यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 2
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - सोमो देवता
छन्दः - निचृत् आर्षी पङ्क्ति,
स्वरः - निषादः
2
मधु॑मतीर्न॒ऽइष॑स्कृधि॒ यत्ते॑ सो॒मादा॑भ्यं॒ नाम॒ जागृ॑वि॒ तस्मै॑ ते सोम॒ सोमा॑य॒ स्वाहा॒ स्वाहो॒र्वन्तरि॑क्ष॒मन्वे॑मि॥२॥
स्वर सहित पद पाठमधु॑मती॒रिति॒ मधु॑ऽमतीः। नः॒। इषः॑। कृ॒धि॒। यत्। ते॒। सो॒म॒। अदा॑भ्यम्। नाम॑। जागृ॑वि। तस्मै॑। ते॒। सो॒म॒। सोमा॑य। स्वाहा॑। स्वाहा॑। उ॒रु। अ॒न्तरि॑क्षम्। अनु॑। ए॒मि॒ ॥२॥
स्वर रहित मन्त्र
मधुमतीर्नऽइषस्कृधि यत्ते सोमादाभ्यन्नाम जागृवि तस्मै ते सोम सोमाय स्वाहा स्वाहोर्वन्तरिक्षमन्वेमि ॥
स्वर रहित पद पाठ
मधुमतीरिति मधुऽमतीः। नः। इषः। कृधि। यत्। ते। सोम। अदाभ्यम्। नाम। जागृवि। तस्मै। ते। सोम। सोमाय। स्वाहा। स्वाहा। उरु। अन्तरिक्षम्। अनु। एमि॥२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
मनुष्याः परस्परं कथं व्यवहरेयुरित्याह॥
अन्वयः
हे सोम ऐश्वर्य्ययुक्त विद्वंस्त्वं नोऽस्मभ्यं मधुमतीरिषस्कृधि, तथा हे सोम! अहं यद्यस्मात् ते तवादाभ्यं जागृवि नामास्ति, तस्मै सोमाय ते तुभ्यं च स्वाहा, सत्यां क्रियां स्वाहा, सत्यां वाणीमुर्वन्तरिक्षं चान्वेमि॥२॥
पदार्थः
(मधुमतीः) मधुरगुणवतीः (नः) अस्मभ्यम् (इषः) अन्नानि (कृधि) कुरु (यत्) यस्मात् (ते) तव (सोम) ऐश्वर्य्युक्त विद्वन्! (अदाभ्यम्) अहिंसनीयम् (नाम) संज्ञा (जागृवि) जागरूकं प्रसिद्धम् (तस्मै) (ते) तुभ्यम् (सोम) शुभकर्मसु प्रेरक! (सोमाय) ऐश्वर्य्यस्य प्राप्तये (स्वाहा) सत्यां क्रियाम् (स्वाहा) सत्यां वाचम् (उरु) विस्तीर्णम् (अन्तरिक्षम्) अवकाशम् (अनु) (एमि) अनुगच्छामि॥ अयं मन्त्रः (शत॰४। १। १। १२-२१) व्याख्यातः॥२॥
भावार्थः
मनुष्या यथा स्वसुखायान्नजलादिपदार्थान् सम्पादयेयुस्तथान्येभ्योऽपि देयाः, यथा कश्चित् स्वस्य प्रशंसां कुर्य्यात् तथान्यस्य स्वयमपि कुर्य्यात्, यथा विद्वांस सद्गुणवन्तः सन्ति, तथा तेऽपि भवेयुरिति॥२॥
विषयः
मनुष्याः परस्परं कथं व्यवहरेयुरित्याह ।।
सपदार्थान्वयः
हे सोम=ऐश्वर्ययुक्त विद्वन् ! त्वं नः=अस्मभ्यं मधुमतीः मधुरगुणवतीः इषः अन्नानि कृधि कुरु, तथा-- हे सोम! शुभकर्मसु प्रेरक! अहं यत्=यस्मात् ते=तवाऽदाभ्यम् अहिंसनीयंजागृवि जागरूकं प्रसिद्धंनाम संज्ञा अस्ति, तस्मै सोमाय ऐश्वर्यस्यप्राप्तये ते=तुभ्यं च स्वाहा=सत्यां क्रियां स्वाहा=सत्यां वाणीं सत्यां वाचम् उरु विस्तीर्णम् अन्तरिक्षम् अवकाशं चान्वेमि अनुगच्छामि ॥ ७। २ ॥ [हे सोम=ऐश्वर्ययुक्त विद्वन्! त्वं नो मधुमतीरिष: कृधि]
