अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 47/ मन्त्र 8
अध॑ रात्रि तृ॒ष्टधू॑ममशी॒र्षाण॒महिं॑ कृणु। हनू॒ वृक॑स्य ज॒म्भया॑स्ते॒नं द्रु॑प॒दे ज॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठअध॑। रा॒त्रि॒। तृ॒ष्टऽधू॑मम्। अ॒शी॒र्षाण॑म्। अहि॑म्। कृ॒णु॒। हनू॒ इति॑। वृक॑स्य। ज॒म्भयाः॑। तेन॑। तम्। द्रु॒ऽप॒दे। ज॒हि॒ ॥४७.८॥
स्वर रहित मन्त्र
अध रात्रि तृष्टधूममशीर्षाणमहिं कृणु। हनू वृकस्य जम्भयास्तेनं द्रुपदे जहि ॥
स्वर रहित पद पाठअध। रात्रि। तृष्टऽधूमम्। अशीर्षाणम्। अहिम्। कृणु। हनू इति। वृकस्य। जम्भयाः। तेन। तम्। द्रुऽपदे। जहि ॥४७.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
रात्रि में रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(अध) और (रात्रि) हे रात्रि ! (तृष्टधूमम्) क्रूर धुएँवाले [विषैली श्वासवाले] (अहिम्) साँप को (अशीर्षाणम्) रुण्ड [बिना शिर का] (कृणु) कर दे, [शिर कुचल कर मार डाल] (वृकस्य) भेड़िये के (हनू) दोनों जबड़े (जम्भयाः) तोड़ डाल, (तेन) उससे (तम्) उसको (द्रुपदे) काठ के बन्धन में (जहि) मार डाल ॥८॥
भावार्थ
मनुष्य हिंसक जीव और मनुष्यों को ऐसे प्रबन्ध से रक्खें कि वे किसी को हानि न करें ॥८॥
टिप्पणी
यह मन्त्र कुछ भेद से आगे है-५०।१ ॥ ८−(अध) अथ। अपि च (रात्रि) (तृष्टधूमम्) ञितृषा पिपासायाम्-क्त। क्रूरधूमम्। विषयुक्तश्वासोपेतम् (अशीर्षाणम्) शिरोरहितम् (अहिम्) सर्पम् (कृणु) कुरु (हनू) मुखस्य अन्तःस्थूलदन्तयुक्तौ पार्श्वौ (वृकस्य) अजादीनामपहर्तुः। अरण्यशुनः (जम्भयाः) जभि गात्रविनामे लेटि, आडागमः। जम्भयेः। विनाशय (तेन) (तम्) वृकम् (द्रुपदे) काष्ठबन्धे (जहि) मारय ॥
भाषार्थ
(अध) तथा (रात्रि) हे रात्रि! तू (तृष्टधूमम्) पिपासाजनक फुंकारोंवाले (अहिम्) सांप को (अशीर्षाणम्) सिर-रहित (कृणु) कर दे। (वृकस्य) भेड़िये के (हनू) दो जबड़ों को (जम्भयाः) ढीले कर दे, तोड़ दे। (तेन) उससे (तम्) उस को (जहि) मार डाल, जैसे कि किसी को (द्रुपदे) काठ अर्थात् पैरों की बेड़ी डाल कर मार दिया जाता है।
टिप्पणी
[तृष्टधूमम्= जहरीले सांप के फुंकार भी घातक होते हैं। ऐसे सांप के विष के प्रवेश द्वारा व्यक्ति की जिह्वा और मुख खुश्क हो जाते हैं जिस से प्यास लगती है। प्यास लगने पर पानी देना घातक हो जाता है। धूमम्=धूनोति कम्पयतीति धूमः (उणा० १.१४५)। जम्भयाः=जभ् गात्र विनामे।]
विषय
साँप, भेड़िया व चोर
पदार्थ
१. (अध) = [अध] अब हे (रात्रि) = रात्रिदेवि! तू (तष्टाधूमम्) = [पिपासार्थेन तषिणा तज्जन्या आर्तिर्विक्ष्यते] आर्तिकारी है विषज्वाला का धूम जिसका अथवा निश्वास धूम जिसका, उस परोपद्रव कारिणे विषञ्चाला से परिवृत (अहिम्) = साँप को (अशीर्षाणं कृणु) = अशिरस्क कर दे इसके सिर को काट डाल। २. (वृकस्य) = अज आदि के अपहर्ता आरण्यश्वा [भेड़िये] के हनू मुख के अन्दर स्थूलदन्तयुक्त पाश्वों को (जम्भया:) = हिंसित कर दे-इसके जबड़ों को तोड़ डाल। जो स्तेन [स्तेनः] चोर है, (तम्) = उसको (द्रुपदे) = [दुः सर्वतोऽभिद्रवणम्] चारों ओर गतिवाले पाँव में (जहि) = हिसित कर। इसके पाँव काट डाल अथवा पाँव में बेड़ी डाल दे, ताकि यह इधर उधर जा ही न सके।
भावार्थ
राजा रात्रि में इसप्रकार रक्षण-व्यवस्था रक्खे कि सौंप, भेड़िये व चोर प्रजाओं में उपद्रव न कर सकें।
इंग्लिश (4)
Subject
Ratri
Meaning
O Night, crush the head of the snake which breathes out dark smoke and doom. Break the jaw of the wolf and kill him in the flight.
Translation
Now, O night, make headless the serpent, causing great thirst by its hissing, crush the jaws of the wolf, and dash the thief to the wooden post.
Translation
Let this night make the snake who breaths with thorwing smokes deprived of head, let it crush the jaws of wolf in pieces and strike the robber against post.
Translation
O night, crush, the head of the serpant, emitting poisonous smoke through forceful hissing. Break into pieces of the jaws of the wolf. Letest thou kill him in the trap laid for him.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यह मन्त्र कुछ भेद से आगे है-५०।१ ॥ ८−(अध) अथ। अपि च (रात्रि) (तृष्टधूमम्) ञितृषा पिपासायाम्-क्त। क्रूरधूमम्। विषयुक्तश्वासोपेतम् (अशीर्षाणम्) शिरोरहितम् (अहिम्) सर्पम् (कृणु) कुरु (हनू) मुखस्य अन्तःस्थूलदन्तयुक्तौ पार्श्वौ (वृकस्य) अजादीनामपहर्तुः। अरण्यशुनः (जम्भयाः) जभि गात्रविनामे लेटि, आडागमः। जम्भयेः। विनाशय (तेन) (तम्) वृकम् (द्रुपदे) काष्ठबन्धे (जहि) मारय ॥
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