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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गरुत्मान् देवता - तक्षकः छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त
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    इन्द्र॑स्य प्रथ॒मो रथो॑ दे॒वाना॒मप॑रो॒ रथो॒ वरु॑णस्य तृ॒तीय॒ इत्। अही॑नामप॒मा रथः॑ स्था॒णुमा॑र॒दथा॑र्षत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑स्य । प्र॒थ॒म: । रथ॑: । दे॒वाना॑म् । अप॑र: । रथ॑: । वरु॑णस्य । तृ॒तीय॑: । इत् । अही॑नाम् । अ॒प॒ऽमा । रथ॑: । स्था॒णुम् । आ॒र॒त् । अथ॑ । अ॒र्ष॒त् ॥४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्य प्रथमो रथो देवानामपरो रथो वरुणस्य तृतीय इत्। अहीनामपमा रथः स्थाणुमारदथार्षत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रस्य । प्रथम: । रथ: । देवानाम् । अपर: । रथ: । वरुणस्य । तृतीय: । इत् । अहीनाम् । अपऽमा । रथ: । स्थाणुम् । आरत् । अथ । अर्षत् ॥४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    सर्प रूप दोषों के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्रस्य) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] का (प्रथमः) पहिला (रथः) रथ है, (देवानाम्) विजयी [शूर मन्त्रियों] का (अपरः) दूसरा (रथः) रथ, और (वरुणस्य) वरुण [श्रेष्ठ वैद्य] का (तृतीयः) तीसरा (इत्) ही है (अहीनाम्) महाहिंसक [साँपों] का (अपमा) खोटा (रथः) रथ (स्थाणुम्) ठूँठ [सूखे पेड़] पर (आरत्) पहुँचा है, (अथ) अब (अर्षत्) वह चला जावे ॥१॥

    भावार्थ

    राजा, मन्त्री और वैद्य के प्रयत्न से सर्परूप कुठौर में वर्तमान दुष्ट लोग और दुष्ट रोग प्रजा में से नष्ट हो जावें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतो राज्ञः (प्रथमः) अग्रगामी (रथः) यानम् (देवानाम्) विजिगीषूणां मन्त्रिणाम् (अपरः) द्वितीयः (रथः) (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य वैद्यस्य (तृतीयः) (इत्) एव (अहीनाम्) अ० २।५।५। आङि श्रिहनिभ्यां ह्रस्वश्च। उ० ४।१३८। आङ्+हन हिंसागत्योः-इण् डित्, आङो ह्रस्वत्वम्। अहिरयनादिति अन्तरिक्षे, अयमपीतरोऽहिरेतस्मादेव, निर्ह्रसित उपसर्ग आहन्तीति-निरु० २।१७। आहन्तॄणाम्। महाहिंसकानाम्। सर्पाणाम् (अपमा) अन्येष्वपि दृश्यते। पा० ३।२।१०१। अप+माङ् माने−ड। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेराकारः। अपमः। अवमः। कुत्सितः। नीचः (रथः) (स्थाणुम्) स्थो णुः। उ० ३।३७। ष्ठा गतिनिवृत्तौ−णु। निश्चलः। शुष्कवृक्षः (आरत्) ऋ गतौ−लुङ्। अगमत् (अथ) इदानीम् (अर्षत्) ऋषी गतौ−लेट्। लेटोऽडाटौ। पा० ३।४।९४। इत्यटि गुणश्च। गच्छेत् स रथः ॥

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    विषय

    'इन्द्र, देव, वरुण'

    पदार्थ

    १. यह शरीर रथ है। प्रभु ने जीवन-यात्रा की पूर्ति के लिए इसे हमें प्राप्त कराया है। यह (रथ:) = रथ (इन्द्रस्य प्रथम:) = जितेन्द्रिय पुरुष का सबसे पहले है। (अपर:) = दूसरा-दूसरे स्थान पर यह (रथ:) = शरीर-रथ (देवानाम्) = रोगादि को जीतने की कामनावालों का है। (तृतीयः) = तीसरा यह (इत्) = निश्चय से (वरुणस्य) = द्वेषादि के निवारण करनेवाले का है। हमें इस शरीर-रथ को प्राप्त करके 'इन्द्र, देव व वरुण' बनना है। २. (अहीनाम्) = [आहन्ति इति अहि:] हिंसक वृत्तिवालों का यह (रथः) = रथ (अपमा) = [अपमः विभक्तेराकारः] सबसे निकृष्ट [अपम Lower] है। यदि मनुष्य हिंसावृत्ति से ऊपर 'इन्द्र, देव व वरुण' बनता हुआ (स्थाणुम् आरत्) = स्थिर-भक्तियोग सुलभ स्थाणु [स्थिर] प्रभु को प्राप्त करता है, (अथ) = तो (अर्षत) = इस रथ को समास कर डालता है [ऋष् to kill], अर्थात् जन्म-मरण के चक्र से ऊपर उठ जाता है।

