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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 52
    ऋषिः - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
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    यद॒क्षेषु॒ वदा॒ यत्समि॑त्यां॒ यद्वा॒ वदा॒ अनृ॑तं वित्तका॒म्या। स॑मा॒नं तन्तु॑म॒भि सं॒वसा॑नौ॒ तस्मि॒न्त्सर्वं॒ शम॑लं सादयाथः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒क्षेषु॑ । वदा॑: । यत् । सम्ऽइ॑त्याम् । यत् । वा॒ । वदा॑: । अनृ॑तम् । वि॒त्त॒ऽका॒म्या । स॒मा॒नम् । तन्तु॑म् । अ॒भि। स॒म्ऽवसा॑नौ । तस्मि॑न् । सर्व॑म् । शम॑लम् । सा॒द॒या॒थ॒:॥३.५२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदक्षेषु वदा यत्समित्यां यद्वा वदा अनृतं वित्तकाम्या। समानं तन्तुमभि संवसानौ तस्मिन्त्सर्वं शमलं सादयाथः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अक्षेषु । वदा: । यत् । सम्ऽइत्याम् । यत् । वा । वदा: । अनृतम् । वित्तऽकाम्या । समानम् । तन्तुम् । अभि। सम्ऽवसानौ । तस्मिन् । सर्वम् । शमलम् । सादयाथ:॥३.५२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 52
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परस्पर उन्नति करने का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे स्त्री वा पुरुष !] (यत्) जो कुछ [झूठ] (अक्षेषु) अभियोगों [राजगृह के विवादों] में, [अथवा] (यत्) जो कुछ [झूठ] (समित्याम्) संग्राम में (वदाः) तू बोले, (वा) अथवा (यत्) जो कुछ (अनृतम्) झूठ (वित्तकाम्या) धन की कामना से (वदाः) तू बोले। (समानम्) एक ही (तन्तुम् अभि) तन्तु [वस्त्र] में (संवसानौ) ढके हुए तुम दोनों [स्त्री-पुरुषो] (तस्मिन्) उस [झूठ] में (सर्वम्) सब (शमलम्) भ्रष्ट कर्म को (सादयाथः) स्थापित करोगे ॥५२॥

    भावार्थ

    सब स्त्री-पुरुषों को योग्य है कि एक-दूसरे को अपने सदृश समझ कर कठिन से कठिन आपत्ति में भी असत्य न बोलें, असत्य ही सब पापों का मूल है ॥५२॥

    टिप्पणी

    ५२−(यत्) असत्यम् (अक्षेषु) व्यवहारेषु। राजगृहविवादेषु (वदाः) लेट्। कथयेः (यत्) (समित्याम्) सङ्ग्रामे (यत्) (वा) अथवा (वदाः) (अनृतम्) असत्यम् (वित्तकाम्या) वसिवपियजि०। उ० ४।१२५। कमु कान्तौ−इञ्। धनकामनया (समानम्) तुल्यम् (तन्तुम्) सूत्रम्। वस्त्रमित्यर्थः (अभि) प्रति (संवसानौ) सम्यग् आच्छादितौ (तस्मिन्) अनृते (सर्वम्) संपूर्णम् (शमलम्) भ्रष्टकर्म (सादयाथः) लेट्। स्थापयिष्यथः ॥

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    विषय

    समानं तन्तुं अभि सं वसानौ

    पदार्थ

    १. (यत्) = जो झूठ तुम (अक्षेषु) = अभियोगों [Lawsuit] में (वदा:) = बोल बैठते हो, (यत् समित्याम्) = जो संग्रामों में [व सभाओं में], (यत् वा) = अथवा जो (अनृतम्) = झूठ (वित्तकाम्या) = धन की कामना से (वदा:) = तुम बोलते हो, उस (सर्वं शमलम्) = सब नैतिक अपवित्रता [Moral impurity] को, (समानं तन्तुम्) = सर्वत्र समानरूप से विस्तृत [Supreme Being] सर्वव्यापक उस प्रभु को (अभिसंवसानौ) = चारों और से ओढ़ते हुए, (तस्मिन् सादयाथ:) = उस प्रभु में विनष्ट कर डालो। प्रभु में निवास करनेवाला व्यक्ति इन अनृतरूप मलों से आक्रान्त नहीं होता।

    भावार्थ

    अभियोगों के अवसरों पर, संग्रामों व सभाओं में तथा धन की कामना से हम झठ बोल बैठते हैं, परन्तु जब हम अपने को सर्वव्यापक प्रभु से आच्छादित हुआ-हुआ अनुभव करेंगे तब यह सब अनृत का मल हमसे दूर हो जाएगा।

