अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 31
ऋषिः - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
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प्र य॑च्छ॒ पर्शुं॑ त्व॒रया ह॑रौ॒षमहिं॑सन्त॒ ओष॑धीर्दान्तु॒ पर्व॑न्। यासां॒ सोमः॒ परि॑ रा॒ज्यं ब॒भूवाम॑न्युता नो वी॒रुधो॑ भवन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । य॒च्छ॒ । पर्शु॑म् । त्व॒रय॑ । आ । ह॒र॒ । ओ॒षम् । अहिं॑सन्त: । ओष॑धी: । दा॒न्तु॒ । पर्व॑न् । यासा॑म् । सोम॑: । परि॑ । रा॒ज्य᳡म् । ब॒भूव॑ । अम॑न्युता: । न॒: । वी॒रुध॑: । भ॒व॒न्तु॒ ॥३.३१॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र यच्छ पर्शुं त्वरया हरौषमहिंसन्त ओषधीर्दान्तु पर्वन्। यासां सोमः परि राज्यं बभूवामन्युता नो वीरुधो भवन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । यच्छ । पर्शुम् । त्वरय । आ । हर । ओषम् । अहिंसन्त: । ओषधी: । दान्तु । पर्वन् । यासाम् । सोम: । परि । राज्यम् । बभूव । अमन्युता: । न: । वीरुध: । भवन्तु ॥३.३१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परस्पर उन्नति करने का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (पर्शुम्) हँसिया [दराँती] को (प्र यच्छ) ले, (त्वरय=०−या) वेग से (आ हर) ले आ, (ओषधीः) ओषधियों [अन्न आदि] को (अहिंसन्तः) हानि न करते हुए वे [लावा लोग] (पर्वन्) गाँठ पर (ओषम्) झटपट (दान्तु) काटें। (यासाम्) जिन [अन्न आदि] के (राज्यम्) राज्य को (सोमः) चन्द्रमा [वा जल] ने (परि बभूव) घेर लिया था, (अमन्युताः) क्रोध को न फैलाती हुई (वीरुधः) वे ओषधें [अन्न आदि] (नः) हमें (भवन्तु) प्राप्त होवें ॥३१॥
भावार्थ
जैसे जब खेती चन्द्रमा और जल के संयोग से पक जाती है, तब किसान चतुर कटवैयों से यथाविधि कटवा कर अन्न आदि पाता है, वैसे ही विद्वान् पुरुष विद्वानों के संयोग से ईश्वरज्ञान प्राप्त करके सुखी होता है ॥३१॥ पदपाठ में (त्वरय) के स्थान पर [त्वरया] सुबन्त मान कर हम ने अर्थ किया है। यदि तिङन्त होता तो [तिङ्ङतिङः। पा० ८।१।२८।] इस सूत्र से वह सब अनुदात्त होता ॥
टिप्पणी
३१−(प्र यच्छ) नियमय। संगृहाण (पर्शुम्) आङ्परयोः खनिशॄभ्यां डिच्च। उ० १।३३। पर+शॄ हिंसायाम्−कु, अकारलोपः। शस्त्रभेदम्। कुठारादिकम् (त्वरय) त्वरया। वेगेन (आहर) आनय (ओषम्) क्षिप्रम्−निघ० २।१५। (अहिंसन्तः) अहानिं कुर्वन्तः (ओषधीः) अन्नादीन् (दान्तु) लुनन्तु (पर्वन्) पर्वणि। ग्रन्थौ (यासाम्) ओषधीनाम् (सोमः) चन्द्रः जलम् (परि) परितः (राज्यम्) राष्ट्रम् (बभूव) प्राप (अमन्युताः) अमन्यु+तनु विस्तारे−ड, टाप्। अमन्योरक्रोधस्य विस्तारिकाः (नः) अस्मान् (वीरुधः) ओषधयः (भवन्तु) प्राप्नुवन्तु ॥
विषय
उत्तम वानस्पतिक भोजन के लिए
पदार्थ
१. (पशुम्) = परशु को-दराँती को (प्रयच्छ) = प्रकर्षण हाथ में काबू कर । (त्वरया) = शीघ्रता कर। ओषम् आहर-[ओषम् Sharp taste, Pungeney] तीखे स्वाद को दूर कर। ओषधियों को काटनेवाले लोग (ओषधी: अहिंसन्त:) = औषधियों को नष्ट न करते हुए (पर्वन् दान्तु) = पर्व [गाँठ] पर काटें। ओषधियों के मूल को नष्ट न होने देना आवश्यक है। २. चन्द्रमा ओषधियों में रस का सञ्चार करता है, इसी से वह ओषधीश कहलाता है। इसकी किरणों में अमृतरस होता है। उस रस से वह ओषधियों को रसयुक्त करता है, अत: कहते हैं कि (यासां राज्यम्) = जिस राज्य को (सोमः) = यह चन्द्र (परिबभूव) = व्यास करता है। जहाँ-जहाँ ओषधियाँ हैं, वे सब इस चन्द्र से ही रसान्वित की जाती हैं। ये (वीरुधः) = बेलें व वनस्पतियों (न:) = हमारे लिए (अमन्यता: भवन्तु) = क्रोध को दूर करनेवाली हों। चन्द्र के समान ही ये हमारे मनों को आहादमय वृत्तिवाला बनाएँ।
भावार्थ
मनुष्य वानस्पतिक भोजन करनेवाले ही बनें। ये भोजन उन्हें क्रूरवृत्तिवाला न बनाकर कोमल वृत्तिवाला बनाएगा। ओषधियों के मूल को नष्ट न होने दें। उनके ओष [pungency] को दूर करने का प्रयत्न करें। अपरिपक्व फल में 'ओष' का सम्भव होता है।
भाषार्थ
(पर्शुम्१) फरसे (प्र यच्छ) दे, (त्वरय) शीघ्रता कर; (ओषम्) ताकि उषा के आसपास, - (ओषधीः) ओषधियों को - (अहिंसन्तः) उनकी जड़ों की हिंसा न करते हुए (पर्वन्) जोड़ों पर (दान्तु) काटें, (आ हर) और उन्हें ले आ। (यासाम्) जिन ओषधियों के (राज्यम् परि) राज्य पर (सोमः) सोम (बभूव) राजा हुआ है वे (वीरुधः) ओषधियां (नः) हमारे लिये (अमन्युताः) मन्यु का विस्तार न करने वाली (भवन्तु) हों।