    भावार्थ

    इस शरीर-रथ को प्राप्त करके हम जितेन्द्रिय, नीरोग [अजर, अमर] व निर्दोष' बनें, हिंसावृत्तिवाले न हों [अहि], तभी हम प्रभु को प्राप्त करेंगे और इस शरीररथ की आवश्यकता न रहेगी।

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    भाषार्थ

    (इन्द्रस्य) विद्युत् की (रथः) गति [सर्पविष चिकित्सा में] (प्रथमः) प्रथम कोटि की है और (देवानाम्) अन्य दिव्यपदार्थों [मिट्टी का लेप, दष्टस्थान का जलाना आदि] की (रथः) गति (अपरः) द्वितीय कोटि की है, (वरुणस्य) जल की [रथः] गति (तृतीयः इत्) तीसरी कोटि की है, (अहीनाम्) सांपों की (रथः) गति (अपमा) अपमानित१ सी है। विष (स्थाणुम्) एक नियत स्थान में (आरत्) आ गया है, (अथ) और (अर्षत् = अरिषत्) विनष्ट हो गया है।

    टिप्पणी

    [निरुक्त में वायु या इन्द्र को अन्तरिक्ष स्थानी देवता माना है (अध्या १०, पाद १), "इन्द्र" है विद्युत् जो कि मेघ में चमकता है। सर्प के विष के प्रभाव को नष्ट करने में विद्युत्-धारा का प्रयोग करना सर्वोत्तम उपाय है। “वरुण” है जल का देवता। यथा "वरुणोऽपामधिपतिः" (अथर्व० ५॥२४॥४), इस द्वारा जलचिकित्सा सूचित की है। "देवानाम्" द्वारा मिट्टी का प्रलेप आदि दैवी चिकित्सा निर्दिष्ट की है। "अहीनाम्" द्वारा "विषस्य विषमौषधम्" के सिद्धान्त को सूचित किया है, अर्थात् विष के प्रयोग द्वारा विष का विनाश। यह सिद्धान्त होम्योपेथिक के सिद्धान्त सदृश है। “रथः” का अर्थ रथ अभिप्रेत नहीं, अपितु रथ की गति अभिप्रेत है। यथा “रथः रंहतेर्वा स्यात्, रंहतेः गतिकर्मणः "में रथ शब्द गत्यर्थप्रधान है। (निरु० ९।२।११), तथा "रथयति गतिकर्मा" (निरु० २।१४) में भी रथ पद सर्वाधिक गतिमान् है, इत्यादि]। [१. प्रथम वर्णित ३ उपायों की अपेक्षया कम लाभप्रद है।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Snake poison cure

    Meaning

    The chariot speed of Indra’s, i.e., the speed of electricity (in the treatment of snake poison) is first and fastest, that of Deva’s, other powers of nature (such as clay, heat, etc.) is next, and that of Varuna’s, water treatment, is third. The ratha, speed of poison, of snakes is low. It comes to a stop as against a pillar and goes out.

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    Subject

    Sarpa-visa-apākaraņam (Snake-Poison - Its Elimination)

    Translation

    First chariot is that of the resplendent Lord (Indra);. another chariot is that of the enlightened ones (deva); the chariot of the venerable Lord (varuna) is the third; the last one is the chariot of the serpents (ahi) or clouds; it goes to a piller (sthāņu) nest of white ants and thereafter glides quickly.

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    Translation

    Ratha, the power of electricity is first, the power of the wonderful objects but electricity is next, the power of water is only the third and the power of serpents is the last which strikes the plants and trees and then becomes more powerful.

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    Translation

    The first of all is soul’s strength, next is the strength of the organs, the third is that of breaths. The last is the strength of the serpents, poison, that enters the body and deprives it of life.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतो राज्ञः (प्रथमः) अग्रगामी (रथः) यानम् (देवानाम्) विजिगीषूणां मन्त्रिणाम् (अपरः) द्वितीयः (रथः) (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य वैद्यस्य (तृतीयः) (इत्) एव (अहीनाम्) अ० २।५।५। आङि श्रिहनिभ्यां ह्रस्वश्च। उ० ४।१३८। आङ्+हन हिंसागत्योः-इण् डित्, आङो ह्रस्वत्वम्। अहिरयनादिति अन्तरिक्षे, अयमपीतरोऽहिरेतस्मादेव, निर्ह्रसित उपसर्ग आहन्तीति-निरु० २।१७। आहन्तॄणाम्। महाहिंसकानाम्। सर्पाणाम् (अपमा) अन्येष्वपि दृश्यते। पा० ३।२।१०१। अप+माङ् माने−ड। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेराकारः। अपमः। अवमः। कुत्सितः। नीचः (रथः) (स्थाणुम्) स्थो णुः। उ० ३।३७। ष्ठा गतिनिवृत्तौ−णु। निश्चलः। शुष्कवृक्षः (आरत्) ऋ गतौ−लुङ्। अगमत् (अथ) इदानीम् (अर्षत्) ऋषी गतौ−लेट्। लेटोऽडाटौ। पा० ३।४।९४। इत्यटि गुणश्च। गच्छेत् स रथः ॥

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