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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 29
    ऋषिः - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
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    उद्यो॑धन्त्य॒भि व॑ल्गन्ति त॒प्ताः फेन॑मस्यन्ति बहु॒लांश्च॑ बि॒न्दून्। योषे॑व दृ॒ष्ट्वा पति॒मृत्वि॑यायै॒तैस्त॑ण्डु॒लैर्भ॑वता॒ समा॑पः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । यो॒ध॒न्ति॒ । अ॒भि । व॒ल्ग॒न्ति॒। त॒प्ता: । फेन॑म् । अ॒स्य॒न्ति॒ । ब॒हु॒लान् । च॒ । बि॒न्दून् । योषा॑ऽइव । दृ॒ष्ट्वा । पति॑म् । ऋत्वि॑जाय । ए॒तै: । त॒ण्डु॒लै: । भ॒व॒त॒ । सम् । आ॒प॒: ॥३.२९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्योधन्त्यभि वल्गन्ति तप्ताः फेनमस्यन्ति बहुलांश्च बिन्दून्। योषेव दृष्ट्वा पतिमृत्वियायैतैस्तण्डुलैर्भवता समापः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । योधन्ति । अभि । वल्गन्ति। तप्ता: । फेनम् । अस्यन्ति । बहुलान् । च । बिन्दून् । योषाऽइव । दृष्ट्वा । पतिम् । ऋत्विजाय । एतै: । तण्डुलै: । भवत । सम् । आप: ॥३.२९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 29
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

    पदार्थ

    वे [जल] (तप्ताः) तप्त होकर (उत् योधन्ति) भिड़ जाते हैं, (अभि) सब ओर को (वल्गन्ति) फुदकते हैं, (फेनम्) फेन को (च) और (बहुलान्) बहुत से (बिन्दून्) बिन्दुओं को (अस्यन्ति) फेंकते हैं। (आपः) हे आप्त प्रजाओ ! (एतैः) इन (तण्डुलैः) चावलों [अन्न आदि] के साथ (सं भवत) तुम शक्तिमान् बनो, (इव) जैसे (योषा) सेवायोग्य पत्नी (ऋत्वियाय) ऋतु [गर्भधारणयोग्य काल] पाने के लिये (पतिम्) पति को (दृष्ट्वा) देखकर [शक्तिवाली होती है] ॥२९॥

    भावार्थ

    जैसे जल अग्नि के संयोग से खौलने लगता है, अथवा जैसे पत्नी ऋतुकाल में पति को प्राप्त होकर अभीष्ट सन्तान उत्पन्न करती है, वैसे ही सब पुरुषों को पुरुषार्थ के साथ अपना अभीष्ट सिद्ध करना चाहिये ॥२९॥

    टिप्पणी

    २९−(उद्योधन्ति) उत्कर्षेण संप्रहरन्ति (अभि) सर्वतः (वल्गन्ति) उत्प्लुत्य गच्छन्ति (तप्ताः) अग्निसंयुताः सत्यः। आपः−इति शेषः (फेनम्) फेनमीनौ। उ० ३।३। स्फायी वृद्धौ−नक्। बुद्बुदाकारं पदार्थम् (अस्यन्ति) क्षिपन्ति (बहुलान्) बहून् (च) (बिन्दून्) (योषा) सेवनीया पत्नी (इव) यथा (दृष्ट्वा) निरीक्ष्य (पतिम्) भर्तारम् (ऋत्वियाय) अ० ३।२०।१। छन्दसि घस्। पा० ५।१।१०६। ऋतु−घस्, इयादेशः। क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः। पा० २।३।१४। ऋतुं गर्भाधानयोग्यकालं प्राप्तुम् (एतैः) (तण्डुलैः) (संभवत) शक्तिमत्यो भवत (आपः) हे आप्ताः प्रजाः ॥

