अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 51
ऋषिः - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
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ए॒षा त्व॒चां पुरु॑षे॒ सं ब॑भू॒वान॑ग्नाः॒ सर्वे॑ प॒शवो॒ ये अ॒न्ये। क्ष॒त्रेणा॒त्मानं॒ परि॑ धापयाथोऽमो॒तं वासो॒ मुख॑मोद॒नस्य॑ ॥
स्वर सहित पद पाठए॒षा । त्व॒चाम् । पुरु॑षे । सम् । ब॒भू॒व॒ । अन॑ग्ना: । सर्वे॑ । प॒शव॑: । ये । अ॒न्ये । क्ष॒त्रेण॑ । आ॒त्मान॑म् । परि॑ । ध॒प॒या॒थ॒: । अ॒मा॒ऽउ॒तम् । वास॑: । मुख॑म्। ओ॒द॒नस्य॑ ॥३.५१॥
स्वर रहित मन्त्र
एषा त्वचां पुरुषे सं बभूवानग्नाः सर्वे पशवो ये अन्ये। क्षत्रेणात्मानं परि धापयाथोऽमोतं वासो मुखमोदनस्य ॥
स्वर रहित पद पाठएषा । त्वचाम् । पुरुषे । सम् । बभूव । अनग्ना: । सर्वे । पशव: । ये । अन्ये । क्षत्रेण । आत्मानम् । परि । धपयाथ: । अमाऽउतम् । वास: । मुखम्। ओदनस्य ॥३.५१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परस्पर उन्नति करने का उपदेश।
पदार्थ
(त्वचाम्) त्वचाओं [शरीर की खालों] में से (एषा) यह (पुरुषे) पुरुष [शरीर] पर (सम् बभूव) मिली है, और (वे) जो (अन्ये) दूसरे (पशवः) जीव हैं, (सर्वे) वे सब [भी] (अनग्नाः) बिना नंगे [खालवाले] हैं। [हे स्त्री-पुरुषो !] तुम दोनों (क्षत्रेण) हानि से बचानेवाले बल से (आत्मानम्) अपने को (परि धापयाथः) ढँपवाओ, [जैसे] (अमोतम्) ज्ञान से बुना हुआ (वासः) कपड़ा (ओदनस्य) अन्न आदि का (मुखम्) मुख्य [रक्षासाधन] है ॥५१॥
भावार्थ
मनुष्यों में मनुष्य शरीर और अन्य जीवों में अन्य प्रकार के शरीर व्यक्तिसूचक हैं, किन्तु मनुष्य ही परमात्मा के ज्ञान से मनुष्यत्व पाकर उन्नति करते हैं, जैसे समझ-बूझकर बनाया हुआ वस्त्र पदार्थों के रखने में समर्थ होता है ॥५१॥
टिप्पणी
५१−(एषा) दृश्यमाना (त्वचाम्) शरीरचर्मणां मध्ये (पुरुषे) पुरुषशरीरे (संबभूव) उत्पन्ना बभूव (अनग्नाः) नञ् ओनजी व्रीडायाम्−क्त। सवस्त्राः। सचर्माणः (सर्वे) (पशवः) प्राणिनः (ये) (अन्ये) (क्षत्रेण) क्षतः क्षतात् त्रायकेण बलेन (आत्मानम्) (परि धापयाथः) आच्छादयतं युवाम् (अमोतम्) अ० ९।५।१४। अम गतौ−घ प्रत्ययः, टाप्+ वेञ् तन्तुसन्ताने−क्त। ज्ञानेन उतं स्यूतम् (वासः) वस्त्रम् (मुखम्) प्रधानं रक्षासाधनम् (ओदनस्य) अन्नस्य ॥
विषय
क्षत्र+अमोतं वासः
पदार्थ
१. (त्वचाम् एषा) = त्वचाओं में यह त्वचा-किन्हीं भी बालों से अनावृत त्वचा (पुरुषे संबभूव) = पुरुष में है, अर्थात् पुरुष की यह त्वचा है जो कि नग्न-सी है। (ये अन्ये सर्वे पशव:) = जो और सारे पशु है, वे जो (अनग्नाः) = नग्न नहीं है-उन्हें शीतोष्ण के निवारण के लिए वस्त्रान्तर की आवश्यकता नहीं। २. हे पति-पत्नी! आप दोनों (क्षत्रेण) = बल से-वीर्यशक्ति से (आत्मानम्) = अपने को (परिधापयाथ:) = परिधापित करो-यह क्षत्र ही आपका वस्त्र बने। इस क्षत्र के साथ (अमा ऊतं वास:) = घर में बुना हुआ वस्त्र (ओदनस्य) = इन अन्नमयकोश का (मुखम्) = प्रधान परिधान [वस्त्र] होता है।
भावार्थ
प्रभु ने मनुष्य की त्वचा को अन्य प्राणीयों की तरह बालों से आवत नहीं किया, अतः मनुष्य को वस्त्रों की आवश्यकता होती है। मुख्य वस्त्र तो 'बल' ही है। जितनी शक्ति कम होगी उतनी वस्त्रे की आवश्यकता अधिक होगी। उसके लिए प्रयत्न करना चाहिए कि घर पर कते-बने वस्त्र ही पहने जाएँ।
भाषार्थ
(त्वचाम्) त्वचाओं में से (एषा) यह त्वचा [अर्थात् वस्त्र] (पुरुषे) पुरुष के निमित्त (सं बभूव) हुई हैं, (ये अन्ये पशवः) जो अन्य पशु हैं वे (सर्वे) सब (अनग्नाः) नग्न नहीं हैं। इसलिये तुम दोनों पति-पत्नी (क्षत्रेण) क्षतों से त्राण करने वाले वस्त्र द्वारा (आत्मानम्) अपने-आप को (परिधापयाथः) सब ओर से ढांपो (अमोतं वासः) घर में बुना वस्त्र (ओदनस्य) ओदन की अपेक्षया (मुखम्) मुख्य है।