पदार्थः
(मधुमती:) मधुरगुणवतीः (नः) अस्मभ्यम् (इषः) अन्नानि (कृधि) कुरु (यत्) यस्मात् (ते) तव (सोम) ऐश्वर्य्ययुक्त विद्वन्! (अदाभ्यम्) अहिंसनीयम् (नाम) संज्ञा (जागृवि) जागरूकं प्रसिद्धम् (तस्मै) (ते) तुभ्यम् (सोम) शुभकर्मसु प्रेरक! (सोमाय) ऐश्वर्य्यस्य प्राप्तये (स्वाहा) सत्यां क्रियाम् (स्वाहा) सत्यां वाचम् (उरु) विस्तीर्णम् (अन्तरिक्षम्) अवकाशम् (अनु) (एमि) अनुगच्छामि ।। अयं मंत्रः शत० ४ । १।१ । १२-२१ व्याख्यातः ॥ २ ॥
भावार्थः
मनुष्या यथा स्वसुखायान्नजलादिपदार्थान् सम्पादयेयुस्तथाऽन्येभ्योऽपि देयाः, [हे सोम! अहं यत्=यस्मात्ते=तवादाभ्यं जागृवि नामास्ति, तस्मै सोमाय ते=तुभ्यं च स्वाहा=सत्यां क्रियां, स्वाहा=सत्यां वाणीमुर्वन्तरिक्षं चान्वेमि] यथा काश्चित् स्वस्य प्रशंसां कुर्यात् तथान्यस्यस्वयमपि कुर्यात्, यथा विद्वांसः सद्गुणवन्तः सन्ति तथा तेऽपि भवेयुरिति ॥ ७ । २॥
विशेषः
गोतमः। सोमः=ऐश्वर्ययुक्तो विद्वान्॥निचृदार्षी पंक्तिः । पञ्चमः ॥
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य लोग परस्पर व्यवहार में कैसे वर्त्तें, यह अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (सोम) ऐश्वर्य्ययुक्त विद्वन्! आप (नः) हम लोगों के लिये (मधुमतीः) मधुरादिगुणसहित (इषः) अन्न आदि पदार्थों को (कृधि) कीजिये तथा हे (सोम) शुभकर्मों में प्रेरणा करने वाले विद्वन्! मैं (यत्) जिससे (ते) आपका (अदाभ्यम्) अहिंसनीय अर्थात् रक्षा करने के योग्य (जागृवि) प्रसिद्ध (नाम) नाम है, (तस्मै) उस (सोमाय) ऐश्वर्य्य की प्राप्ति और (ते) आपके लिये अर्थात् आपकी आज्ञा वर्त्तने के लिये (स्वाहा) सत्यधर्म्म-युक्त क्रिया (स्वाहा) सत्य वाणी और (उरु) (अन्तरिक्षम्) अवकाश को (अनु, एमि) प्राप्त होता हूं॥२॥
भावार्थ
मनुष्य जैसे अपने सुख के लिये अन्न जलादि पदार्थों को सम्पादन करें, वैसे ही औरों के लिये भी दिया करें। जैसे कोई मनुष्य अपनी प्रशंसा करे, वैसे ही औरों की आप भी किया करें। जैसे विद्वान् लोग अच्छे गुण वाले होते हैं, वैसे आप भी हों॥२॥
विषय
नाम-स्मरण
पदार्थ
१. पिछले मन्त्र में प्रभु को हृदयासीन करने के लिए गोतम ने अपने जीवन को अधिकाधिक पवित्र करने का प्रयत्न किया। यह गोतम प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे ( सोम ) = हृदयस्थ शान्त प्रभो! आप ( नः ) = हमारे लिए ( मधुमतीः इषः ) = अत्यन्त माधुर्य से पूर्ण प्रेरणाओं को ( कृधि ) = कीजिए। हमारे जीवनों में, हमारे व्यवहारों में ये प्रेरणाएँ माधुर्य भरने- वाली हों।