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    विषय

    अक्रोधेन जयेत् क्रोधम्

    पदार्थ

    १. प्राकृतजन तो (उद्योधन्ति) = परस्पर युद्ध करने लगते हैं, (अभिवल्गन्ति) = एक दूसरे पर आक्रमण करते हैं, (तप्ता:) = क्रोधसंतप्त हुए-हुए (फेनम् अस्यन्ति) = ओष्ठप्रान्तों से आग को छोड़ते हैं, (च) = और (बहुलान् बिन्दून्) = कितनी ही थूक [ष्ठीवन] की बून्हें उनके मुख से गिरती है, अर्थात् ये प्राकृतजन क्रोध में उन्मत्त-से हो जाते हैं और भला करनेवाले पर भी आक्रमण कर बैठते हैं। २. ऐसा होने पर भी हे (आप:) = आम पुरुषो! आप (ऐतैः तण्डुलै:) = [तदि विध्वंसे] विवंसकारी पुरुषों के साथ भी इस प्रकार प्रेम से (सम्भवत) = मेलवाले होओ-इन्हें भी इसप्रकार प्रेम से ज्ञान देनेवाले बनो (इव) = जैसेकि (योषा) = पत्नी (पतिं दृष्ट्वा) = पति को देखकर (ऋत्वियाय) = ऋतु धर्म के लिए मेलवाली होती है। हे आप्त पुरुषो! इन विध्वंसकों को भी आप इसीप्रकार प्रेम से ज्ञान दो।

    भावार्थ

    प्राकृतजन क्रोध में आकर लड़ते हैं, एक-दूसरे पर आक्रमण करते हैं, क्रोधोन्मत्त होने पर इनके मुख से आग ब थूक भी गिरने लगती है। फिर भी आप्त संन्यासियों को इन्हें प्रेम से ज्ञान देना ही है। इन्हें अक्रोध से उन प्राकृतजनों के क्रोध को जीतना है।

     

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    भाषार्थ

    (तप्ताः) तपे जल (उद् योधन्ति) मानो उछल-उछल कर युद्ध करते हैं, (अभि वल्गन्ति) नाचते हैं या युद्धार्थ चालें चलते हैं, (फेनमस्यन्ति) झाग फैंकते हैं, (च बहूलान् विन्दून) और बहुत बूंदों को फैंकते हैं। (योषा इव) स्त्री जैसे (पति दृष्ट्वा) पति को देखकर (ऋत्वियाय) ऋतुकर्म के लिये (सम् भवति) उस के साथ सम्पर्क करती है वैसे (आपः) हे जलो ! तुम (एतैः तण्डुलैः) इन तण्डुलों के साथ (सम् भवत) सम्पर्क करो।

    टिप्पणी

    [जलों के युद्ध आदि का वर्णन कवितामय है। मन्त्र में जल के लिये "आपः" शब्द पठित है जो कि स्त्रीलिङ्ग है। इस द्वारा स्त्रियों की सेना द्योतित होती है। महर्षि दयानन्द के लेखों में स्त्रीसेना का भी वर्णन हुआ है। तथा मन्त्र में यह भी सूचित किया है कि पति-पत्नी का सम्पर्क केवल ऋतुकाल में ही होना चाहिये। मन्त्रार्थ में जल पद के स्थान में स्त्री लिङ्गी "आपः" पद जानना चाहिये]।