टिप्पणी
[पुरुषभिन्न पशु निजत्वचाओं द्वारा सर्दी-गर्मी-वर्षा से बचे रहते है, अतः वे नग्न नहीं, परन्तु पुरुष की स्थिति ऐसी नहीं, अतः उस के लिये वस्त्ररूपी त्वचा चाहिये। वस्त्ररूपी त्वचा को क्षत्र कहा है, क्षत् +त्र (पालने), यह वस्त्ररूपी त्वचा खाद्यान्न से भी मुखिया है। बिना वस्त्र के पुरुष समाज से वञ्चित रहता है। अमा गृहनाम (निघं० ३।४)]।
विषय
स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।
भावार्थ
वस्त्र पहनने का उपदेश करते हैं—(त्वचाम्) समस्त त्वचाओं में से (एषा) यह बिना लोम की त्वचा (पुरुषे संबभूव) इस मनुष्य पर ही लगी है। (ये अन्ये पशवः) और जो पशु हैं (सर्वे) वे सब (नग्नाः) नंगे न रह कर बालों से ढके हैं। इसलिये हे स्त्री पुरुषो ! गृहस्थ लोगो ! तुम भी (आत्मानम्) अपने को (क्षत्रेण) अपने देहको क्षति होने से बचाने वाले वस्त्र से, बल और वीर्य से (परिधापयाथः) ढक लो। (ओदनस्य मुखम्) ओदन रूप वीर्य के (मुखम्) मुख्यस्वरूप (वासः) वस्त्र को तुम दोनों स्त्री पुरुष (अमा-उतम्) मिलकर बुनलो। उसी प्रकार अपने को प्रजा के लोग क्षत्र—अर्थात् क्षात्रबल से अपनी रक्षा करें। ओदन रूप प्रजापति का ‘मुख’ = मुख्य स्वरूप पद (वासः) उत्तम वस्त्र ही (अमाउतम्) परस्पर मिलकर बना लिया करो। अर्थात् क्षत्रबल को परस्पर तन्तुओं के समान मिलकर ही उत्पन्न करलो।
टिप्पणी
(प्र० द्वि०) ‘संबभूव अनग्नास्सर्वे’ (तृ०) ‘धापयेत’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Svarga and Odana
Meaning
This cover, the human form of all others, the cloth, and the karmic extension of yajna is provided only in the case of the human being. All other living beings are neither naked (because they are given a natural cover) nor do they perform any yajna. O men and women, cover yourselves with cloth and yajnic service of the social system. And home made cloth and home yajna is the first requisite of divine service.
Translation
This one of skins hath come into being on man; not naked are all the animals that are other; you cause to wrap youselves with authority, a home-woven garment, the mouth of the rice-dish.
Translation
Man has received this skin which is tender one among other skins (as it has not hair upon it). The other animals are not naked (they have also skin covers). O man and women dress you with cloths. The cloth to cover the mouth of Odana oblation, he woven by yourselves.
Translation
Man hath received the skin without hair from nature. Of other animals not one is naked, all are full of hair on the skin. Ye man and woman clothe yourselves with raiment to protect your body, as an intelligently woven cloth covers the cooked food.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५१−(एषा) दृश्यमाना (त्वचाम्) शरीरचर्मणां मध्ये (पुरुषे) पुरुषशरीरे (संबभूव) उत्पन्ना बभूव (अनग्नाः) नञ् ओनजी व्रीडायाम्−क्त। सवस्त्राः। सचर्माणः (सर्वे) (पशवः) प्राणिनः (ये) (अन्ये) (क्षत्रेण) क्षतः क्षतात् त्रायकेण बलेन (आत्मानम्) (परि धापयाथः) आच्छादयतं युवाम् (अमोतम्) अ० ९।५।१४। अम गतौ−घ प्रत्ययः, टाप्+ वेञ् तन्तुसन्ताने−क्त। ज्ञानेन उतं स्यूतम् (वासः) वस्त्रम् (मुखम्) प्रधानं रक्षासाधनम् (ओदनस्य) अन्नस्य ॥
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