अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 62/ मन्त्र 5
इन्द्रा॑य॒ साम॑ गायत॒ विप्रा॑य बृह॒ते बृ॒हत्। ध॑र्म॒कृते॑ विप॒श्चिते॑ पन॒स्यवे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑य । साम॑ । गा॒य॒त॒ । विप्रा॑य । बृ॒ह॒ते । बृ॒हत् ॥ ध॒र्म॒ऽकृते॑ । वि॒प॒:ऽचिते॑ । प॒न॒स्यवे॑ ॥६२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राय साम गायत विप्राय बृहते बृहत्। धर्मकृते विपश्चिते पनस्यवे ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्राय । साम । गायत । विप्राय । बृहते । बृहत् ॥ धर्मऽकृते । विप:ऽचिते । पनस्यवे ॥६२.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
मन्त्र -१० परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्यो !] (विप्राय) बुद्धिमान्, (बृहते) महान्, (धर्मकृते) धर्म [धारणयोग्य नियम] के बनानेवाले, (विपश्चिते) विशेष महाज्ञानी, (पनस्यवे) सबके लिये व्यवहार चाहनेवाले, (इन्द्राय) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर] के लिये (बृहत्) बड़े (साम) साम [दुःखनाशक मोक्षज्ञान] का (गायत) तुम गान करो ॥॥
भावार्थ
मनुष्य वेदद्वारा धर्मविधान पर चलकर परमात्मा की उपासना से बुद्धिमान् और व्यवहारकुशल होकर मोक्षसुख प्राप्त करें ॥॥
टिप्पणी
मन्त्र -७ ऋग्वेद में है-८।९८ [सायणभाष्य ८७]।१-३। सामवेद-उ० ३।२। तृच २२, मन्त्र , पू० ४।१०।८ ॥ −(इन्द्राय) परमैश्वर्यवते जगदीश्वराय (साम) अ० ७।४।१। दुःखनाशकं मोक्षज्ञानम् (गायत) पठत (विप्राय) मेधाविने (बृहते) महते (बृहत्) महत् (धर्मकृते) धर्मस्य धारणीयनियमस्य कर्त्रे (विपश्चिते) अ० ६।२।३। वि+प्र+चिती संज्ञाने-क्विप्। विशेषमहाज्ञानिने (पनस्यवे) पण स्तुतौ व्यवहारे च-असुन्-क्यच्-उ। सर्वेभ्यो व्यवहारमिच्छते ॥
विषय
इन्द्र-विप्र-बृहत्-धर्मकृत्-विपश्चित्-पनस्यु
पदार्थ
१. (इन्द्राय) = परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए (साम गायत) = साम [स्तोत्र] का गान करो। (विप्राय) = हमारा विशेषरूप से पूरण करनेवाले (बृहते) = सदा से वर्धमान प्रभु के लिए (बृहत्) = खूब ही गायन करो। २. उस प्रभु के लिए गायन करो, जोकि (धर्मकृते) = धारणात्मक कर्मों को करनेवाले हैं। (विपश्चिते) = ज्ञानी हैं और (पनस्यवे) = स्तुति को चाहनेवाले हैं। जीव को इस स्तुति के द्वारा ही अपने लक्ष्य का स्मरण होता है। यह लक्ष्य का अविस्मरण उसकी प्रगति का साधन बनता है, इसीलिए प्रभु यह चाहते हैं कि जीव का जीवन स्तुतिमय हो।
भावार्थ
हम प्रभु का स्तवन करें। प्रभु के समान ही इन्द्र [जितेन्द्रिय], बृहत् [वृद्धिवाले], विप्र [अपना पूरण करनेवाले], धर्मकृत् [धर्म का कार्य करनेवाले], विपश्चित् [ज्ञानी] व पनस्य [स्तुतिमय जीवनवाले] बनें।
भाषार्थ
हे उपासको! (विप्राय) सर्वत्र परिपूर्ण, (बृहते) महतो महान्, (धर्मकृते) धर्ममर्यादा के व्यवस्थापक, (विपश्चिते) मेधावी (पनस्यवे) स्तुत्यभिलाषी (इन्द्राय) परमेश्वर के लिए (बृहत् साम) महासामगान (गायत) गाओ।
टिप्पणी
[विप्राय=वि+प्रा (पूरणे)। पनस्यवे=परमेश्वर की स्तुति से परमेश्वर के गुण उपासक में आते हैं, जिससे उपासक की समुन्नति होती है। परमेश्वर चाहता है कि उपासक की समुन्नति हो, और उसका उपाय है परमेश्वरीय गुणों का ध्यान और उन गुणों को आचरण में लाना। इसीलिए परमेश्वर स्तुत्यभिलाषी होता है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Sing Brhatsama hymns in adoration of Indra, vibrant spirit of the universe and giver of fulfilment, grand and infinite, source ordainer and keeper of the law of universal Dharma, giver and protector of knowledge and karma, the lord adorable. Sing Brhatsama hymns in adoration of Indra, vibrant spirit of the universe and giver of fulfilment, grand and infinite, source ordainer and keeper of the law of universal Dharma, giver and protector of knowledge and karma, the lord adorable.