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    विषय

    स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।

    भावार्थ

    ये प्रजाएं (तप्ताः) क्रुद्ध होकर प्रतप्त हांडी के जलों के समान (उद्योधन्ति) खौल खौल कर परस्पर युद्ध करते हैं (अभिवल्गन्ति) उनके समान बुद बुदाकर एक दूसरे के प्रति ललकारते हैं, (फेनम्* अस्यन्ति) खौलते हुए जल जिस प्रकार झाग ऊपर फेंकते हैं उसी प्रकार वे एक दूसरे पर ‘फेन’ वज्र, तलवार एवं तोप आदि बड़े बड़े हननकारी अस्त्रों को फेंकते हैं। और जल जिस प्रकार (बहुलान्) बहुत से (बिन्दून् अस्यन्ति) बिन्दुओं को उड़ाते हैं उसी प्रकार वे भी बहुत से ‘बिन्दु’ गोली, छर्रे आदि छोड़ते हैं। परन्तु हे (आपः) ‘आपः’ आप्त प्रजाजनो ! (योषा) जिस प्रकार स्त्री (पतिम् दृष्ट्वा) पति को देखकर (ऋत्वियाय) ऋतुधर्म, मैथुन के लिये (सम् भवति) उसके साथ मिलकर तन्मय रहती है और जिस प्रकार (आपः तण्डुलैः) जल्द खोलकर भी चावलों के साथ मिल भात के रूप में एक हो जाते हैं उसी प्रकार आप लोग भी (तण्डुलैः) अपने मारने, ताड़ने, घेरने और तानने वालों के साथ भी समयानुसार कार्यवश अपने प्रेम के बल से (सम् भवत) सन्धि करके एक होकर रहो।

    टिप्पणी

    ‘फेनम्’—स्फायी वृद्धौ इत्यतः उणादि प्रत्ययान्तः फेन इति निपात्यते। फेनः परिवृद्धा शक्तिः। ‘तण्डुलाः’—वसूनां वा एतद रूपं यत् तण्डुलाः। तै० ३। ८। १४। ३। ‘विन्दून्’, विदि भिदि अवयवे। भ्वादिः। एतस्मात् उणादिरुः प्रत्ययः। ‘ऋत्वियायेतै’ इति राथकामितः। ‘ऋत्विया वै स्तैतण्डु’ इति० पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Svarga and Odana

    Meaning

    They rise in contest, they dance and rejoice, and heated by the sun they throw up foam and shoot off volleys of droplet bullets. Just as a youthful wife having seen her husband solicits him for romance of the season, so you too, O waters, join the youthful couples, and for those delicious delicacies they would love to enjoy.

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    Translation

    They struggle up, they dance on, being heated; they hurl foam and abundant drops; like a woman that is in her season, seeing her husband, unite yourselves, O waters, with these rice-grains.

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    Translation

    These waters are heated rage and boil in commotion. They cast their foams and a large number of bubbles. Let these drops mingle with these rice as a woman sees her husband and embraces him for co-habitation.

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    Translation

    Just as heated waters rage and boil in agitation, and cast about their foam and countless bubbles, so people fight together, attack each other, use sword, gun, and military arms, and fire bullets and gunpowder. But, O learned people, just as a woman seeing her husband unites with him for cohabitation, and just as boiling water mixes itself with rice to cook it, so should you live together in peace with those who tease and afflict you!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २९−(उद्योधन्ति) उत्कर्षेण संप्रहरन्ति (अभि) सर्वतः (वल्गन्ति) उत्प्लुत्य गच्छन्ति (तप्ताः) अग्निसंयुताः सत्यः। आपः−इति शेषः (फेनम्) फेनमीनौ। उ० ३।३। स्फायी वृद्धौ−नक्। बुद्बुदाकारं पदार्थम् (अस्यन्ति) क्षिपन्ति (बहुलान्) बहून् (च) (बिन्दून्) (योषा) सेवनीया पत्नी (इव) यथा (दृष्ट्वा) निरीक्ष्य (पतिम्) भर्तारम् (ऋत्वियाय) अ० ३।२०।१। छन्दसि घस्। पा० ५।१।१०६। ऋतु−घस्, इयादेशः। क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः। पा० २।३।१४। ऋतुं गर्भाधानयोग्यकालं प्राप्तुम् (एतैः) (तण्डुलैः) (संभवत) शक्तिमत्यो भवत (आपः) हे आप्ताः प्रजाः ॥

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