अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 58
ऋषिः - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्र्यवसाना सप्तपदा शङ्कुमत्यतिजागतशाक्वरातिशाक्वरधार्त्यगर्भातिधृतिः
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
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उदी॑च्यै त्वा दि॒शे सोमा॒याधि॑पतये स्व॒जाय॑ रक्षि॒त्रेऽशन्या॒ इषु॑मत्यै। ए॒तं परि॑ दद्म॒स्तं नो॑ गोपाय॒तास्माक॒मैतोः॑। दि॒ष्टं नो॒ अत्र॑ ज॒रसे॒ नि ने॑षज्ज॒रा मृ॒त्यवे॒ परि॑ णो ददा॒त्वथ॑ प॒क्वेन॑ स॒ह सं भ॑वेम ॥
स्वर सहित पद पाठउदी॑च्यै । त्वा॒ । दि॒शे । सोमा॑य । अधि॑ऽपतये । स्व॒जाय॑ । र॒क्षि॒त्रे । अ॒शन्यै॑ । इषु॑ऽमत्यै । ए॒तम् । परि॑। द॒द्म॒: । तम् । न॒: । गो॒पा॒य॒त॒ ।आ । अ॒स्माक॑म् । आऽए॑तो: । दि॒ष्टम् । न॒: । अत्र॑ । ज॒रसे॑ । नि । ने॒ष॒त् । ज॒रा । मृ॒त्यवे॑ । परि॑ । न॒:। द॒दा॒तु॒ । अथ॑ । प॒क्वेन॑ । स॒ह । सम् । भ॒वे॒म॒ ॥३.५८॥
स्वर रहित मन्त्र
उदीच्यै त्वा दिशे सोमायाधिपतये स्वजाय रक्षित्रेऽशन्या इषुमत्यै। एतं परि दद्मस्तं नो गोपायतास्माकमैतोः। दिष्टं नो अत्र जरसे नि नेषज्जरा मृत्यवे परि णो ददात्वथ पक्वेन सह सं भवेम ॥
स्वर रहित पद पाठउदीच्यै । त्वा । दिशे । सोमाय । अधिऽपतये । स्वजाय । रक्षित्रे । अशन्यै । इषुऽमत्यै । एतम् । परि। दद्म: । तम् । न: । गोपायत ।आ । अस्माकम् । आऽएतो: । दिष्टम् । न: । अत्र । जरसे । नि । नेषत् । जरा । मृत्यवे । परि । न:। ददातु । अथ । पक्वेन । सह । सम् । भवेम ॥३.५८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परस्पर उन्नति करने का उपदेश।
पदार्थ
(उदीच्यै दिशे) उत्तर वा बाईं दिशा में जाने के निमित्त (सोमाय) सब जगत् के उत्पन्न करनेवाले (अधिपतये) अधिष्ठाता, (स्वजाय) अच्छे प्रकार अजन्मे [अथवा सब में चिपटे हुए] (रक्षित्रे) रक्षक परमेश्वर को (इषुमत्यै) तीरवाली [वा हिंसावाली] (अशन्यै) बिजुली हटाने के लिये (एतम्) इस (त्वा) तुझे [जीवात्मा को] .... [मन्त्र ५५] ॥५८॥
भावार्थ
मन्त्र ५५ देखो ॥५६॥
टिप्पणी
५८−(उदीच्यै दिशे) म० ५५। उत्तरां वामभागस्थां वा दिशां गन्तुम् (सोमाय) सर्वजगदुत्पादकाय (स्वजाय) अ० ३।२७।४। सुष्ठु अजन्मने। यद्वा, ष्वञ्ज सङ्गे−क। सर्वालिङ्गनशीलाय (इषुमत्यै अशन्यै) बाणवतीं हिंसावतीं वा विद्युतं निवारयितुम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
उदीच्यै दिशे
पदार्थ
१. प्रभु कहते हैं कि अब प्रत्याहार का पाठ पढ़ने पर (एतं त्वा) = इस तझको (उदीच्यै दिशे) = [उत् अञ्च] इस ऊपर उठने की-उन्नति की दिशा के लिए सौंपते हैं। प्रत्याहार के होन पर ही उन्नति सम्भव होती है। इस (सोमाय अधिपतये) = दिशा का अधिपति सोम है सौम्य-विनीत । विनीतता ही उत्थान का कारण बनती है 'नम्रत्वेनोन्नतिमन्तः । (स्वजाय रक्षित्रे) = [सु अज] उत्तमता से गतिमय होनेवाला, कर्तव्य-कमों में लगे रहनेवाला व्यक्ति ही उन्नति की दिशा का रक्षक है। (अशन्यै इषुमत्ये) = [अशनि: fire] निरन्तर ऊर्व जलनेवाली अग्नि इसी उन्नति की दिशा की प्रेरणा दे रही है। शेष पूर्ववत्।
भावार्थ
प्रत्याहार का पाठ हमें उन्नति की दिशा में चलने योग्य बनाएगा । यदि हम सौम्य बने रहेंगे तभी उन्नति के अधिपति भी होंगे। निरन्तर क्रियाशीलता इस उन्नति का रक्षण करेगी और ऊर्ध्वज्वलनवाली अग्नि हमें निरन्तर उन्नति की प्रेरणा देती है।
भाषार्थ
(उदीच्यै दिशे) उत्तर दिशा के लिये (अधिपतये सोमाय) अधिपति उत्पादक के लिये, (स्वजाय रक्षित्रे) स्व सदृशों के उत्पादक रक्षक के लिये, इषु वाली अशनि१ अर्थात् विद्युत् की तरह व्यापक परमेश्वर के लिये (एतं त्वा) इस तुझ को० । दिष्टं नो०। पूर्ववत् (५५)।
टिप्पणी