२. हे ( सोम ) = प्रभो! ( यत् ) = जो ( ते ) = तेरा ( अदाभ्यम् ) = हिंसित न होने देनेवाला ( जागृवि ) = सदा सावधान, पहरेदार की भाँति रक्षा करनेवाला ( नाम ) = नाम है, उसे हे सोम ! ( तस्मै ते सोमाय ) = उस तुझ सोम को प्राप्त करने के लिए ( स्वाहा ) = [ सु+आह ] मैं सुन्दरता से उच्चारण करता हूँ। प्रभु-नाम का उच्चारण मुझे एकाग्र करेगा और अपने अन्दर उस शान्तात्मा प्रभु को देखने के योग्य बनाएगा।
३. मैं ( स्वाहा ) = स्वार्थ का त्याग [ स्व+हा ] करता हूँ और ( अन्तरक्षिं अन्वेमि ) = विशाल हृदयान्तरिक्ष को प्राप्त करता हूँ, स्वार्थ की भावनाओं से ऊपर उठकर हृदय को विशाल बनाता हूँ।
भावार्थ
भावार्थ — प्रभु का नाम-स्मरण करने से हम वासनाओं व रोगों के शिकार नहीं होते। यह नाम हमारा सदा जागरित रक्षक बन जाता है। हम नाम का सुन्दरता से उच्चारण करें, जिससे उस सोम = शान्तस्वरूप प्रभु को प्राप्त कर सकें। हम स्वार्थ-त्याग करके अपने हृदयान्तरिक्ष को विशाल बनाएँ।
विषय
एक दूसरे के प्रति आत्मसमर्पण ।
भावार्थ
हे राजन् ! ( नः ) हमारे लिये ( मधुमती: ) मधुर रस से युक्त ( इप: ) अन्नों को ( कृधि ) उत्पन्न कर । अथवा हे ( मधुमतीः अपनी (रावः ) प्रेरक आज्ञाओं को ( मधुमती: ) बल से युक्त कर । क्योंकि हे (सोम) सर्व प्रेरक राजन् ! ( ते नाम ) तेरा नाम, तेरा स्वरूप या तेरा नमाने या झुकाने या दमन करने का सामर्थ्य भी ( अदाभ्यम् ) कभी विनाश नहीं किया जा सकता, तोड़ा नहीं जा सकता और वह ( जागृविः ) सदा शरीर में प्राण के समान जागता रहता है । ( तस्मे ) इस कारण से हे ( सोम ) सर्वत्रेरक राजन् ! ( ते सोमाय स्वाहा ) तेरे निमित्त हमारा यह आत्मत्याग है । अर्थात् हम पदों पर नियुक्त पुरुष सर्व प्रकार से तेरे अधीन हैं। राजा अपने अधीन पुरुषों और प्रजाओं को अपने प्रति ऐसा वचन सुनकर स्वयं भी कहे ( स्वाहा ) यह मेरा भी तुम्हारे लिये आत्मोत्सर्ग रूप आहुति है । अथवा अपनी वश करनेवाली शक्ति या प्रतिष्ठा से मैं अब ( उरु अन्तरिक्षम् ) विशाल अन्तरिक्ष को ( अनुएमि ) अनुसरण करता हूं । अर्थात् जिस प्रकार अन्तरिक्ष समस्त पृथिवी पर आच्छादित है इसी प्रकार में समस्त प्रजा पर समयरूप से शासक बनता हूं। जिस प्रकार वायु सबका प्राण है उस पर सब जीते हैं इसी प्रकार मेरे आश्रम पर समस्त प्रज्ञाएं जीवन धारण करें । अथवा ( अन्तरिक्षम् अन्वेमि ) अन्तरिक्ष अर्थात् प्रजा और राजा के बीच के शासक मण्डल पर भी मैं अपना अधिकार करता हूं । वे प्रजा की रक्षा करने से रक्षोगण ' है उनका वश करने के लिये राजा उन पर पूरा वश रक्खे ।
