अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 26
ऋषिः - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा बृहतीगर्भा ककुम्मती भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त
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आ॒रे अ॑भूद्वि॒षम॑रौद्वि॒षे वि॒षम॑प्रा॒गपि॑। अ॒ग्निर्वि॒षमहे॒र्निर॑धा॒त्सोमो॒ निर॑णयीत्। दं॒ष्टार॒मन्व॑गाद्वि॒षमहि॑रमृत ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒रे । अ॒भू॒त् । वि॒षम् । अ॒रौ॒त् । वि॒षे । वि॒षम् । अ॒प्रा॒क् । अपि॑ । अ॒ग्नि: । वि॒षम् । अहे॑: । नि: । अ॒धा॒त् । सोम॑: । नि: । अ॒न॒यी॒त् । दं॒ष्टार॑म् । अनु॑ । अ॒गा॒त् । वि॒षम् । अहि॑: । अ॒मृ॒त॒: ॥४.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
आरे अभूद्विषमरौद्विषे विषमप्रागपि। अग्निर्विषमहेर्निरधात्सोमो निरणयीत्। दंष्टारमन्वगाद्विषमहिरमृत ॥
स्वर रहित पद पाठआरे । अभूत् । विषम् । अरौत् । विषे । विषम् । अप्राक् । अपि । अग्नि: । विषम् । अहे: । नि: । अधात् । सोम: । नि: । अनयीत् । दंष्टारम् । अनु । अगात् । विषम् । अहि: । अमृत: ॥४.२६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
सर्प रूप दोषों के नाश का उपदेश।
पदार्थ
वह [विष] (आरे) दूर (अभूत्) हुआ है, [क्योंकि] उस [वैद्य] ने (विषम्) विष को (अरौत्) रोक दिया है, और (विषे) विष में (विषम्) विष को (अपि) भी (अप्राक्) मिला दिया है। (सोमः) ऐश्वर्यवान् (अग्निः) ज्ञानी [पुरुष] ने (अहेः) महाहिंसक [साँप के] (विषम्) विष को (निः अधात्) निकाल लिया है और (निः अनयीत्) बाहिर पहुँचा दिया है। (विषम्) विष (दंष्टारम् अनु) काटनेवाले के साथ (अगात्) गया है और (अहिः) साँप (अमृत) मर गया है ॥२६॥
भावार्थ
इस मन्त्र का मिलान अ० ७।८८।१। से भी करो। जैसे सद्वैद्य विष ओषधि द्वारा विषरोग को हटाता है, वैसे ही विद्वान् एक इन्द्रिय को वश में करके दूसरे इन्द्रियदोष को मिटावे ॥२६॥ इति द्वितीयोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
२६−(आरे) दूरे-निघ० ३।२६। (अभूत्) (विषम्) (अरौत्) रुधिर् आवरणे-छान्दसो लुङ्। अरुधत्। अरौत्सीत् (विषे) (विषम्) (अप्राक्) पृची सम्पर्के लुङ्। अपर्चीत् (अपि) एव (अग्निः) ज्ञानवान् पुरुषः (विषम्) (अहेः) सर्पस्य (निरधात्) बहिर्धृतवान् (निर् अनयीत्) णीञ् प्रापणे। अनैषीत्। प्रापितवान् (दंष्टारम्) दंशकं सर्पम् (अनु) अनुसृत्य (अगात्) अगच्छत् (विषम्) (अहिः) (अमृत) मृङ् प्राणत्यागे−लुङ्। मृतवान् ॥
विषय
विष-चिकित्सा क्रम
पदार्थ
१. (विषम् आरे अभूत्) = विष दूर हो गया है, चूंकि वैद्य ने विष (अरौत्) = विष को रोक दिया है। दंश स्थान से कुछ ऊपर कसकर पट्टी बाँध देने से शरीर में विष फैला नहीं। अब वैद्य ने (विषे) = उस विष में (विषम्) = सजातीय विष को (अपि) = भी (अप्राक्) = [अपर्चीत] मिला दिया है। २. अब वैद्य ने उस दंशस्थान को जलाया है और इसप्रकार (अग्निः) = अग्नि ने (आहे: विषम्) = सर्प के विष को (निरधात्) = बाहर कर दिया है। (सोमः निः अनयीत्) = शरीरस्थ सोमशक्ति ने भी इसे बाहर प्राप्त कराया है अथवा सोम ओषधि इसे बाहर ले जाती है। इसप्रकार करने से (दंष्टारम्) = डसनेवाले साँप को ही (विषम् अनु अगात्) = विष फिर से प्राप्त हुआ है और (अहिः) = अमृत-साँप मर गया है।
भावार्थ
सर्प आदि के दंश में पहले उस स्थान से कुछ ऊपर पट्टी बाँध देना आवश्यक है, पुनः सजातीय विष को वहाँ संपृक्त करना ठीक है। अग्नि से उस स्थान को दग्ध करना चाहिए, 'सोम' नामक ओषधि का प्रयोग वाञ्छनीय है। ऐसा करने पर सर्पविष मानो उसी सर्प को प्राप्त हो जाता है और उसकी मृत्यु का कारण बनता है। ___ पञ्चम सूक्त के १ से २४ तक मन्त्रों का ऋषि सिन्धुदीप' है। "सिन्धवः आप: द्विः गताः यस्मिन' शरीर में रेत:कणों के रूप में प्रवाहित होनेवाले जल दो प्रकार से शरीर में शक्तिरूप से तथा मस्तिष्क में दीति के रूप से प्राप्त हुए हैं जिसमें, वह व्यक्ति 'सिन्धुद्वीप है। यह इन 'आप:' [रेत:कणरूप जलों] को सम्बोधित करता हुआ कहता है कि -
