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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 70 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 70/ मन्त्र 13
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-७०
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    तु॒ञ्जेतु॑ञ्जे॒ य उत्त॑रे॒ स्तोमा॒ इन्द्र॑स्य व॒ज्रिणः॑। न वि॑न्धे अस्य सुष्टु॒तिम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तञ्जेऽतु॑ञ्जे । ये । उत्ऽत॑रे । स्तोमा॑: । इन्द्र॑स्य । व॒ज्रिण॑: ॥ न । व‍ि॒न्धे॒ । अ॒स्य॒ । सु॒ऽस्तु॒तिम्‌ ॥७०.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तुञ्जेतुञ्जे य उत्तरे स्तोमा इन्द्रस्य वज्रिणः। न विन्धे अस्य सुष्टुतिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तञ्जेऽतुञ्जे । ये । उत्ऽतरे । स्तोमा: । इन्द्रस्य । वज्रिण: ॥ न । व‍िन्धे । अस्य । सुऽस्तुतिम्‌ ॥७०.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 70; मन्त्र » 13
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    १०-२० परमेश्वर की उपासना का उपदेश।

    पदार्थ

    (वज्रिणः) अत्यन्त पराक्रमवाले (इन्द्रस्य) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर] के (तुञ्जे तुञ्जे) दान-दान में (ये) जो (उत्तरे) उत्तम-उत्तम (स्तोमाः) स्तोत्र हैं, [उन से] उसकी (सुष्टुतिम्) सुन्दर स्तुति (न विन्धे) मैं नहीं पाता हूँ ॥१३॥

    भावार्थ

    परमात्मा ने प्राणियों के सुख के लिये अनन्त पदार्थ दिये हैं, अल्पज्ञ मनुष्य उनकी गणना करके उसकी स्तुति नहीं कर सकता ॥१३॥

    टिप्पणी

    १३−(तुञ्जे तुञ्जे) तुजि हिसायां पालने च-भावे घञ्। तुजस्तुञ्जतेर्दानकर्मणः-निरु० ६।१७। दाने दाने-निरु० ६।१८। (ये) (उत्तरे) उत्कृष्टाः (स्तोमाः) स्तोत्राणि (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतो जगदीश्वरस्य (वज्रिणः) वीर्यवतः। प्रशस्तपराक्रमिणः (न) निषेधे (विन्धे) विद्लृ लाभे-लट्, दकारस्य धकारः। विन्दे। विन्दामि। प्राप्नोमि (अस्य) परमेश्वरस्य (सुष्टुतिम्) शोभनां स्तुतिम् ॥

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    विषय

    अनन्त दान-सान्त स्तवन

    पदार्थ

    १. (तुञ्जे तुञ्जे) = प्रत्येक दान के कर्म में (ये) = जो उस (वज्रिण:) = काम, क्रोध, लोभ आदि पर वन का प्रहार करनेवाले (इन्द्रस्य) = शत्रुओं के विद्रावक परमैश्वर्यशाली प्रभु के (उत्तरे स्तोमा:) = उत्कृष्ट स्तवन होते हैं, उन स्तवनों द्वारा (अस्य) = इस प्रभु की (सुष्टुतिम्) = उत्तम स्तुति को न विन्धे [न विन्दामि] नहीं प्रास करता हूँ। २. प्रभु के दान अनन्त है, मेरी स्तुति तो सान्त ही है। मैं कितना भी प्रभु का स्तवन करूँ, प्रभु के दान उस स्तवन से अधिक ही होते हैं। प्रभु के दान समाप्त नहीं होते, मेरी स्तुति समाप्त हो जाती है।

    भावार्थ

    प्रभु के अनन्त दानों का स्तवन करना हमारे सामर्थ्य से बाहर है। दान अनन्त हैं, हमारी शक्ति तो सान्त ही है।

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    भाषार्थ

    (वज्रिणः) पापों पर वज्रप्रहार करनेवाले (इन्द्रस्य) परमेश्वर के (तुञ्जे तुञ्जे) पापों पर वज्रप्रहार होते हुए, (ये) जो (उत्तरे) उत्तम और उत्कृष्ट (स्तोमाः) सामगान होने चाहिएँ, जिन द्वारा (अस्य) इस परमेश्वर की (सुष्टुतिम्) उत्तमोत्तम स्तुतियाँ हो सकें, उन्हें मैं (न विन्धे) नहीं जानता।

    टिप्पणी

    [तुञ्जः=वज्र (निघं০ २.२०)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    India Devata

    Meaning

    On success in battle after battle, follow songs of celebration in honour of Indra, lord wielder of the thunderbolt, and I love to go on and on with the song without end.

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    Translation

    The most-deserving praises acorded to the giver on each gift giving occasion are also due to-the All powerful God. I do not find suitable praise to admire Him (i. e. He is beyond my praise).

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    Translation

    The most-deserving praises accorded to the giver on each gift-giving occasion are also due to the All powerful God. I do not find suitable praise to admire Him (i.e. He is beyond my praise).

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    Translation

    I find no adequate praise-words for This mighty Lord of fortunes. Whatever highest words of praise there are at the time of each gift, are for the Powerful God, the Evil-Destroyer.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १३−(तुञ्जे तुञ्जे) तुजि हिसायां पालने च-भावे घञ्। तुजस्तुञ्जतेर्दानकर्मणः-निरु० ६।१७। दाने दाने-निरु० ६।१८। (ये) (उत्तरे) उत्कृष्टाः (स्तोमाः) स्तोत्राणि (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतो जगदीश्वरस्य (वज्रिणः) वीर्यवतः। प्रशस्तपराक्रमिणः (न) निषेधे (विन्धे) विद्लृ लाभे-लट्, दकारस्य धकारः। विन्दे। विन्दामि। प्राप्नोमि (अस्य) परमेश्वरस्य (सुष्टुतिम्) शोभनां स्तुतिम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    ১০-২০ পরমেশ্বরোপাসনোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (বজ্রিণঃ) অত্যন্ত পরাক্রমশালী (ইন্দ্রস্য) ইন্দ্রের [পরম ঐশ্বর্যবান জগদীশ্বরের] (তুঞ্জে তুঞ্জে) দানে-দানে (যে) যে (উত্তরে) সকল-উত্তম (স্তোমাঃ) স্তোত্র বিদ্যমান, [তা দ্বারা] উনার (সুষ্টুতিম্) সুন্দর স্তুতি (ন বিন্ধে) আমি প্রাপ্ত করতে অক্ষম ॥১৩॥

    भावार्थ

    পরমাত্মা প্রাণীদের সুখের জন্য অনন্ত পদার্থ/বস্তু সৃজন করেছেন, অল্পজ্ঞ মনুষ্য তা গণনা করে সেই সকলের স্তুতি/প্রশংসা করতে সক্ষম নয় ॥১৩॥

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    भाषार्थ

    (বজ্রিণঃ) পাপের ওপর বজ্রপ্রহারকারী (ইন্দ্রস্য) পরমেশ্বরের (তুঞ্জে তুঞ্জে) পাপের ওপর বজ্রপ্রহারের সময়, (যে) যে (উত্তরে) উত্তম এবং উৎকৃষ্ট (স্তোমাঃ) সামগান হওয়া উচিৎ, যা দ্বারা (অস্য) এই পরমেশ্বরের (সুষ্টুতিম্) উত্তমোত্তম স্তুতি হয়, তা আমি (ন বিন্ধে) না জানি।

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