स्वाहा - स प्रजापतिर्विदांचकार स्वो वै मा महिमा आहेति, स स्वाहे त्ये- वा जुहोत् । श० २ । २ । ४ । ६ ॥ हेमन्तो वै ऋतूनां स्वाहाकार : हेमन्तो हि इमाः प्रजाः स्वं वशमुपनयते । श० १। ५ । ४ । ५॥ अन्तं हि स्वाहा- कारः । श० ६ । ६ । ३ । १७ ॥ प्रतिष्ठा वै स्वाहाकृतयः ।ए ० ४ ॥
अत्तरिक्षम् ' -- तद्यदस्मिन् इदं सर्वमन्तस्तस्मादन्तर्यक्षम् । अन्तर्यक्षं ह वै नामैतत् तदन्तरिक्षमिति परोचमाचक्षते । जै० उ० १ । २० ॥ ४ ॥
ईक्षं हैतन्नाम ततः पुरा अन्तरा वा इदमीक्षं मभूदिति तस्मादन्तरिक्षम् ॥ शत० ७ । १ । २ । २३ ॥ अन्तरिक्षायतनाहि प्रजाः । तां० ४। ८। १३ ॥ असुराः रजताम् अन्तरिक्षलोके अकुर्वत । ऐ० १ । २३ ॥
अर्थात् प्रजापति का अपना बड़ी सामर्थ्य या ऋतुओं में तीक्ष्ण प्रहार करनेवाले राजा का हेमन्त या पतझड़ का सा रूप है । 'जो प्रजाओं को अपने वश करने का सामर्थ्य या अन्न या प्रतिष्ठा हैं ये स्वाहा के रूप हैं । भीतर सबका निरीक्षक पूजनीय, 'अन्तरित' है । भीतरी निरीक्षक पदाधिकारी 'अन्तरिक्ष ' है । चांदी या धन के द्वारा बंधे अधिकारीमण्डल भी ' अन्तरिक्ष' हैं । शत० ४।१।१।१-५।
टिप्पणी
२ – कृध्यन्तस्य प्राण उपांशुग्रहरूपो देवता । स्वाहाकारस्य अग्निः । उर्वन्तरि क्षमित्यस्य रक्षो देवता । सर्वा० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोमो देवता । निचृदार्थी पंक्तिः । पंचमः स्वरः ॥
विषय
मनुष्य परस्पर कैसे व्यवहार करें, यह उपदेश किया है ।।
भाषार्थ
हे (सोम) ऐश्वर्य-युक्त विद्वान्! आप (नः) हमारे लिये (मधुमतीः) मधुर गुणों वाले अन्नों को (इषः) (कृधि) उत्पन्न करो, तथा— हे (सोम) शुभ कर्मों में प्रेरणा करने वाले विद्वान्! (यत्) जिससे (ते) आप (अदाभ्यम्)अहिंसक और (जागृवि) जागरूक (नाम) नाम सेप्रसिद्ध हो इसलिये (सोमाय) ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये तथा (ते) आपके लिये मैं (स्वाहा) सत्य कर्म एवं (स्वाहा) सत्यवाणी और (उरु) महान् (अन्तरिक्षम्) अवसर को (अनु+एमि) प्राप्त करूँ ।। ७ । २ ।।
भावार्थ
नुष्य जैसे अपने सुख के लिये अन्न, जल आदि पदार्थों को सिद्ध करें वैसे उन्हें दूसरों के लिये भी प्रदान करें।जैसे कोई अपनी प्रशंसा करे, वैसे दूसरे की। स्वयं भी प्रशंसा करे, जैसे विद्वान् लोग शुभ गुणों वाले होते हैं वैसे दूसरे भी होवें ॥ ७ । २ ॥
प्रमाणार्थ
स मन्त्र की व्याख्या शत० ( ४।१।१।१२-२१) में की गई है ।
भाष्यसार
