अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 17
ऋषिः - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त
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इन्द्रो॒ मेऽहि॑मरन्धय॒त्पृदा॑कुं च पृदा॒क्वम्। स्व॒जं तिर॑श्चिराजिं कस॒र्णीलं॒ दशो॑नसिम् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । मे॒ । अहि॑म् । अ॒र॒न्ध॒य॒त् । पृदा॑कुम् । च॒ । पृ॒दा॒क्वम् । स्व॒जम् । तिर॑श्चिऽराजिम् । क॒स॒र्णील॑म् । दशो॑नसिम् ॥४.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रो मेऽहिमरन्धयत्पृदाकुं च पृदाक्वम्। स्वजं तिरश्चिराजिं कसर्णीलं दशोनसिम् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । मे । अहिम् । अरन्धयत् । पृदाकुम् । च । पृदाक्वम् । स्वजम् । तिरश्चिऽराजिम् । कसर्णीलम् । दशोनसिम् ॥४.१७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
सर्प रूप दोषों के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवान् पुरुष ने (मे) मेरे लिये (पृदाकुम्) फुँसकारनेवाले (अहिम्) साँप (च) और (पृदाक्कम्) फुँसकारती हुई साँपिन को, (स्वजम्) स्वज [लिपट जानेवाले], (तिरश्चिराजिम्) तिरछी धारावाले, (कसर्णीलम्) बुरे मार्ग में छिपे हुए और (दशोनसिम्) काटकर हानि पहुँचानेवाले [साँप] को (अरन्धयत्) नाश किया है ॥१७॥
भावार्थ
मन्त्र १६ के समान है ॥१७॥
टिप्पणी
१७−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (मे) मह्यम् (अहिम्) महाहिंसकम् (अरन्धयत्) म० १० मारितवान् (पृदाकुम्) कुत्सितशब्दकारिणम् (च) (पृदाक्कम्) कुत्सितशब्दकरी सर्पिणीम् (स्वजम्) आलिङ्गनशीलम् (तिरश्चिराजिम्) म० १३। तिर्यगवस्थितरेखम् (कसर्णीलम्) म० ५। कुत्सितमार्गे लीनं श्लिष्टम् (दशोनसिम्) दंश दंशने-घञर्थे क। सानसिवर्णसि०। उ० ४।१०७। ऊन परिहाणे-असि। दशेन दंशनेन ऊनसिर्हानिर्यस्मात् तं सर्पम् ॥
विषय
'अहि' आदि का विनाश
पदार्थ
१. (इन्द्रः) = शत्रु-विद्रावक प्रभु (मे) = मेरी (अहिम्) = आहन्ति-विहिंसिका वृत्ति को (अरन्धयत्) = नष्ट कर दें, (पृदाकुंच पृदाक्वम्) = [पिपर्ति स्वम्, पर्द कुत्सिते शब्दे पर्देर्नित् संप्रसारणमनोपश्च' उ० ३.८०] स्वात्मम्भरिता [स्वार्थवृत्ति] को और कुत्सित शब्दोच्चारण-वृत्ति को नष्ट करने का अनुग्रह करें। २. (स्वजम्) = चिपट जानेवाली व अत्यन्त विक्षिस गतिवाली तृष्णावृत्ति को, तिरचिरा जिम्-कुटिलता व छल-छिद्र की पंक्तियों को, (कसर्णीलम्) = विनाशक धन [निधि] को अन्यायोपार्जित धन को तथा (दशोनसिम्) = इन्द्रिय दशक में उत्पन्न हो जानेवाली [ऊनसि-ऊन परिहाणे] हानि को दूर करें।
भावार्थ
प्रभुकृपा से हम 'हिंसा की वृत्ति, स्वार्थ व कुटिल शब्दोच्चारण की वृत्ति, तृष्णा, छल-छिद्र, अन्यायोपार्जित धन तथा इन्द्रिय दशक में आ जानेवाली हानि' से बचें।
भाषार्थ
(इन्द्रः) इन्द्र ने (मे) मेरे [निवास स्थान से या मेरी सुरक्षा के लिये] (अहम्) सांप् को (अरन्धयत्) रोंध डाला है, (पृदाकुम् च) और पृदाकु-नर को (च पृदाक्वम्) और पृदाकू-मादा को, (स्वजम्) स्वज को, (तिरश्रिचराजिम्) तिरश्चिराजि को, (दशोनसिम्) तथा दशोनसि को रोंध डाला है।
टिप्पणी
[इन्द्रः= सम्भवतः विद्युत्-प्रयोक्ता। अरन्धयत्=राध हिंसासंराध्योः (दिवादिः); रध्यतिर्वशगमने (निरुक्त ६।६।३२)। दशोनसिम्= दशन अर्थात् दन्त के सदृश+नसिम्। नासिका वाले सांप को, अर्थात् जिस की नाक पर दशन अर्थात् दान्त के सदृश कठोर विन्दु सा हो, उसे। पैप्पलाद-शाखा में "इन्द्रः" के स्थान में "पैद्वः" [न्योला] पाठ है]।
इंग्लिश (4)
Subject
Snake poison cure
Meaning
For my protection, Indra has destroyed the Prdaku, deadly snake, both male and female, the Svaja, the Tirashchiraji, and Dashonasi.
Translation
The resplendent one has put in my power the serpent, the viper male and the viper female, the constrictor, the crosslined, the kasarņila, and the dasonasi.
Translation
The herb called Indra destroys for my good male snake, the female viper, Svaja, Tiraschiraji, the snake having lines on its body, Kasarnil and Dashonasim.
Translation
An expert physician hath killed for my safety, the female viper and the male, the adder, him with stripes athwart, Kasarpila, Dasonasi.
Footnote
kasarpila and Dasonasi are species of serpents. Indra is the name of a drug as well. This medicine kills all kinds of serpents.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१७−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (मे) मह्यम् (अहिम्) महाहिंसकम् (अरन्धयत्) म० १० मारितवान् (पृदाकुम्) कुत्सितशब्दकारिणम् (च) (पृदाक्कम्) कुत्सितशब्दकरी सर्पिणीम् (स्वजम्) आलिङ्गनशीलम् (तिरश्चिराजिम्) म० १३। तिर्यगवस्थितरेखम् (कसर्णीलम्) म० ५। कुत्सितमार्गे लीनं श्लिष्टम् (दशोनसिम्) दंश दंशने-घञर्थे क। सानसिवर्णसि०। उ० ४।१०७। ऊन परिहाणे-असि। दशेन दंशनेन ऊनसिर्हानिर्यस्मात् तं सर्पम् ॥
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