अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 34
ऋषिः - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - विराड्गर्भा त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
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ष॒ष्ट्यां श॒रत्सु॑ निधि॒पा अ॒भीच्छा॒त्स्वः प॒क्वेना॒भ्यश्नवातै। उपै॑नं जीवान्पि॒तर॑श्च पु॒त्रा ए॒तं स्व॒र्गं ग॑म॒यान्त॑म॒ग्नेः ॥
स्वर सहित पद पाठष॒ष्ट्याम् । श॒रत्ऽसु॑ । नि॒धि॒ऽपा: । अ॒भि । इ॒च्छा॒त् । स्व᳡: । प॒क्वेन॑ । अ॒भि । अ॒श्न॒वा॒तै॒ । उप॑ । ए॒न॒म् । जी॒वा॒न् । पि॒तर॑: । च॒ । पु॒त्रा: । ए॒तम् । स्व॒:ऽगम् । ग॒म॒य॒ । अन्त॑म् । अ॒ग्ने: ॥३.३४॥
स्वर रहित मन्त्र
षष्ट्यां शरत्सु निधिपा अभीच्छात्स्वः पक्वेनाभ्यश्नवातै। उपैनं जीवान्पितरश्च पुत्रा एतं स्वर्गं गमयान्तमग्नेः ॥
स्वर रहित पद पाठषष्ट्याम् । शरत्ऽसु । निधिऽपा: । अभि । इच्छात् । स्व: । पक्वेन । अभि । अश्नवातै । उप । एनम् । जीवान् । पितर: । च । पुत्रा: । एतम् । स्व:ऽगम् । गमय । अन्तम् । अग्ने: ॥३.३४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परस्पर उन्नति करने का उपदेश।
पदार्थ
(षष्ठ्याम्) साठ [बहुत] (शरत्सु) बरसों में (निधिपाः) निधियों का रक्षक [मनुष्य] (स्वः) सुख को (पक्वेन) परिपक्व [ज्ञान] के साथ (अभि इच्छात्) सब ओर खोजे और (अभि) सब प्रकार (अश्नवातै) प्राप्त करे। (पितरः) पितर [रक्षक ज्ञानी] (च) और (पुत्राः) पुत्र [कष्ट से बचानेवाले लोग] (एनम्) इस [वीर] के (उप जीवान्) आश्रय से जीवते रहें, [हे परमेश्वर !] (एतम्) इस [वीर] को (अग्नेः) ज्ञान के (अन्तम्) अन्त [सीमा], (स्वर्गम्) सुख समाज में (गमय) पहुँचा ॥३४॥
भावार्थ
जो मनुष्य बड़े अभ्यास से परिपक्व ज्ञानी होकर मोक्षसुख पाता है, उस विद्वान् वीर पुरुष का सब विद्वान् लोग आश्रय लेते हैं, और वह परमेश्वर के अनुग्रह से सब का अग्रगामी होकर आनन्दित होता है ॥३४॥ इस मन्त्र का प्रथम पाद आगे मन्त्र ४१ में है ॥
टिप्पणी
३४−(षष्ठ्याम्) षष्टिसंख्यायुक्तासु। अनेकासु इत्यर्थः (शरत्सु) संवत्सरेषु (निधिपाः) निधिपालकः (अभि इच्छात्) अन्विच्छेत् (स्वः) सुखम् (पक्वेन) दृढज्ञानेन (अभि) (अश्नवातै) प्राप्नुयात् (एनम्) विद्वांसम् (उप जीवान्) लेट्। उपेत्य जीवन्तु (पितरः) पालका विज्ञानिनः (च) (पुत्राः) पुतो नरकात् त्रायकाः पुरुषाः (एतम्) (विद्वांसम्) (स्वर्गम्) सुखप्रापकं लोकम् (गमय) प्रापय (अन्तम्) सीमाम् (अग्नेः) ज्ञानस्य ॥
विषय
षष्ट्यां शरत्सु निधिपाः
पदार्थ
