अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 8
ऋषिः - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - उष्णिग्गर्भा परात्रिष्टुप्
सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त
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संय॑तं॒ न वि ष्प॑र॒द्व्यात्तं॒ न सं य॑मत्। अ॒स्मिन्क्षेत्रे॒ द्वावही॒ स्त्री च॒ पुमां॑श्च॒ तावु॒भाव॑र॒सा ॥
स्वर सहित पद पाठसम्ऽय॑तम् । न । वि । स्प॒र॒त् । वि॒ऽआत्त॑म् । च । सम् । य॒म॒त् । अ॒स्मिन् । क्षेत्रे॑ । द्वौ । अही॒ इति॑ । स्त्री । च॒ । पुमा॑न् । च॒ । तौ । उ॒भौ । अ॒र॒सा ॥४.८॥
स्वर रहित मन्त्र
संयतं न वि ष्परद्व्यात्तं न सं यमत्। अस्मिन्क्षेत्रे द्वावही स्त्री च पुमांश्च तावुभावरसा ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽयतम् । न । वि । स्परत् । विऽआत्तम् । च । सम् । यमत् । अस्मिन् । क्षेत्रे । द्वौ । अही इति । स्त्री । च । पुमान् । च । तौ । उभौ । अरसा ॥४.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
सर्प रूप दोषों के नाश का उपदेश।
पदार्थ
वह [साँप] (संयतम्) मुँदे हुए मुख को (न) न (वि स्परत्) खोले और (व्यात्तम्) खुले मुख को (न) न (सम् यमत्) मूँदे। (अस्मिन्) इस (क्षेत्रे) खेत [संसार] में (द्वौ) दो (अही) महाहिंसक [साँप] (स्त्री) स्त्री (च च) और (पुमान्) नर हैं, (तौ) वे (उभौ) दोनों (अरसा) नीरस [हो जावें] ॥८॥
भावार्थ
विद्वान् पुरुष ऐसा प्रयत्न करें सर्पिणी सर्प समान स्त्री और पुरुष रूप दोनों प्रकार की प्रजाएँ उपद्रव न मचावें ॥८॥ इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध-अ० ६।५६।१। के उत्तर भाग में आ चुका है ॥
टिप्पणी
८−(संयतम्) संकुचितं मुखम् (न) निषेधे (वि) विवृत्य (स्परत्) स्पृ प्रीतिचालनयोः−लेट्। चालयेत् (व्यात्तम्) अ० ६।५६।१। विवृतं मुखम् (संयतम्) संश्लिष्येत् (अस्मिन्) प्रत्यक्षे (क्षेत्रे) क्षेत्ररूपे संसारे (द्वौ) (अही) म० १। महाहिंसकौ सर्पौ (स्त्री) (च) (पुमान्) अ० १।८।१। नरः (च) (तौ) (उभौ) (अरसा) सारहीनौ ॥
विषय
हिंसासामर्थ्य वञ्चन
पदार्थ
१. साँप मुख खोलकर डसता है-इसने के समय मुख को भींचता है। यदि उसका खुला हुआ मुख बन्द न हो सके और बन्द हुआ-हुआ खुल न सके तो यह दशन-क्रिया न हो पाएगी। उस स्थिति का ध्यान करते हुए कहते हैं कि (संयतम्)= बन्द हुआ-हुआ मुख (न विष्परत्) = [स्मृ प्रीतिचालनयोः] न खुल सके, बन्द-का-बन्द ही रह जाए। (व्यात्तम्) = खुला हुआ मुख (न संयतम्) = बन्द न हो पाये। इसप्रकार उसका डसना सम्भव ही न हो। २. (अस्मिन् क्षेत्रे) = इस संसाररूप क्षेत्र में (द्वौ अही) = दो हिंसक हैं, (स्त्री च पुमान् च) = एक स्त्री है, एक पुरुष। 'पुरुष ही हानिकर हों, स्त्रियों नहीं' ऐसी बात भी नहीं है, और न ही यह है कि 'स्त्रियाँ हानिकर हों पुरुष नहीं'। दोनों ही हिंसक हो सकते हैं। (तो उभौ) = वे दोनों (अरसा) = निर्बल हों-असक्त हों। ये हानि करने का सामर्थ्य ही खो बैठे।
भावार्थ
संसार में जो भी पुरुष व स्त्री हिंसक हों, राजपुरुष उन्हें इसप्रकार दण्डित करें कि उनकी हिंसा करने की शक्ति ही न रहे।
भाषार्थ
सांप (संयतम्) बन्द मुख को (न विष्परत्) न खोले, (व्यात्तम्) खुले मुख को (न संयमत्) न बन्द करे। (अस्मिन्) इस (क्षेत्रे) खेत में (द्वौ अही) दो सांप हैं (स्त्री च, पुमान च) मादा और नर। (तो उभौ) वे दोनों (अरसा =अरतौ) रसरहित हैं, विष रहित हैं।
टिप्पणी
[स्परत् = स्पृ प्रीतिचलनयोरित्यन्ये (स्वादिः), "चलन" अर्थ में मुख के खुलने की भावना है। अथवा "स्फर स्फुरणे इत्येके (तुदादिः)। स्फरत् = स्परत्, वर्ण विकारः। (१) सांप मुख खोल कर जब बन्द करता है तब विष का संचार करता है, तथा बन्द मुख को जब खोलता है वह भी विष का संचार करने के लिये होता है। दोनों अवस्थाओं को न होने देना चाहिये। यह सावधानी मन्त्र में दर्शाई है। (२) खेतों में प्रायः नर और मादा दोनों सांप होते हैं। (३) खेतों के सांप प्रायः अरस होते हैं, विषैले नहीं होते]।
इंग्लिश (4)
Subject
Snake poison cure
Meaning
Let it not open the mouth that is closed, nor close the mouth that is open. In this field there are two snakes, one male, the other female, both poisonless.
Translation
May the closed (mouth of the snake) not open; may the open (mouth of the snake) not close. there are two types) serpents in this field, a female and a male. Both, of them are powerless.
Translation
Let the closed mouth of snake not be opened and the opened not be closed. Let the two snakes of this field which are male and female be powerless and poison-less,
Translation
Let not the snake open his closed mouth to bite us, nor close the opened mouth. Through this expedient both male and female serpents become venomless.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(संयतम्) संकुचितं मुखम् (न) निषेधे (वि) विवृत्य (स्परत्) स्पृ प्रीतिचालनयोः−लेट्। चालयेत् (व्यात्तम्) अ० ६।५६।१। विवृतं मुखम् (संयतम्) संश्लिष्येत् (अस्मिन्) प्रत्यक्षे (क्षेत्रे) क्षेत्ररूपे संसारे (द्वौ) (अही) म० १। महाहिंसकौ सर्पौ (स्त्री) (च) (पुमान्) अ० १।८।१। नरः (च) (तौ) (उभौ) (अरसा) सारहीनौ ॥
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