भाषार्थ
(आरे) दूर (अभूत्) हो गया है (विषम्) विष; (अरौत्) और रुक गया है, (अपि) तथा (विषे) विष में (विषम्) विष (अप्राक्) सम्पृक्त हो गया है (अग्निः) अग्नि ने (अहेः विषम्) सांप के विष को (निर् अधात्) [शरीर से] निकाल दिया है, (सोमः) सोम (निर् अनयीत्) इसे निकाल लाया है। (विषम्) विष ने (दंष्टारम्) काटने वाले का (अनु अगात्) अनुगमन किया है, (अहिः) सांप (अमृत) मर गया है।
टिप्पणी
[अरौत्= अट्+रुध् (आवरणे, रुधादिः)। अप्राक्= अद्+पृची, (सम्पर्के, अदादिः)। “विष में विष सम्पृक्त हो गया है"=सर्प के विष में उसका विनाशक विष मिला दिया है। विनाशक= Antidote= counterdoison. होम्योपेथिक-चिकित्सा में विष के विनाशक नाना विषों का वर्णन हुआ है। लोकोक्ति भी है "विषस्य विषमौषधम्"। अग्निः= सर्पकटे स्थान को अग्नि द्वारा या धधकते अङ्गारे द्वारा सेक देना चाहिये, परन्तु तत्काल, जब तक कि विष अभी त्वचा पर ही हो "त्वक्स्थे प्रदेहसेकादि" (विषाधिकारः, श्लोक १२, चक्रदत्त)। सोमः= सोमरस का पान, तथा सोम अर्थात् जल चिकित्सा, यथा "अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा। अग्नि च विश्वशम्भुवम् ॥ (अथर्व० १।६।२), अर्थात् जलों में सब भेषज हैं, और जलों में अग्नि है जो कि सब रोगों को शान्त करती है। अन्वगात्= अर्थात् जैसे सांप मार दिया है वैसे उस का विष भी समाप्त कर दिया है, मानो सांप का अनुमगमन, उस के विष ने किया हैं]।
इंग्लिश (4)
Subject
Snake poison cure
Meaning
Arrested, the poison is off, far out, neutralised as poison is mixed in poison (of the antidote). Agni, fire of the antidote, has taken out the poison. Soma has taken it out. The poison is gone back to the biter snake. The snake is dead.
Translation
It was far away. Still it obstructed the poison. It has mingled the poison with poison. The fire has determined the poison of the snake and soma (cure-juice) has drawn it out. The poison of the snake has gone back to-thé-stinger (danstaram or biter) The snake has died:
Translation
To make the poison flee away one should check it by binding the portion where the bite remains other poison be provided to make it go; fire removes the venom of snake; Soma, the herb drives away the poison; and the poison be returned to snake so that it be dead.
Translation
For removing the effect of poison, let a strong bandage be fastened on the affected part, let poison be added to counteract the effect of poison. Let fire eradicate the poison. Let assuaging Soma plant neutralize the poison. Let poison return to the biting snake, so that it be killed.
Footnote
In this verse various methods of nullifying the effect of snake’s poison are mentioned (1) Fastening a strong bandage on the affected part, to prevent the poison from spreading. (2) Injection of poison to neutralise the poison. (3) Putting hot bandage on the affected part (4) Applying the plaster of Soma, a medicinal herb.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२६−(आरे) दूरे-निघ० ३।२६। (अभूत्) (विषम्) (अरौत्) रुधिर् आवरणे-छान्दसो लुङ्। अरुधत्। अरौत्सीत् (विषे) (विषम्) (अप्राक्) पृची सम्पर्के लुङ्। अपर्चीत् (अपि) एव (अग्निः) ज्ञानवान् पुरुषः (विषम्) (अहेः) सर्पस्य (निरधात्) बहिर्धृतवान् (निर् अनयीत्) णीञ् प्रापणे। अनैषीत्। प्रापितवान् (दंष्टारम्) दंशकं सर्पम् (अनु) अनुसृत्य (अगात्) अगच्छत् (विषम्) (अहिः) (अमृत) मृङ् प्राणत्यागे−लुङ्। मृतवान् ॥
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