१. (षष्टयां शरत्सु) = जीवन के प्रथम साठ वर्षों में (निधिपाः) = वीर्यरूप निधि [वास्तविक सम्पत्ति] का रक्षक पुरुष (स्वः अभि इच्छात्) = स्वर्ग को प्राप्त करने की कामना करे। यह (पक्वेन) = अपने परिपक्व ज्ञान से अथवा शक्ति के परिपाक से (अभि अश्नवातै) = [स्वः] स्वर्ग को प्राप्त करनेवाला बनता है। यदि एक व्यक्ति ब्रह्मचर्य व गृहस्थ में शक्तिरूप निधि का रक्षण करता है और ज्ञान की परिपक्वता के लिए प्रयत्न करता है, तो उसका घर स्वर्ग क्यों न बनेगा? २. (एनम्) = इसके आश्रय में (पितरः पुत्राः च उपजीवान्) = इसके वृद्ध माता-पिता व सन्तान सुखी व सुन्दर जीवनवाले हों। यह घर में वृद्ध माता-पिता की सेवा करे और सन्तानों का सुन्दर निर्माण करे। हे प्रभो! (एनम्) = इस निधिपा पुरुष को (अग्नेः) = अग्नि के आहवनीय अग्नि के (अन्तम्) = सुन्दर (स्वर्गं गमय) = स्वर्ग को प्राप्त कराइए। यह घर में यज्ञों को करता हुआ घर को स्वर्ग बनाने में समर्थ हो।
भावार्थ
जीवन के प्रथम साठ वर्षों में हम वीर्यरूपनिधि का रक्षण करनेवाले बनें [बाद में तो रक्षण स्वतः ही हो जाता है 'धातुषु क्षीयमाणेषु शमः कस्य न जायते']। शक्तिरक्षण व परिपक्व ज्ञान से हम घर को स्वर्ग बनाएँ। यहाँ पितरों का आदर करें व सन्तानों के निर्माण का ध्यान करें तभी हमारा घर 'यज्ञशील पुरुष का सुन्दर स्वर्ग' बनेगा।
भाषार्थ
(षष्ट्यां शरतु) ६० वर्षों की आयु में (निधिपाः) निधि का रक्षक (स्वः अभि) स्वः की ओर (इच्छात्) जाने की इच्छा करे (पक्वेन) इस प्रकार पकी आयु द्वारा (अभ्यश्नवातै) स्वः को प्राप्त हो। (पितरः च पुत्राः) पिता, माता आदि और पुत्र (एनम् उप) इस के आश्रय पर (जीवान्) जीवें (एतम्) इसे (स्वर्ग गमय) स्वर्ग की ओर भेज, (अग्नेः अन्तम्) और अग्नि क्रिया की समाप्ति की ओर।
टिप्पणी
[निधिपाः= घर के सजाने का रक्षक। ६० वर्षों की आयु होने पर व्यक्ति स्वर्ग धाम की ओर जाना चाहे, और गार्हपत्य तथा आहवनीय अग्नि में की जाने वाली क्रियाओं को समाप्त कर दे। गृह के अवशिष्ट पितर और पुत्र इस द्वारा निर्दिष्ट मार्गों पर जीवन व्यतीत करें। मन्त्र में स्वर्ग पौराणिक-स्वर्ग प्रतीत नहीं होता, जो कि शरीर छोड़ने के पश्चात् प्राप्त हो सकता है। स्वर्ग का अभिप्राय संन्यास प्रतीत होता है, वानप्रस्थ भी नहीं क्योंकि वानप्रस्थ में अग्नि कर्म जारी रहते हैं। मृत्यु के पश्चात् प्राप्त होने वाले स्वर्ग की ओर यदि यह गया तो इस के आश्रय, पितर और पुत्र कैसे जीवन निभाएंगे। ६० वर्ष से अभिप्राय यह प्रतीत होता है कि १० वर्ष की आयु में गुरुकुल में प्रवेश, २४ वर्षो का ब्रह्मचर्य, १ वर्ष विवाह की तय्यारी, २५ वर्ष गृहस्थ, शेष जीवन आत्मोन्नति द्वारा स्वर्ग-भोग के लिये] ।
विषय
स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।
भावार्थ