टिप्पणी
[अमन्युताः =अ +मन्यु +तन् (विस्तारे)] [१. पर्शुम् = जात्येकवचनम्। काटने वाले नाना व्यक्ति हैं (दान्तु), अतः फरसे भी नाना चाहियें। त्वरण= फरसे देने में शीघ्रता, क्योंकि उषा काल के आसपास ओषधियां काट लेनी हैं। ओषम् = ओषसम्। ओषधीः= बर्हिः (मन्त्र ३२)। अमन्युताः = ये ओषधियां स्वभावों को शीतल कर मन्यु का निराकरण करतीं, और ओषधीः अर्थात् मानसिक गर्मी का धयन अर्थात् पान करती हैं (धेट पाने)। सम्भवतः ये दर्भ या कुशाएं हैं। ओषम् क्षिप्रम् (निघं० २।१५); परन्तु क्षिप्रार्थक "त्वरय" पद मन्त्र में पठित ही है। पर्शु प्रदाता और कटी ओषधियों का आहर्त्ता एक ही व्यक्ति है।]
विषय
स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।
भावार्थ
शान्ति और सुख से युक्त राज्य सम्पादन करने के लिये ओषधियों के दृष्टान्त से दूसरा उपाय उपदेश करते हैं। हे राजन् (पर्शुम्) परशु-फरसा (प्र यच्छ) मजबूती से पकड़ और (त्वरय) शीघ्रता कर, काल को व्यर्थ मत गवां। (ओषम् हर) शीघ्र ले आ। लोग जिस प्रकार (ओषधीः) ओषधियों को (अहिंसन्तः) उनका मूल नाश न करते हुए (पर्वन्) जोड़ पर से काट लेते हैं उसी प्रकार तेरे वीर भी (ओषधीः) प्रजा को सन्ताप देने वालों के मूलों की रक्षा करते हुए या प्रजा को (अहिंसन्त) नाश न करते हुए उनको ही (पर्वन्) पोरु पोरु पर मर्म को (दान्तु) काटें जिसका परिणाम यह होगा कि (यासाम्) जिन प्रजाओं के ओषधियों के समान ही (राज्यं परि) राज्य के ऊपर (सोमः) सोमलता के समान वीर्यवान् या सोम, चन्द्र के समान, आल्हादकारी, प्रजा रंजन में दक्ष राजा (परि बभूव) राज्य करता है वे (वीरुधः) लताओं के समान नाना प्रकार की व्यवस्थाओं से रुद्व या व्यवस्थित प्रजाएं (नः) हमारे प्रति (अमन्युता) मन्यु = क्रोध से रहित (भवन्तु) हों।
टिप्पणी
‘परशुम्’ इति क्वचित् (प्र०) ‘त्वयाहान्त्वहिंस’ (तृ०) ‘सोमेयासां’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Svarga and Odana
Meaning
Take up the sickle, be quick, take the herbs shining at dawn, chipping without damaging the herb at the joint. Let the herbs, of which soma is supremely efficacious, be free from afflictive and outrageous after¬ effects.
Translation
Reach thou forth the sickle, hasten, take quickly; let them, not harming, cut the herbs at the joint; they of whom Soma compassed the kingship — let the plants be without-wrath toward us.
Translation
O man, bring sickle or cutting instrument, hurry up, bring quickly. Harming not them cut the plants on their joints. These are indeed the plants whose king is the Soma. Let these plants do not create wrath in us.
Translation
O agriculturist, take the sickle, use it quickly. Let peasants soon cut the ripe plants and joints without harming their roots. So may the plants be free from wrath against us, they o’er whose realm the Moon or water has won dominion!
Footnote
Moon and water ripen the crop. Plants should not be uprooted. They will not feel angry if their roots are not cut. Just as wise peasants cut .with the sickle the crop ripened by the Moon and water, and use the grain for their sustenance, so do people become happy by acquiring knowledge about God from the learned.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३१−(प्र यच्छ) नियमय। संगृहाण (पर्शुम्) आङ्परयोः खनिशॄभ्यां डिच्च। उ० १।३३। पर+शॄ हिंसायाम्−कु, अकारलोपः। शस्त्रभेदम्। कुठारादिकम् (त्वरय) त्वरया। वेगेन (आहर) आनय (ओषम्) क्षिप्रम्−निघ० २।१५। (अहिंसन्तः) अहानिं कुर्वन्तः (ओषधीः) अन्नादीन् (दान्तु) लुनन्तु (पर्वन्) पर्वणि। ग्रन्थौ (यासाम्) ओषधीनाम् (सोमः) चन्द्रः जलम् (परि) परितः (राज्यम्) राष्ट्रम् (बभूव) प्राप (अमन्युताः) अमन्यु+तनु विस्तारे−ड, टाप्। अमन्योरक्रोधस्य विस्तारिकाः (नः) अस्मान् (वीरुधः) ओषधयः (भवन्तु) प्राप्नुवन्तु ॥
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