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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 24/ मन्त्र 5
    ऋषिः - विश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-२४
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    इन्द्र॒ सोमाः॑ सु॒ता इ॒मे तान्द॑धिष्व शतक्रतो। ज॒ठरे॑ वाजिनीवसो ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ । सोमा॑: । सु॒ता: । इ॒मे । तान् । द॒धि॒ष्व॒ । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो ॥ ज॒ठरे॑ । वा॒जि॒नी॒व॒सो॒ इति॑ । वाजिनीऽवसो ॥२४.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र सोमाः सुता इमे तान्दधिष्व शतक्रतो। जठरे वाजिनीवसो ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र । सोमा: । सुता: । इमे । तान् । दधिष्व । शतक्रतो इति शतऽक्रतो ॥ जठरे । वाजिनीवसो इति । वाजिनीऽवसो ॥२४.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 24; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    विषय

    विद्वानों के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (शतक्रतो) हे सैकड़ों कर्मों वा बुद्धियोंवाले, (वाजिनीवसो) अन्नयुक्त क्रियाओं में बसानेवाले ! (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] (जठरे) प्रसिद्ध हुए जगत् में (इमे) यह (सोमाः) पदार्थ (सुताः) उत्पन्न हुए हैं, (तान्) उनको (दधिष्व) धारण कर ॥॥

    भावार्थ

    मनुष्य सृष्टि के पदार्थों की विद्या जानकर ऐश्वर्यवान् होवें ॥॥

    टिप्पणी

    −(इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् (सोमाः) पदार्थाः (सुताः) निष्पन्नाः (इमे) दृश्यमानाः (तान्) (दधिष्व) धत्स्व। धर (शतक्रतो) हे बहुकर्मन् ! बहुप्रज्ञ (जठरे) जनेररष्ठ च। उ० ।३८। जनी प्रादुर्भावे-अरप्रत्ययः, ठश्चान्तादेशः। प्रादुर्भूते जगति। जातेऽस्मिन् जगति दयानन्दभाष्ये (वाजिनीवसो) वाजोऽन्नम्-निघ० २।७। तस्माद्-इनि, ङीप्। हे अन्नयुक्तासु क्रियासु वासयितः ॥

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    विषय

    इन्द्र-शतक्रतो-वाजिनीवसो

    पदार्थ

    १.हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो! (इमे सोमाः सुता:) = ये सोम सम्पादित हुए हैं। हे (शतक्रतो) = अनन्तशक्ति व प्रज्ञानवाले प्रभो! आप (तान् दधिष्व) = उनको धारण कीजिए। २. हे (वाजिनीवसो) = शक्तिप्रद अनों के द्वारा हमें बसानेवाले प्रभो! इन सोमकणों को (जठरे) = हमारे अन्दर ही-शरीर में ही धारण कीजिए। हम इन शक्तिप्रद अन्नों का सेवन करते हुए सोम को अपने अन्दर सुरक्षित कर पाएँ।

    भावार्थ

    सोम-रक्षण के लिए साधन हैं [क] जितेन्द्रियता [इन्द्र], [ख] सदा कर्मों व ज्ञान-प्राप्ति में लगे रहना [शतक्रतो], [ग] अन्नों का सेवन, मांस का असेवन [वाजिनीवसो]।

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे परमेश्वर! (इमे) ये (सोमाः) भक्तिरस (सुताः) तैयार हैं। (शतक्रतो) हे सैकड़ों अद्भुत कर्मों के कर्त्ता! तथा (वाजिनीवसो) हे आध्यात्मिक उषाओं की सम्पत्तिवाले! (तान्) उन भक्तिरसों को (दधिष्व) आप अपने में धारण कीजिए, जैसे कि बुभुक्षित व्यक्ति अन्न को (जठरे) अपने पेट में धारण करता है।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    Indra, father of morning freshness, lord of a hundred acts of yajna, distilled are these soma essences. Take these, hold them safe in the treasury of this world for a fresh lease of life’s energy.

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    Translation

    O man of sharp understending, you are the possessor of hundred intellectual powers and you locate (in your thought the powerful fire, air and the sun Vajinivasu). These worldly object are preduced in the created world (Jathara). You keep all of them in your knowledge.

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    Translation

    O man of sharp understanding, you are the possessor of hundred intellectual powers and you locate (in your thought the powerful fire, air and the sun Vajinivasu). These worldly object are preduced in the created world (Jathara). You keep all of them in your knowledge.

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    Translation

    O king or soul, performer of hundred sacrifices or deeds, or equipped with hundreds of powers, here are produced these means of pleasure and enjoyment. Take them in to thy fill, O settlers of brave warriors.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    −(इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् (सोमाः) पदार्थाः (सुताः) निष्पन्नाः (इमे) दृश्यमानाः (तान्) (दधिष्व) धत्स्व। धर (शतक्रतो) हे बहुकर्मन् ! बहुप्रज्ञ (जठरे) जनेररष्ठ च। उ० ।३८। जनी प्रादुर्भावे-अरप्रत्ययः, ठश्चान्तादेशः। प्रादुर्भूते जगति। जातेऽस्मिन् जगति दयानन्दभाष्ये (वाजिनीवसो) वाजोऽन्नम्-निघ० २।७। तस्माद्-इनि, ङीप्। हे अन्नयुक्तासु क्रियासु वासयितः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    বিদ্বদ্গুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (শতক্রতো) হে শত শত কর্ম বা বুদ্ধিসম্পন্ন, (বাজিনীবসো) অন্নযুক্ত ক্রিয়ার মধ্যে স্থাপনকারী ! (ইন্দ্র) ইন্দ্র! [ঐশ্বর্যবান্ পুরুষ] (জঠরে) প্রসিদ্ধ জগতে (ইমে) এই (সোমাঃ) পদার্থ (সুতাঃ) উৎপন্ন হয়েছে, (তান্) তা (দধিষ্ব) ধারণ করো ॥৫॥

    भावार्थ

    মনুষ্যগন সৃষ্টির পদার্থবিদ্যা জেনে ঐশ্বর্যবান হোক ॥৫॥

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (ইমে) এই (সোমাঃ) ভক্তিরস (সুতাঃ) প্রস্তুত। (শতক্রতো) হে শত অদ্ভুত কর্মের কর্ত্তা! তথা (বাজিনীবসো) হে আধ্যাত্মিক ঊষার সম্পত্তিসম্পন্ন! (তান্) সেই ভক্তিরস (দধিষ্ব) আপনি নিজের মধ্যে ধারণ করুন, যেমন ক্ষুধার্ত ব্যক্তি অন্ন (জঠরে) নিজের পেটে ধারণ করে।

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