मनुष्य परस्पर कैसे व्यवहार करें—ऐश्वर्य-सम्पन्न विद्वान् मधुर गुणयुक्त अन्न, जल आदि पदार्थों को अपने सुख के लिये तथा दूसरों के लिये भी उत्पन्न करे। विद्वान् लोग शुभ कर्मों में प्रेरणा करने वाले होते हैं। जैसे वे शुभ कर्मों के कारण प्रशंसा के पात्र होते हैं, वैसे वे अन्य शुभ कर्म करने वालों की भी प्रशंसा करें। विद्वान् लोग हिंसा आदि दोषों से रहित तथा शुभ कर्मों के अनुष्ठान में सदा जागरूक होने से लोक में प्रसिद्ध होते हैं, इसलिए अन्य जन भी विद्वानों के समान ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिये सत्य-कर्मों का अनुष्ठान तथा उनकी सत्य-वाणी का अनुसरण करें। विद्वान् तथा अन्य साधारण जन परस्पर अनुकरण से सद्गुणों से युक्त हों ॥ ७ । २ ॥
मराठी (2)
भावार्थ
माणसे स्वतःसाठी जसे अन्न, पाणी इत्यादी पदार्थ प्राप्त करतात तसे इतरांनाही द्यावे. जसा माणूस स्वतःची प्रशंसा करतो तशी इतरांचीही करावी. विद्वान जसे सद्गुणी असतात तसे आपणही बनावे.
विषय
माणसांनी एकमेकाशी कसे वागावे अथवा माणसांची पारस्परिक वागणूक कशी ठेवावी, हा विषय पुढील मंत्रात सांगितला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ हे (सोम) ऐश्वर्यशाली विद्वन, आपण (न:) आम्हांसाठी (सामाजिकजनांसाठी) (मधुमती) मधुर व पुष्टिकारक (इष:) अन्न आदी पदार्थ (कृधि) द्या (आपल्या विद्या व ज्ञानाने पदार्थांचे हितकरण गुण व लाभ प्रकट करा.) हे (सोम) शुभकर्म करण्याकरिता प्रेरणा देणार्या विद्वन् (ते) तुमचे (यत्) जे (अदाभ्यम्) रक्षणीय (जागृवि) प्रसिद्ध (नाम) आहे. (महान विद्वान म्हणून तुमची जी ख्याती आहे त्या नामाची प्रतिष्ठा अबाधित ठेवण्यासाठी ) (सोमाय) श्रेष्ठ ऐश्वर्य प्राप्त करण्यासाठी आणि (ते) आपल्या आज्ञेप्रमाणे वागण्यासाठी मी (स्वाहा) सत्य-धर्मपालन, सत्कर्म तसेच (स्वाहा) सत्यभाषणाद्वारे (उरू) (अन्तरिक्षं) अवकाश प्राप्त करीत (म्हणजे वेळेचा सदुपयोग करीत) (एमि) आपल्याजवळ येतो. ॥2॥
भावार्थ
भावार्थ - माणसांनी आपल्या स्वत:च्या सुख सोयीकरिता अन्न, जल आदी पदार्थांचे संपादन अवश्य करावे, पण त्याबरोबर ते पदार्थ अन्य जणांनादेखील द्यावेत. ज्याप्रमाणे माणूस आपल्या सत्कर्माची प्रशंसा करतो, तद्वत इतरांच्या चांगल्या कामाचीही यशोचित प्रशंसा अवश्य करावी. तसेच ज्याप्रमाणे विद्वज्जन उत्तम गुणवान असतात, तद्वत माणसाने स्वत: देखील व्हावे ॥2॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O superb man of knowledge, sweeten our foods. O learned preacher of virtuous deeds, whatever well-known name free from harm, thou hast, for the acquisition of power and carrying out thy instructions, I attain to true deed, truthful speech and wide atmosphere of prosperity.