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    भाषार्थ

    (यद् अनृतम्) जो असत्य (अक्षेषु) मुकद्दमों में (वदा) तुम बोलते हो, (यत् समित्याम्) जो राष्ट्रिय सभा-समिति में, (यद्वा) या जो (वितकाम्या) धन की कामना से (वदा) असत्य बोलते हो, (समानम्) एक ही (तन्तुम्) व्यापी यज्ञभावना का वस्त्र (अभिसंवसानौ) पहिनते हुए तुम दोनों, (तस्मिन्) उस यज्ञभावना में, (सर्वं शमलम्) समग्र अनृतमल का (सादयाथः) विशीर्ण कर दो।

    टिप्पणी

    [अक्षेषु=Legal procedure, law suit (आप्टे)। तन्तुम् = तन् विस्तारे, व्यापी यज्ञ, सत्य का व्यापी व्रतरूपी यज्ञ। या The supreme Being (आप्टे) अर्थात् परमेश्वर। परमेश्वर रूपी वस्त्र में अपने-आप को लिपटे जानते हुए। सादयाथः=शद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु। शमलम् = शम् = (शान्ति) + अलम् (समाप्ति), अनृतरूपी मल के कारण चित्त अशान्त हो जाता है]

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    विषय

    स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।

    भावार्थ

    (अक्षेषु) द्यूत क्रीड़ा के अवसरों पर (यत् अनृतं वदाः) जो झूठ बोलते हो, (समित्याम्) समिति, सभा में (यत् अनृतं) जो असत्य बोलते हो और (यत् वा अनृतम्) जो सत्य (वित्तकाभ्या) धन की चाह से (वदाः) बोलते हो, हे स्त्री पुरुषो ! (समानं तन्तुम्) एक समान (तन्तु) वस्त्र के समान राज्य तन्त्र को (संवसानौ) पहने या धारण करते हुए तुम (सर्वम् शमलम्) समस्त पाप (तस्मिन् सादयाथः) उसमें ही लगाते हो। अर्थात् जिस प्रकार वस्त्र पहन कर जब कोई भी मैला करता है तो वह मैल जैसे वस्त्र पर आ लगती है उसी प्रकार एक ही तन्तु = तन्त्र या राज्य शासन में रहते हुए लोग जो भी असत्य व्यवहार वे खेलों, सभाओं और धन के व्यापारों में बोलते हैं वह सब पाप उस राष्ट्र के आच्छादक वस्त्र रूप ‘क्षत्र’ = राज्य शासन पर ही आ लगते हैं। यह राजा का दोष है कि प्रजा परस्पर असत्य बोलती चोरी करतो और पाप करती है।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘वदसि’ (द्वि०) ‘यद्वाधने अनृत’ (तृ०) ‘तन्तु सह सं ब’। इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Svarga and Odana

    Meaning

    Whatever untrue you utter in gambling disputes, or in selfish disputes, or with the desire to win undeserved money, seal it therein, exhaust it, better burn it in the yajna fire while you both wear the common vestments of yajna to wash off the pollution of your selfishness.

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    Translation

    What (untruth) thou shalt speak at the dice, what at the meeting, or what untruth thou shalt speak from desire of gain clothing yourselves in the same web, you shall settle in it all pollution.

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    Translation

    O Ye men and women ! whatever lie you tell in plays, whatever in meeting, and whatever untruth you speak in desiring wealth let all this dirt be left out in the lie or untruth itself. You always dress your self with common dress.

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    Translation

    Whatever falsehood thou utterest in gambling, in the assembly, or through desire of riches, O man and woman, ye attribute that sin to the government machinery, as all impurity is deposited on the cloth one constantly wears.

    Footnote

    It is the duty of the king to see that none of his subjects tells a lie, steals or commits a sin.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५२−(यत्) असत्यम् (अक्षेषु) व्यवहारेषु। राजगृहविवादेषु (वदाः) लेट्। कथयेः (यत्) (समित्याम्) सङ्ग्रामे (यत्) (वा) अथवा (वदाः) (अनृतम्) असत्यम् (वित्तकाम्या) वसिवपियजि०। उ० ४।१२५। कमु कान्तौ−इञ्। धनकामनया (समानम्) तुल्यम् (तन्तुम्) सूत्रम्। वस्त्रमित्यर्थः (अभि) प्रति (संवसानौ) सम्यग् आच्छादितौ (तस्मिन्) अनृते (सर्वम्) संपूर्णम् (शमलम्) भ्रष्टकर्म (सादयाथः) लेट्। स्थापयिष्यथः ॥

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