শব্দজ্ঞানদাতা যজ্ঞপতি ! আপনি (মে) আমার (শ্রোত্রায়) শব্দগ্রহণকারী কর্ণেন্দ্রিয়ের জন্য (বর্চসে) শব্দার্থ ও সম্বন্ধের (পবস্ব) উপদেশ করুন । হে (বর্চোদসৌ) সূর্য্য ও চন্দ্রমা সমান অতিথি এবং অধ্যাপনকারী আপনারা উভয়ে (মে) আমার (চক্ষুর্ভ্যাম্) নেত্র হেতু (বর্চসে) শুদ্ধ সিদ্ধান্তের প্রকাশ কে (পবেথাম্) প্রাপ্ত হউন ॥ ২৭ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যিনি বিদ্যার বৃদ্ধি হেতু পঠন-পাঠন রূপী যজ্ঞকর্মকারী মনুষ্য, তিনি নিজের যজ্ঞের অনুষ্ঠান দ্বারা সকলের পুষ্টি তথা সন্তুষ্টি বিধানকারী হউন । অতএব, এমন প্রচেষ্টা সকল মনুষ্যের করা উচিত ॥ ২৭ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    প্রা॒ণায়॑ মে বর্চো॒দা বর্চ॑সে পবস্ব ব্যা॒নায়॑ মে বর্চো॒দা বর্চ॑সে পবস্বোদা॒নায়॑ মে বর্চো॒দা বর্চ॑সে পবস্ব বা॒চে মে॑ বর্চো॒দা বর্চ॑সে পবস্ব॒ ক্রতূ॒দক্ষা॑ভ্যাং মে বর্চো॒দা বর্চ॑সে পবস্ব॒ শ্রোত্রা॑য় মে বর্চো॒দা বর্চ॑সে পবস্ব॒ চক্ষু॑র্ভ্যাং মে বর্চো॒দসৌ॒ বর্চ॑সে পবেথাম্ ॥ ২৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    প্রাণায়েত্যস্য দেবশ্রবা ঋষিঃ । য়জ্ঞপতির্দেবতা । প্রাণায়েত্যস্য চাসুর্য়্যনুষ্টুপ্, উদানায়েত্যস্যাসুর্য়্যুষ্ণিক্, ব্যনায়েত্যস্য বাচে ম ইত্যস্য সাম্নী গায়ত্রী, ক্রতূদক্ষাভ্যামিত্যস্যাসুরী গায়ত্রী, শ্রোত্রায় মেত্যস্যাসুর্য়্যনুষ্টুপ্, চক্ষুর্ভ্যামিত্যস্য
    চাসুর্য়্যুষ্ণিক্ ছন্দাংসি । অনুষ্টুভো গান্ধারঃ, গায়ত্র্যাঃ ষড্জঃ, উষ্ণিজ ঋষভশ্চ স্বরাঃ ॥

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