Meaning
Soma, Lord of knowledge and vitality, bless us with honey-sweet food and energy. Lord of inspiration, great, universal and imperishable is your name. To that name, to the Divine Word, to the universal acts of the Divine, and for the sake of knowledge, good action and honour, I dedicate myself to the universal presence of the Divine.
Translation
Make our foodgrains sweet. (1) O blissful Lord, unconquerable and ever-alert is your name; to you as such, О bliss divine, to you, the blissful, I dedicate. (2) I move along the vast midspace. Svaha. (3)
Notes
Soma, blissful Lord; also, Soma plant or juice; also moon. Adabhyam, that which cannot be conquered or injured. दभ्नोतिहिंसार्थ: ।
बंगाली (1)
विषय
মনুষ্যাঃ পরস্পরং কথং ব্যবহরেয়ুরিত্যাহ ॥
মনুষ্যগণ পরস্পর ব্যবহার কীভাবে করিবে ইহা পরবর্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (সোম) ঐশ্বর্য্যযুক্ত বিদ্বান্ ! আপনি (নঃ) আমাদিগের জন্য (মধুমতীঃ) মধুরাদিগুণ সহিত (ইষঃ) অন্নাদি পদার্থগুলিকে (কৃধি) করুন তথা হে (সোম) শুভ কর্মের প্রেরণাদাতা বিদ্বান্ ! আমি (য়ৎ) যদ্দ্বারা (তে) আপনার (অদাভ্যম্) অহিংসনীয় অর্থাৎ রক্ষা করিবার যোগ্য (জাগৃবি) প্রসিদ্ধ (নাম) নাম আছে (তস্মৈ) সেই (সোমায়) ঐশ্বর্য্য-প্রাপ্তি এবং (তে) আপনার জন্য অর্থাৎ আপনার আজ্ঞা পালনের জন্য (স্বাহা) সত্যধর্মযুক্ত ক্রিয়া, (স্বাহা) সত্যবাণী ও (উরু) (অন্তরিক্ষম্) অবকাশকে (এমি) প্রাপ্ত হই ॥ ২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- মনুষ্য যেমন নিজ সুখের জন্য অন্ন জলাদি পদার্থগুলির সম্পাদন করিবে সেইরূপ অন্যের জন্যও দিতে থাকিবে । যেমন কোন মনুষ্য স্বীয় প্রশংসা করেন সেই রূপ অন্যেরও প্রশংসা স্বয়ং করিবেন । যেমন বিদ্বান্গণ ভাল গুণসম্পন্ন হন সেইরূপ আপনিও হউন ॥ ২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
মধু॑মতীর্ন॒ऽইষ॑স্কৃধি॒ য়ত্তে॑ সো॒মাদা॑ভ্যং॒ নাম॒ জাগৃ॑বি॒ তস্মৈ॑ তে সোম॒ সোমা॑য়॒ স্বাহা॒ স্বাহো॒র্ব᳕ন্তরি॑ক্ষ॒মন্বে॑মি ॥ ২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
মধুমতীরিত্যস্য গোতম ঋষিঃ । সোমো দেবতা । নিচৃদার্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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