अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 19
ऋषिः - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त
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सं हि शी॒र्षाण्यग्र॑भं पौञ्जि॒ष्ठ इ॑व॒ कर्व॑रम्। सिन्धो॒र्मध्यं॑ प॒रेत्य॒ व्यनिज॒महे॑र्वि॒षम् ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । हि । शी॒र्षाणि॑ । अग्र॑भम् । पौ॒ञ्जि॒ष्ठ:ऽइ॑व । कर्व॑रम् । सिन्धो॑: । मध्य॑म् । प॒रा॒ऽइत्य॑ । वि । अ॒नि॒ज॒म् । अहे॑: । वि॒षम् ॥४.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
सं हि शीर्षाण्यग्रभं पौञ्जिष्ठ इव कर्वरम्। सिन्धोर्मध्यं परेत्य व्यनिजमहेर्विषम् ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । हि । शीर्षाणि । अग्रभम् । पौञ्जिष्ठ:ऽइव । कर्वरम् । सिन्धो: । मध्यम् । पराऽइत्य । वि । अनिजम् । अहे: । विषम् ॥४.१९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
सर्प रूप दोषों के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(हि) क्योंकि [साँपों के] (शीर्षाणि) शिरों को (सम् अग्रभम्) मैंने पकड़ लिया है, (पौञ्जिष्ठः इव) जैसे महा ओजस्वी पुरुष (कर्वरम्) व्याघ्र को [पकड़ लेता है]। (सिन्धोः) नदी के (मध्यम्) मध्य में (परेत्य) दूर जाकर (अहेः) महाहिंसक [साँप] के (विषम्) विष को (वि अनिजम्) मैंने धो डाला है ॥१९॥
भावार्थ
जैसे पराक्रमी मनुष्य व्याघ्र आदि को पकड़ लेता है, वैसे ही बलवान् गुणवान् पुरुष उपद्रवियों की दुष्टता को इस प्रकार नष्ट कर दे, जैसे मल आदि को नदी में बहा देते हैं ॥१९॥
टिप्पणी
१९−(सम्) सम्यक् (हि) यस्मात् कारणात् (शीर्षाणि) मस्तकानि (अग्रभम्) अग्रहम्। अग्रहीषम् (पौञ्जिष्ठः) प्र−ओजिष्ठः प्र−ओजस्वी-इष्ठन्। विन्मतोर्लुक्। पा० ५।३।६५। विनो लुक् छान्दसं रूपम्। ओजिष्ठः। पराक्रमितमः (इव) यथा (कर्वरम्) कॄगृशॄवृञ्चतिभ्यः ष्वरच्। उ० २।१२१। कॄ क्षेपे हिंसायां च यद्वा कृञ् हिंसायाम्−ष्वरच्। हिंसकम्। व्याघ्रम्। राक्षसम् (सिन्धोः) नद्याः (मध्यम्) (परेत्य) दूरं गत्वा (वि) विविधम् (अनिजम्) णिजिर् शौचपोषणयोः−लुङ् (अहेः) म० १। सर्पस्य (विषम्) ॥
विषय
सिन्धोः मध्यं परेत्य
पदार्थ
१. गतमन्त्र में काम, क्रोध, लोभ' आदि असुरों को अहि [हिंसिका वृत्ति] का जनिता कहा था। यहाँ कहते हैं कि मैं हि-निश्चय से इन आसुरवृत्तियों के (शीर्षाणि सम् अग्रभम्) = सिरों को सम्यक् पकड़ लेता हूँ-इनके सिरों को कुचल डालता हूँ। इसप्रकार इन्हें पकड़ लेता हूँ, (इव) = जैसेकि (पौञ्जिष्ठः) = [प्र ओजिष्ठ:] प्रकृष्ट तेजस्वी पुरुष (कर्वरम्) = एक चीते [Tiger] को पकड़ लेता है। २. मैं (सिन्धोः मध्यं परेत्य) = ज्ञान-समुद्र के मध्य में दूर तक जाकर-ज्ञान-समुद्र में स्नान करता हुआ-(अहेः विषम्) = हिंसकवृत्ति के विष को-विषैले प्रभाव को-(व्यनिजम्) = धो डालता हूँ। ज्ञान-जल में स्नान करता हुआ मैं हिंसावृत्ति से ऊपर उठता हूँ।
भावार्थ
इम काम, क्रोध, लोभ आदि आसुरवृत्तियों को कुचल दें और ज्ञान का सम्पादन करते हुए हिंसावृत्ति के ऊपर उठें।