[उत्तर दिशा के साथ "सोम" का सम्बन्ध दर्शाया है। सोम का अर्थ वीर्य भी होता है, देखो (अथर्व १४।१।१-५) मन्त्रों की व्याख्या "अथर्ववेदभाष्य, जिल्द ३ ग्रन्थकार कृत)। सोमः= सु (प्रसवे) + मन् (उणा० १।१४०)। सुमन् का विकृतरूप है semen (वीर्य)। सोम अर्थात् semen प्राणिजगत् का उत्पादक है। सोम से जो प्राणी उत्पन्न होते हैं वे "स्वज" होते हैं, वीर्यदाता के स्वसदृशों के उत्पादक होते हैं, स्वज= (स्व + ज)। पक्षियों, पशुओं, मनुष्यों, कृमियों आदि में "स्वज" का नियम दृष्टिगोचर होता है। परमेश्वर उदीची दिशा के प्राणियों का उत्पादक है, इसलिये परमेश्वर को भी सोम अर्थात् उत्पादक कहा है। प्राणि जगत के उत्पादन द्वारा परमेश्वर प्राणिजगत् की स्वसदृश वंश परम्परा की रक्षा करता है। उत्तर दिशा में विविध प्रकार के तथा निज सृष्टि में श्रेष्ठ तथा सर्वश्रेष्ठ मनुष्य प्राणियों के उत्पादक होने से, उत्तर दिशा के साथ परमेश्वर के सोमस्वरूप का सम्बन्ध दर्शाया है। अशनि का व्यवहार यतः उत्तरदिशा में होता है, इसलिये अशनि को इषु कहा है। "अशनि" सम्भवतः उत्तर दिशा में वर्तमान चुम्बक शक्ति या "उत्तरध्रुवीय प्रकाश" भी हो, देखो मन्त्र (५८) की टिप्पणी] [१. अथवा अशनिः =Aurora Borealis. The goddess of dawn. A luminous meteoric phenomenon of electrical character, Seen in and towards the polar regions, with a tremulous motion, and giving forth streams of light.]
विषय
स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।
भावार्थ
(उदीच्ये दिशे) उत्तर दिशा के समान, उन्नत विशाल, (सोमाय अधिपतये) शान्तिदायक सोम चन्द्र और सोम = सोमलता के समान शान्तिदायक स्वामी (स्वजाय रक्षित्रे) स्वतः उत्पन्न, स्वयंभू, स्वयं अपने अमित सामर्थ्य से बने, सबके रक्षक (अशन्यै इषुमत्यै) अशनि विद्युत् के समान इषु-सर्व-प्रेरक बल से सम्पन्न तुझको (एतं तं परिदद्मः०) हम यह राष्ट्र और हे भगवन् ! यह देह सौंपते हैं। इत्यादि पूर्ववत्।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Svarga and Odana
Meaning
We deliver you unto the Northern quarter, to Soma, lord self-existent protector, thunderous wielder of the vibrations of peace and exhilaration. May Soma protect this our brother on his onward journey. May this lord guide us to our destined goal till the completion and fulfilment of our existence on earth and deliver us to death and divine judgement for our onward journey with the ripeness of our karma and maturity of our existential self.
Translation
To the northern quarter, to Soma as overlord, to the constrictor as defender, to the thunderbolt having arrows, we commit thee here; guard you etc.etc.
Translation
For taking use from them, we offer oblation in Yajna fire to the name of northern region, Soma controlling the region, Svaja, protecting all thunder-bolt possessing various powers as arrow for germs and insects. Let......rest is like previous.
Translation
We present thee, O soul, to the northern region, to God, the Creator and Embodiment of peace, to the Unborn God, our Protector through His streams of unbounded knowledge! O learned persons, preserve the soul for us, for free actions! May God conduct us to noble deeds, to full old age. May old age deliver us to death. May we then unite with the Unwavering God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५८−(उदीच्यै दिशे) म० ५५। उत्तरां वामभागस्थां वा दिशां गन्तुम् (सोमाय) सर्वजगदुत्पादकाय (स्वजाय) अ० ३।२७।४। सुष्ठु अजन्मने। यद्वा, ष्वञ्ज सङ्गे−क। सर्वालिङ्गनशीलाय (इषुमत्यै अशन्यै) बाणवतीं हिंसावतीं वा विद्युतं निवारयितुम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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