(निधिपाः) निधि-पृथ्वीरूप राष्ट्र या धन का पालन करने वाला राजा (पष्ट्यां शरत्सु) साठवें वर्ष तक (पक्वेन) अपने परिपक्व सामर्थ्य से (स्वः) स्वर्ग के समान सुखकारी राज्य को (अश्नवातै) भोग करने की (अभि इच्छात्) इच्छा करे। अर्थात्—राजा अपनी आयु के ६० वर्ष तक पृथ्वी को वश कर उसका भोग करे। और (एनम्) इसका आश्रय लेकर (पितरः पुत्राः च) उसके वृद्ध मा, बाप और आचार्य लोग और छोटे पुत्र लोग (उपजीवन्) अपना जीवन व्यतीत करें। (एतम्) उसको (अग्ने) अग्नि के समान शत्रु के सन्तापकारी अग्नि स्वभाव राजा के (अन्तम्) परम, सबसे अन्तिम पद प्राप्त करने के पश्चात् (स्वर्गम्) स्वर्ग के समान सुखमय राज्य को (गमय) प्राप्त करा।
टिप्पणी
‘निधिपाः’—पृथिवी ह्येष निधिः। श० ६। ५। २। ३॥ तम्पाति इति निधिपाः पृथ्वीपालः। (प्र०) ‘षष्ठ्याम्’ इति क्वचित्। ‘षष्ट्यां शरद्भ्यः परिदधामएनम्’ (तृ०) ‘उपैनं पुत्रान् पितरश्चसीदाम्’ (च०) ‘इमं स्वर्गं’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Svarga and Odana
Meaning
For sixty years of life, the master of the house, carrying on the yajna and yajnic charity, should, with his experience and growth of mature wisdom, wish and work to enjoy the spiritual bliss of life, while the parents and children, depending on him, live and enjoy their life. O Lord, lead him to the ultimate bliss of life at the end of his yajna on top of knowledge and spiritual vision.
Translation
In sixty autumns may he seek unto the treasure-keepers, may he attain unto the sky with the cooked (offering); may both fathers (and) sons live upon him, make thou this one to go unto the heaven-going end of the fire.
Translation
May the master of grain seek or desire the state of light and happiness in sixty autumns by method and practice of cooking oblations. May fathers and sons depend on this. Let (these oblations) be offered in fire of Yajna which leads us to the state of happiness.
Translation
A King, the guardian of Earth, should, with his mature strength, wish to enjoy his rule, a paradise on earth till his sixtieth year. On him may his parents and sons depend! O God, lead the king to the end of knowledge, and make his rule full of joy!
Footnote
पृथिवी ह्मेण निधि: श ० 6-5-2-3.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३४−(षष्ठ्याम्) षष्टिसंख्यायुक्तासु। अनेकासु इत्यर्थः (शरत्सु) संवत्सरेषु (निधिपाः) निधिपालकः (अभि इच्छात्) अन्विच्छेत् (स्वः) सुखम् (पक्वेन) दृढज्ञानेन (अभि) (अश्नवातै) प्राप्नुयात् (एनम्) विद्वांसम् (उप जीवान्) लेट्। उपेत्य जीवन्तु (पितरः) पालका विज्ञानिनः (च) (पुत्राः) पुतो नरकात् त्रायकाः पुरुषाः (एतम्) (विद्वांसम्) (स्वर्गम्) सुखप्रापकं लोकम् (गमय) प्रापय (अन्तम्) सीमाम् (अग्नेः) ज्ञानस्य ॥
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