भाषार्थ
(शीर्षाणि) सांपों के सिरों को (हि) निश्चय से (सम् अग्रभम्) सम्यक्तया अर्थात् दृढ़तापूर्वक मैंने पकड़ लिया है, (इव) जैसे कि (पौञ्जिष्ठः) पौञ्जिष्ठ (कर्वरम्) कर्वर को दृढ़तापूर्वक ग्रहण करता है। और (सिन्धोः) स्यन्दन करने वाली नदी के (मध्यम्) मध्य में (परेत्य) जाकर (अहेः) सांप के (विषम्) विष को (व्यनिजम्) मैंने धो डाला है।
टिप्पणी
[सांप को पकड़ना हो तो उस के सिर को दृढ़तापूर्वक पकड़ना चाहिये, पूंछ से पकड़ने पर वह पीछे की ओर उछल कर काट सकता है। सांप के काटने पर नदी के प्रवाह में जा कर जलचिकित्सा विधि द्वारा विष को दूर करना चाहिये। प्रवाह में इसलिए कि जल में जो विष मिल गया है वह नदी के प्रवाह में बह जाय, ताकि उसका शरीर के साथ पुनः सम्पर्क न हों। कर्वरम् =कर् (कर्म)+ वरम् (श्रेष्ठ) अर्थात् श्रेष्ठकर्म। "कर्वरम् कर्मनाम" (निघं० २।१)। "कर्वराणि यज्ञादिकर्माणि" (सायण, अथर्व० ७।३।१)। पौञ्जिष्ठः=पुञ्जिष्ठ एव पौञ्जिष्ठः, स्वार्थे अण्। पुञ्जिष्ठः= पुञ्ज में रहने वाला। आश्रमवासियों के समूह में रहने वाला वानप्रस्थी। वह जैसे श्रेष्ठकर्मों यज्ञादि का दृढ़तापूर्वक ग्रहण करता है, वैसे दृढ़तापूर्वक सर्प के सिर को पकड़े रहना चाहिये। व्यनिजम्=वि+अट्+णिजिर् शौचपोषणयोः (जुहोत्यादिः), तथा णिजि शुद्धौ (अदादिः)]।
इंग्लिश (4)
Subject
Snake poison cure
Meaning
I have caught on the heads of snakes as a fisherman does his job, and, having gone to the deep middle of the river, I have washed away the poison of the snakes.
Translation
I have grabbed the heads (of the snakes), just as a fisherman grabs a spotted (fish) going to the middle of the stream (sindhu-madhya), I have washed the poison off the snake:
Translation
I, the man of drug and skill seize the heads of the snakes and I entering into the stream of river wash away the poison of snake as a man clever in swimming goes directly into the current of the river.
Translation
Their heads have I seized firmly as a fisherman grasps the spotted prey. Wading half through the stream have I washed off the poison of the serpents.
Footnote
Their: Serpents. I: A skilled snake-charmer.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१९−(सम्) सम्यक् (हि) यस्मात् कारणात् (शीर्षाणि) मस्तकानि (अग्रभम्) अग्रहम्। अग्रहीषम् (पौञ्जिष्ठः) प्र−ओजिष्ठः प्र−ओजस्वी-इष्ठन्। विन्मतोर्लुक्। पा० ५।३।६५। विनो लुक् छान्दसं रूपम्। ओजिष्ठः। पराक्रमितमः (इव) यथा (कर्वरम्) कॄगृशॄवृञ्चतिभ्यः ष्वरच्। उ० २।१२१। कॄ क्षेपे हिंसायां च यद्वा कृञ् हिंसायाम्−ष्वरच्। हिंसकम्। व्याघ्रम्। राक्षसम् (सिन्धोः) नद्याः (मध्यम्) (परेत्य) दूरं गत्वा (वि) विविधम् (अनिजम्) णिजिर् शौचपोषणयोः−लुङ् (अहेः) म० १। सर्पस्य (विषम्) ॥
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