Translation
O men, you sing the Brihat Soman in honour of Almighty God who is wise great, supporter of the world, the knower of ail and to whom all praises are due.
Translation
O men, you sing the Brihat Soman in honor of Almighty God who is wise great, supporter of the world, the knower of all and to whom all praises are due.
Translation
O persons, sing the great song (in the form of Bihati verses of Sam Ved), for the Mighty God, Who is All-wise, the Sustainer, Ordainer, the Omniscient, Praiseworthy, and Bestower of all blessings and fortunes.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
मन्त्र -७ ऋग्वेद में है-८।९८ [सायणभाष्य ८७]।१-३। सामवेद-उ० ३।२। तृच २२, मन्त्र , पू० ४।१०।८ ॥ −(इन्द्राय) परमैश्वर्यवते जगदीश्वराय (साम) अ० ७।४।१। दुःखनाशकं मोक्षज्ञानम् (गायत) पठत (विप्राय) मेधाविने (बृहते) महते (बृहत्) महत् (धर्मकृते) धर्मस्य धारणीयनियमस्य कर्त्रे (विपश्चिते) अ० ६।२।३। वि+प्र+चिती संज्ञाने-क्विप्। विशेषमहाज्ञानिने (पनस्यवे) पण स्तुतौ व्यवहारे च-असुन्-क्यच्-उ। सर्वेभ्यो व्यवहारमिच्छते ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মন্ত্রাঃ -১০ পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ
भाषार्थ
[হে মনুষ্যগণ !] (বিপ্রায়) বুদ্ধিমান্, (বৃহতে) মহান্, (ধর্মকৃতে) ধর্ম [ধারণযোগ্য নিয়ম] এর সৃজনকারী, (বিপশ্চিতে) বিশেষ মহাজ্ঞানী, (পনস্যবে) সকলের জন্য উত্তম ব্যবহার অভিলাষী , (ইন্দ্রায়) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যযুক্ত জগদীশ্বর] এর নিমিত্তে (বৃহৎ) বৃহৎ (সাম) সাম [দুঃখনাশক মোক্ষজ্ঞান] (গায়ত) তোমরা গায়ন করো ॥৫॥
भावार्थ
মনুষ্য বেদদ্বারা ধর্মবিধান অনুসরণপূর্বক পরমাত্মার উপাসনার মাধ্যমে বুদ্ধিমান্ এবং ব্যবহারকুশল হয়ে মোক্ষসুখ প্রাপ্ত করে/করুক ॥৫॥ মন্ত্র ৫-৭ ঋগ্বেদে আছে-৮।৯৮ [সায়ণভাষ্য ৮৭]।১-৩। সামবেদ-উ০ ৩।২। তৃচ ২২, মন্ত্র ৫, পূ০ ৪।১০।৮ ॥
भाषार्थ
হে উপাসকগণ! (বিপ্রায়) সর্বত্র পরিপূর্ণ, (বৃহতে) মহতো মহান্, (ধর্মকৃতে) ধর্মমর্যাদার ব্যবস্থাপক, (বিপশ্চিতে) মেধাবী (পনস্যবে) স্তুত্যভিলাষী (ইন্দ্রায়) পরমেশ্বরের জন্য (বৃহৎ সাম) মহাসামগান (গায়ত) গান করো।
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